ज्ञान खंड मनुष्य की उपलब्धि है। अगर मनुष्य न हो तो धर्म होगा, ज्ञान नहीं होगा। जगत धर्म से चलता रहेगा। लेकिन ज्ञान नहीं होगा। इसका यह अर्थ हुआ कि अस्तित्व ने मनुष्य के भीतर से ज्ञान को खोजने की कोशिश की है। इसलिए मनुष्य बड़े शिखर पर है...
नानक पहले खंड को धर्म-खंड कहते हैं। दूसरे खंड को ज्ञान-खंड कहते है। धर्म तो है। जिस दिन तुम उसे पहचान लेते हो, उस दिन ज्ञान। धर्म तो मौजूद है, लेकिन तुम आंख बंद किये हो। सूरज तो निकला है, लेकिन तुम द्वार बंद किये बैठे हो। दीया तो जल रहा है, लेकिन तुमने पीठ कर ली है दीए की तरफ। वर्षा तो हो रही है, लेकिन तुम भीगने से वंचित हो। तुम किसी अंधेरी गुहा में छिपे बैठे हो। धर्म तो चल रहा है, लेकिन तुम दूर हट गये हो।
वापस लौट आने का नाम ज्ञान है। और हर मनुष्य को वापस लौटना पड़ेगा। क्योंकि मनुष्य की यह क्षमता है कि वह दूर जा सकता है। पशुओं में कोई धर्म नहीं है। पौधों में, पक्षियों में कोई धर्म नहीं है। क्योंकि वे दूर जा ही नहीं सकते। वे कुछ भी अप्राकृतिक करने में असमर्थ हैं। वे जो भी करते हैं वही प्राकृतिक है। उनमें इतना भी बोध नहीं है कि वे भटक सकें। भटकने के लिए भी थोड़ी समझ चाहिए। गलत जाने के लिए भी थोड़ी हिम्मत चाहिए। मार्ग से उतरने के लिए भी थोड़ा होश चाहिए। उतना होश तुम में है। पर मार्ग पर आने के लिए वापस फिर, और भी ज्यादा होश चाहिए।
तो पशु हैं, वे भटक नहीं सकते, इसलिए ठीक जगह हैं। वह कोई बहुत गौरव की स्थिति नहीं है। वह मजबूरी है। फिर सामान्य मनुष्य है; उसमें थोड़ा बोध है, वह भटक सकता है, इसलिए भटक गया है। फिर बुद्धपुरुष हैं। नानक और कबीर हैं। उनके पास परम होश है। वे वापस लौट आए हैं।
पशुओं को जो सहज उपलब्ध है वह तुम्हें साधना से उपलब्ध करना पड़ेगा। बुद्ध वहीं लौट आते हैं जहां पौधे सदा से हैं। वहीं परम आनंद जो साधारण पौधे को उपलब्ध है, बुद्ध को भी उपलब्ध होता है। लेकिन एक बुनियादी फर्क होता है। वह फर्क यह है कि बुद्ध को वह आनंद परम बोधपूर्वक होता है। वे होश से भरे हुए उस आनंद को भोगते हैं। पौधे पर वह आनंद बरस रहा है। वह भटक भी नहीं सकता, लेकिन उसके पास बोध भी नहीं है।
तो प्रकृति अचेतन है। और बुद्धपुरुष सचेतन रूप से प्राकृतिक हैं। और दोनों के बीच में हम हैं। प्रकृति अचेतन है। वहां सुख सहज है। वहां सुख हो ही रहा है। लेकिन वहां कोई जानने वाला नहीं। उस सुख की प्रतीत और साक्षात् करने वाला कोई भी नहीं है। जैसे तुम बेहोश पड़े हो और तुम्हारे चारों तरफ रत्नों की वर्षा हो रही है। पत्थर बरस रहे हैं या रत्न, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि तुम बेहोश पड़े हो। फिर तुम आंख खोलते हो। फिर तुम होश से भरते हो। और तब तुम पहचान पाते हो कि कैसी अपरंपार वर्षा तुम्हारे चारों तरफ हो रही थी।
बुद्ध वही पाते हैं जो प्रकृति में सहज ही उपलब्ध है, पत्थरों को मिला हुआ है। वहीं लौट आते हैं। लेकिन लौट आना बड़ा नया है। जगह तो वहीं है जहां बुद्ध हैं। होगा ही, क्योंकि परमात्मा कण-कण में छिपा है। लेकिन उस बोधिवृक्ष में और बुद्ध में क्या फर्क है? फर्क महान है। जगह तो एक है और अंतर अनंत है। अंतर यह है कि बुद्ध सजग होकर, होशपूर्वक उस आनंद का, उस अपरंपार महिमा का अनुभव कर रहे हैं। वह महिमा वृक्ष पर भी बरस रही है, लेकिन उसे कुछ पता नहीं। वह महिमा तुम पर भी बरस रही है, लेकिन तुम पीठ किये खड़े हो। वृक्ष का मुंह है उसकी तरफ, लेकिन वृक्ष उसे जान नहीं सकता। तुम जान सकते हो, लेकिन तुम पीठ किये खड़े हो। जिस दिन तुम सम्मुख हो जाओगे, जिस दिन तुम्हारी आंखें उस महिमा की तरफ उठेंगी और तुम पहचानोगे, उसे नानक ज्ञान कहते हैं।
ज्ञान खंड मनुष्य की उपलब्धि है। अगर मनुष्य न हो तो धर्म होगा, ज्ञान नहीं होगा। जगत धर्म से चलता रहेगा। लेकिन ज्ञान नहीं होगा। इसका यह अर्थ हुआ कि अस्तित्व ने मनुष्य के भीतर से ज्ञान को खोजने की कोशिश की है। इसलिए मनुष्य बड़े शिखर पर है। तुम्हें पता ही नहीं कि तुम्हें कितनी महिमा उपलब्ध होने की संभावना है। तुम्हारे द्वारा परमात्मा सजग होना चाहता है। तुम्हारे माध्यम से जागना चाहता है।