बुरे कर्मो का
पुंज पाप है और अच्छे कर्मो का संग्रह पुण्य। अठारह पुराणों का सार है-'परोपकाराय
पुण्याय पापाय परपीडनम्।' अर्थात परोपकार करने से पुण्य और परपीडन से पाप मिलता है।
पुण्य का पुरस्कार सुख है और पाप का दु:ख। अनुभूत तथ्य है कि संसारी मनुष्य का
स्वभाव विरोधाभासी है। वह पुण्य के सुखद फल की तो कामना करता है, किंतु पुण्य
कर्म नहीं करना चाहता- 'पुणस्य फलमिच्छन्ति नेच्छन्ति पुण्य मानवा:।' इसी तरह वह पाप
के फल को भोगने से बचता है, किंतु बड़ी चतुराई से पाप कर्म करता रहता है- 'पापस्य फलम्
नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नत:।'कर्म की प्रमुखत: तीन
कोटियां हैं- सकाम कर्म, निष्काम कर्म और स्वभावज कर्म। कर्ता को उसी कर्म का फल मिलता
है,
जिसको
करने में उसकी स्वतंत्रेच्छा का हाथ होता है। जो कर्म दबाव में कराया जाता है उसका
फल कर्ता को नहीं भोगना पड़ता। तामसिक और राजसिक कर्म 'सकाम कर्म' कहे जाते हैं।
चूंकि ये कर्म स्वेच्छा से किए गए वासनात्मक कर्म हैं, अत: ऐसे कृत
कर्म का दु:खद फल कर्ता को भोगना ही पड़ता है। मनुष्य भावनायुक्त प्राणी है। भावना
के बिना वह कर्म नहीं कर सकता है। वह चाहे अच्छा कर्म करे या बुरा कर्म। हमारे
शास्त्र मनुष्य से अपेक्षा करते हैं कि वे वासना और स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्तव्य
भावना से प्रेरित होकर कर्म करें। यानी सदिच्छा या लोकसंग्रह की भावना से प्रेरित
होकर किया गया कर्म 'निष्काम कर्म' है। जैसे भुने हुए चने
से अंकुर नहीं निकलता वैसे निष्काम कर्म से पुनर्जन्म का अंकुर नहीं निकलता। पैर
में गड़ा हुआ कांटा कष्ट देता है और निकालने वाला कांटा पीड़ा से निजात दिलाता है।
कांटा तो कांटा है। अन्त में दोनों को फेंक दिया जाता है। तात्पर्यत: सात्विक कर्म
से ही तामसिक और राजसिक कर्मो से छुटकारा मिलता है और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त
होता है। यही त्रिगुणातीत अवस्था 'कर्म योग' है। जैसे सूर्य
चाहकर भी अंधेरा नहीं फैला सकता वैसे ही भगवान् के दिव्य शरीर से लोकसंग्रही कर्म
बिना किसी प्रयत्न के सहज ही निकलते रहते हैं।
उत्तम जैन (विद्रोही )