शुक्रवार, 13 मई 2016

मानसिक विकलांगता।

विकलांगता अभिषाप है या वरदान यह बात मेरे समझ से परे है। परन्तु यह कहना सही होगा उनके बारे में ‘‘हम भी इंसान हैं तुम्हारी तरह, न कुछ खास और न असाधारण। चलो इस सब को कुछ देर के लिए अलग रखे और देखें आखिर विकलांगता है क्या?

शरीर के किसी अंग में यदि कोई विकृति आ जाती है, आम बोलचाल की भाषा में उसे विकलांगता कहते हैं। जैसे चलने में परेशानी , दिखाई न देना, सुनाई न देना और बोलने में असमर्थता। लेकिन कुछ विकलांगत ऐसी है तो किसी को दिखाई नहीं देती, मतलब यह कि वह आंतरिक होती है। उसे समझना भी थोड़ा कठिन है। इसे कहते हैं मानसिक विकलांगता।

आजकल मानसिक विकलांगता काफी बढ़ रही है। शारीरिक विकलांगता को वैज्ञानिक तरीकों से ठीक किया जा रहा है या कहें उसे काफी हद तक छिपाया जा रहा है। सफलता भी मिली है इसमें। लेकिन मानसिक विकलांगा दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। आज प्रति हजार नवजात शिशुओं में 1।5 से 3.5 तक बच्चे इससे पीड़ित हैं। गर्भावस्था में तनावपूर्ण जीवन इसका प्रमुख कारण है।

दूसरा प्रमुख कारण है गरीबी। गरीबी और विकलांगता का संबंध उसी तरह का जिस तरह अमीरी और गरीबी का। यहां तक बात तो ठीक थी लेकिन अब इसने अमीर वर्ग तक अपने हाथ फैलाने शुरू कर दिये हैं। jankar बताते हैं इसका कारण भौतिकवादी सोच है। भूमण्डलीकरण के दौर में हर इंसान सुख-समृद्धि चाहता है। और यह सुख-समृद्धि है-सामाजिक ऐशो -आराम के संसाधन, सामाजिक प्रतिष्ठा रौब-रूतबा। जाहिर सी बात है इतना सब कुछ पाने के लिए इंसान को जद्दोजहद तो करनी पड़ेगी। जिससे इंसान को अपनी क्षमता से अधिक काम करना पड़ रहा है। इतना ही उसे देर तक और दबाव में भी काम करना पड़ रहा है। शायद अब इसे और भी गंभीरता से लिया जा रहा है। बात यह है कि धनी वर्ग इस बीमारी को सबसे घातक बता रहा है। गरीब का क्या उसे तो समझौते करने की आदत जो बन गयी है। वह तो बस यही सोच कर तसल्ली कर लेता है हम तो गरीब हैं। बस।

जो भी हो इसे रोकने के तरीको पर अब गौर किया जाने लगा है। अस्पतालों में अब मनो चिकित्स की niyuktiaayan बढ़ाई जा रही हैं। सरकारी और अर्ध-सरकारी कम्पनियां बाकायदा अपने यहां मनोचिकित्स (सलाहकार) नियुक्त कर रही हैं। कारपोरेट जगत इससे कहीं बढ़कर आगे काम कर रहा है। वहां तो बाकायदा जिम, स्वीमिंग पुल, खेल और विभिन्न मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराये जा रहे हैं। और हो भी क्यों न, ज्यादातर बीमारियां भी तो यही दे रहे हैं। यह तो वही बात हुई तुम्हीं ने दर्द दिया तुम्हीं दवा दोगे। जैसा कि सर्व विदित है कि स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस में काफी सक्रिय होकर काम कर रही हैं।
हमें तो बस यही उम्मीद है यह समस्या धीरे-धीरे बढ़ने की बजाय जल्दी से जल्दी समाप्त हो जाये।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

हमें लेख से संबंधित अपनी टिप्पणी करके अपनी विचारधारा से अवगत करवाएं.