मंगलवार, 30 जून 2015

जीवन के विवशता भरे अतिलचीलेपन को त्याग कर नियन्त्रण दिखाना

 बाज़ लगभग ७० वर्ष जीता है, पर अपने जीवन के ४०वें वर्ष में आते आते उसे एक
महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है। उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग
निष्प्रभावी होने लगते हैं। पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है और शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं। चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है। पंख भारी हो जाते हैं और सीने से चिपकने के कारण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमित कर देते हैं। भोजन ढूढ़ना, भोजन पकड़ना और भोजन खाना, तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं, या तो देह त्याग दे, या अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे, या स्वयं को पुनर्स्थापित करे, आकाश के निर्द्वन्द्व एकाधिपति के रूप में।
मन अनन्त, जीवन पर्यन्त जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं, तीसरा अत्यन्त
पीड़ादायी और लम्बा। बाज़ पीड़ा चुनता है और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है।

वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है, अपना घोंसला बनाता है, एकान्त में और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रक्रिया। सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है, अपनी चोंच तोड़ने से अधिक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज के लिये।
तब वह प्रतीक्षा करता है चोंच के पुनः उग आने की। उसके बाद वह अपने पंजे उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की। नये चोंच और पंजे आने के बाद वह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
१५० दिन की पीड़ा और प्रतीक्षा और तब कहीं जाकर उसे मिलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी। इस पुनर्स्थापना के बाद वह ३० साल और जीता है, ऊर्जा, सम्मान और गरिमा के साथ।
प्रकृति हमें सिखाने बैठी है, बूढ़े बाज की युवा उड़ान में जिजीविषा के समर्थ स्वप्न दिखायी दे जाते हैं। अपनी हों उन्मुक्त उड़ानें पंजे पकड़ के प्रतीक हैं, चोंच सक्रियता की द्योतक है और पंख कल्पना को स्थापित करते हैं। इच्छा परिस्थितियों पर नियन्त्रण बनाये रखने की, सक्रियता स्वयं के अस्तित्व की गरिमा बनाये रखने की, कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सक्रियता और कल्पना, तीनों के तीनों निर्बल पड़ने लगते हैं, हममें भी, चालीस तक आते आते। हमारा व्यक्तित्व ही ढीला पड़ने लगता है, अर्धजीवन में ही जीवन समाप्तप्राय लगने लगता है, उत्साह, आकांक्षा, ऊर्जा अधोगामी हो जाते हैं। हमारे पास भी कई विकल्प होते हैं, कुछ सरल और त्वरित, कुछ पीड़ादायी। हमें भी अपने जीवन के विवशता भरे अतिलचीलेपन को त्याग कर नियन्त्रण दिखाना होगा, ।
बाज के पंजों की तरह। हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली वक्र मानसिकता को त्याग कर ऊर्जस्वित सक्रियता दिखानी होगी, बाज की चोंच की तरह। हमें भी भूतकाल में जकड़े अस्तित्व के भारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी, बाज के पंखों की तरह। १५० दिन न सही, तो एक माह
ही बिताया जाये, स्वयं को पुनर्स्थापित करने में। जो शरीर और मन से चिपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही, बाज की तरह। बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे, इस बार उड़ानें और ऊँची होंगी, अनुभवी होंगी, अनन्तगामी होंगी

रविवार, 7 जून 2015

विद्रोही आवाज़: ये अक्षय बट है

विद्रोही आवाज़: ये अक्षय बट है

ये अक्षय बट है


मुझे नहीं मालूम किसी के लिए अच्छे दिन का क्या मतलब है। मेरे लिए मेरे धर्म,मेरे देश,मेरी संस्कृति के उत्कर्ष के क्षण ही मेरे अच्छे दिन हैं। एक हजार वर्षो की कालिमा को भेद कर हिंदुत्व का सूर्य उदित होना ही मेरे अच्छे दिन हैं। इस सूर्योदय से निशाचरों का परेशान होना स्वाभाविक है। सूर्योदय से सारी दुनिया प्रफुल्लित होती है बस उल्लुओं और चमगादड़ों को निराशा।
"सर्वे भवन्तु सुखिनः " मात्र एक परिकल्पना नहीं है। योग उसको कार्यरूप में साकार करने का नाम है। स्वामी रामदेव द्वारा वैज्ञानिक प्रामाणिकता के साथ योग की सभी को स्वस्थ रखने की क्षमता के प्रदर्शन ने सम्पूर्ण विश्व का ध्यान योग की ओर आकृष्ट किया है। आज करोड़ों लोग इससे लाभान्वित होकर स्वस्थ जीवन जी रहे हैं साथ ही चिकित्सा पर होने वाले अरबों रुपये की बचत कर रहे हैं। पूरे विश्व को अपना परिवार माननेवाला हिन्दू जीवन दर्शन योग के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व को आलिंगनबद्ध कर रहा है। ये संभव हुआ है सात्विक और स्वाभिमानी राजनीतिक नेतृत्व के कारण। क्या स्वास्थ्य के क्षेत्र में न्यूनतम खर्च करके सबको स्वस्थ रखना किन्ही अच्छे दिनों से कम है?
योग का विरोध विशुद्ध रूप से पूर्वाग्रह ग्रस्त मानसिकता का परिचायक है और जन सामान्य के कल्याण का विरोधी है। जिन्हे सदैव हिन्दू जीवन दर्शन पिछड़ा लगा हो उन्हें उसके इस एक चमत्कार से परेशान होना स्वाभाविक है। इसके संवाहकों के प्रति उनका विषवमन भी स्वाभाविक ही है। क्रान्तिकारी लगने की मानसिकता से पीड़ित छुद्र लोगों ने ४,जून को स्वामी रामदेव के उत्पीड़न पर तो क्षोभ व्यक्त नहीं किया पर उसे सलवार दिवस घोषित कर दिया। जबकि रामदेव का उनसे कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं है। स्वयंभू ईमानदारों का भारतीयता से चिरपरिचित विरोध ही इस विरोध का मूल कारण है।
ये अंधविरोधी याद रखें सनातनता अपनी जीवंतता के लिए किसी की कृपा की मोहताज नहीं है। सूर्य को ढकने के उपक्रम से सूर्य को नष्ट नहीं किया जासकता। तुम सूर्य नमस्कार करो या नहीं लेकिन सूर्य की उपेक्षा तुम्हारे अल्लाह और तुम पर ही भारी पड़ने वाली है। प्रकाश के आराधक होते तो सबके कल्याण की कामना करते। अँधेरे से अंधे हुए लोगों ने पूरी धरती को खून से लाल कर दिया है। क्या इस खून की लाली से सूर्य की लालिमा अच्छी नहीं है ?
हमारी सनातनता ने हमें सनातन प्रतीकों और आस्थाओं के साथ साथ जीना सिखाया है। तुमने सिर्फ खजूर देखा होगा हमने बट वृक्ष देखा है। तुम खोखली अकड़ के साथ खाम्खा अकड़े रहने वाले हो। हम बट वृक्ष हैं। तुम जैसों की हमें ख़त्म करने की हजार कोशिशों के बाबजूद हम अपराजेय हैं। हमारी सनातनता तुम्हारी क्षणभंगुरता पर हमेशा भारी पड़ेगी। योग का अर्थ होता है जोड़ना हम सबको जोड़ना और सबसे जुड़ना चाहते हैं। हमारा यही चरित्र योग के रूप में एक हजार वर्षों के बाद नयी कोपलों और शाखाओं के साथ पूरे विश्व को अपनी शीतल छाँव देने जारहा है।

शनिवार, 6 जून 2015

महिलाओं के संस्कारी होने की मांग करना क्या स्त्रीयों की स्वतंत्रता में बाधक है ??

मानव जाति के इतिहास में विभिन्न प्रकार की विभिन्नता की कहानी जुड़ी हुयी है, इस इतिहास में हमने बहुत प्रकार के वर्ग निर्मित किए, जैसे गरीब का, अमीर का, धन के पद के अभाव पर और आश्चर्य की बात यह है कि इस समाज ने जो स्त्री और पुरुष के बीच जो वर्ग का निर्माण किया यह एक अनोखा और अद्भुत रहा और इस भिन्नता को वर्ग बनाना मनुष्य की शेतानी कही जा सकती है। क्योंकि हजारों वर्ष पहले से ही स्त्री का शोषण का इतिहा रहा है। क्योकि पुरुष ने ही सारे कानून निर्मित किये है और शुरु से ही पूरुष शक्तिशाली था उसने स्त्री पर जो भी थोपना चाहा थोप दिया । और जब तक स्त्री पर से गुलामी नही उठती दुनिया से गुलामी नही मिट सकती चाहे कहने की बात क्यो न हो की भारत 68 साल पहले ही आजाद हो गया। ये अलग बात है कि हमारी सरकार गरीबी और अमीरी के फासले मिटाने मे सक्षम हो जाए लेकिन स्त्री और पुरुष के बीच शोषण का जाल और इनके बीच फासलो की कहानी इतनी लम्बी हो गयी है कि स्वयं स्त्री और पुरुष दोनो ही भूल गये है। पुरुष और स्त्री के बीच फासले और असमानता किस-किस रुप में खड़ी हुई है? भिन्नता सुनिश्चित  है भिन्न होनी ही चाहिए क्योंकि यही ही स्त्री,पुरुष को अलग-अलग व्यक्तित्व देते है लेकिन भिन्नता असमानता में बदल गया है। इसीलिए सारी स्त्रीयाँ भिन्नता को तोड़ने में लग गयी है ताकी वे ठीक पुरुषों जैसी दिखने लगे शायद वह इस सोच में है कि इस भाती असमानता भी टूट जाएगी धीरे-धीरे कपड़े एक जैसे होते चले गये। लेकिन कपड़ो के फासले से भिन्नता नही मिट जाएगीं यह एक गहरी बात है कपड़ो से कुछ फर्क  नही पड़ने वाला नही है क्योंकि भेद मिटाने से समाज द्वारा निर्माण किया गया स्त्री और पुरुष का वर्ग नही मिट सकता क्योकि पुरुष इस का आदि हो गया है।  भारत में आज तक स्त्री पुरुषो में बराबरी का स्तर नहीं आ पाया , स्त्रीयों को आज भी असमानता की भावना का सामना करना पड़ रहा है आज भी स्त्रीयों को समाज में दोयम दर्जे का स्थान ही प्राप्त है. अधिकाँश स्थानों पर महिलाओं का यही हाल है , महिलाओं के स्वास्थ्य एवं शिक्षा की स्थिति बहुत ही खराब है घरेलु वातावरण में रोज़ ही वो किसी न किसी दुर्व्यवहार का सामना करती ही रहती हैं. आज भी महिलाओं को घर से बाहर जाकर काम करने में एक बड़े पुरुष वर्ग को आपत्ति है. पर बढ़ते वैश्वीकरण के दबाव में इन सब शोषित और कुपोषित मातृत्व वर्ग के बीच एक ऐसा महिला वर्ग भी उपजा जो की इन सब असमानताओ , कुपरिस्थितियो और समस्याओं से पूर्णतया मुक्त था अब इनमे भी दो तरह की महिलाए थी एक जो पारिवारिक संस्कार , सद्चरित्रता और सदभावना से ओत प्रोत थीं वही दूसरी जो की पारिवारिक संस्कार , सद्चरित्र इत्यादि बातो से पूर्णतया दूर एवं इन सुसंस्कारो को अपना बंधन मात्र मानती थी. पहला वर्ग तो अपने सदभावना  के कारण अपने अन्य शोषित बहनों के मुक्ति का मार्ग ढूढ़ने लगी और अपने परिवार को भी संस्कारी बनाये रखा अतः उन परिवार से निकलने वाले संस्कारी बालक , बालिकाए उनके सुविचारो के वाहक बन गए और महिला मुक्ति के मार्ग भी.दूसरी तरफ वे महिलाए थी जो की न तो संस्कार जानती थी न ही सद्चरित्र उनके लिए अपने संस्कृति अपनी परम्पराओं को तोड़ना ही स्वतंत्रता हो गया और ये भी आंकलन नहीं की की क्या सही है क्या गलत ? जो भी पश्चिम से मिला सब सर्वश्रेष्ठ है इस भावना से अपना विरोध और दूसरो को गले लगाने का एक नया परंपरा शुरू हो गया ये महिलाए स्वयं तो संस्कारी थी ही नहीं सो इनके बच्चे को  भी इन्ही के रास्ते पर जाना तय था.
ऐसी कुविचारी , निकृष्ट ,कुचरित्र महिलाओं ने कभी भी अपने महिला समाज का उठाने में कोई भूमिका नहीं अपनाई बल्कि अपने परिवार में असंस्कारी बालक बालिकाओं को रोपित कर समाज की स्थिति और खराब करने में जिम्मेदारी निभायी. पुरुषो से ज्यादा महिलाओं को संस्कार की जरुरत होती है पुरुषो से ज्यादा महिलाओं को नैतिक होने की जरुरत होती है, क्योकि महिलाए ही परिवार की आधार होती है. वो ही बच्चो की प्रथम गुरु होती है, वही बच्चो को संस्कारी बनाती है. और यह एक सामान्य दृष्टि की बात है की हम बहुधा देखते है की जिस घर में पिता निकृष्ट , शराबी या नीच कोटि का निकल जाता है वह यदि माता ठीक होती है तो बच्चे अपने पिता के दुर्गुणों से दूर गुणी  और बुद्धिमान ही होते है जबकि किसी परिवार के सभी पुरुष ठीक हो लेकिन महिला खराब हो गयी तो निश्चित ही उस परिवार की पूरी अगली पीढीयां खराब हो जाती है.यदि प्रकृति ने माँ को परिवार का आधार बनाया है तो , उस माँ को संस्कारी होने की मांग करना क्या स्त्रीयों की स्वतंत्रता में बाधक है ?? बहुत सारी पश्चिमी मानसिकता से ग्रसित महिलाए इसे एक घटिया सोच करार देती है और पूछती है की आखिर संस्कार की जिम्मेवारी महिलाओं पर पुरुषो से ज्यादा क्यों ?? क्या इस प्रश्न का कोई जबाब है??
जो प्रश्न प्रकृति से पूछा जाना चाहिए  वो प्रश्न ये महिलाए पुरुषो से जानना चाहती हैं.
अब कोई पुरुष यदि यह पूछे की बच्चे ज्यादा प्रेम माँ से क्यों करते है पिता से क्यों नहीं , स्नेह दिखाने की जीतनी कला स्त्रीयों को प्राप्त है उतनी पुरुषो को क्यों नहीं ??? बच्चो को गर्भ धारण करने की शक्ति सिर्फ महिलाओं को पुरुषो को क्यों नहीं ?? बच्चो के शुरूआती भरण पोषण की शक्ति केवल महिलाओ को क्यों प्राप्त है पुरुषो को क्यों नहीं ??
क्या हम प्रकृति प्रदत्त गुणों पर टकराकर कुछ प्राप्त कर सकते है?
कुछ लोगों ने कहा की स्त्रीयों को मर्यादित कपडे पहनना चाहिए मीडिया में भयंकर विरोध इस मुद्दे पर होता ही रहता है. स्त्री आखिर अपने आप को क्या समझती है यह बात हम उसके वस्त्रो से ही निर्धारित करते है , हमारे देश की परंपरा और संस्कृति में उसे भी आत्मा का दर्ज़ा प्राप्त है न की केवल नीरा शरीर का. जबकि पश्चिम में और अरब की कुसंस्कृति में उन्हें केवल शरीर का ही दर्ज़ा प्राप्त है  एक उसे दिखाने में लगा रहता है तो दूसरा उसे ढकने में. पर क्या यही सोच हमारे समाज में आज नहीं फ़ैल गयी कुछ लोग है जो पर्दा प्रथा को जारी रखना चाहते है तो कुछ उसे नग्नता के उस स्तर पर ले जाने की फिराक में है जहाँ सभ्यों का सर नीचा करके जमीन देखना ही बचाव के एक मात्र लगता है. क्या ये दोनों मार्ग उचित है??
निश्चित ही मेरे मत से नहीं …. यदि स्त्री केवल शरीर नहीं तो उसे क्यों ढकना और क्यों दिखाना? उसे मर्यादित ढंग से रहना ही चाहिए. स्त्रीयों से मर्यादित कपडे की उम्मीद करने पर , पश्चिमी विचारों से ओत प्रोत महिलाए कहने लगती हैं की ये महिलाओं की स्वतंत्रता का हनन है. आखिर वो कौन सी मानसिकता है जिसके कारण महिलाए जब मर्यादित कपडे पहनती है तो उन्हें ऐसा लगता है मानो उनकी स्वतंत्रता हर ली गयी हो. क्या नग्नता के उचाई पर ही पहुच कर स्वतंत्रता का बोध हो सकता है. कुचरित्र और असंस्कारी महिलाए ही नग्नता में स्वतंत्रता का अनुभव प्राप्त करती है. इसको समझने के लिए एक उदाहरण लेते है ऐसी कल्पना करते है की एक संस्कारी परिवार की बालिका को एक अलग स्थान पर ले जाकर उसे यह कह दिया जाय की तुम जो करना चाहो कर लो जैसा पहनना चाहो पहन लो तुम्हे कोई कुछ नहीं कहेगा तो क्या वह नग्नता का प्रदर्शन करेगीक्या वो निर्लाज्ज़ता को अपना ध्येय चुनेगी?? निश्चित ही नहीं क्योकि उसके दिमाग में ये गन्दगी डाली ही नहीं गयी की स्त्री की स्वतंत्रता का मतलब नग्नता. हम पहले ये घटिया सोच बच्चो में रोपित करते है की शरीर का प्रदर्शन ही स्वतंत्रता है जिस कारण बाद में यह समस्या आती है की मर्यादित कपड़ो में महिलाओं को परतंत्रता का बोध होता है.
यदि वास्तव में भारत वर्ष में स्त्रीयों का विकास करना है तो उन्हें संस्कारी सद्चरित्र और मर्यादित बनाना ही पड़ेगा , क्योकि स्त्रीयां ही समाज की आधार है यदि उनका पतन होगा तो समाज जरुर अधोगति को प्राप्त होगा. ऐसी सोच भी हमारे सामने चुनौती बनकर खडी है जो की महिलाओं के स्वतंत्रता के मुख्य आन्दोलन को जिसमे उनको समाज में बराबरी का हक दिलाना ध्येय को खीच कर ऐसे निकृष्ट मार्ग पर ले जा रहा है जहा पर महिलाए खुद अपने आपको और ज्यादा खराब स्थिति में पाएंगी .............उत्तम जैन (विद्रोही )