दो अक्टोबर देश में गांधी
जयंती मनाई जाती है ! इसमें कोई संदेह नहीं है कि
इतिहास में किसी भी महापुरुष का नाम बिना किसी योग्यता, कठिन परिश्रम या त्याग के दर्ज
नहीं होता पर यह भी सत्य है कि एतिहासिक पुरुषों के व्यक्तित्व और कृतित्व का
मूल्यांकन समय समय पर अनेक लोग अपने ढंग से करते हैं। एतिहासिक पुरुषों के परमधाम
गमन के तत्काल बाद सहानुभूति के चलते जहां उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का
मूल्यांकन करने वाले अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाते हैं। उस समय कोई प्रतिकूल
टिप्पणियां नहीं करता पर समय के साथ ही एतिहासिक पुरुषों के व्यक्तित्व का प्रभाव
क्षीण होने लगता है तब विचारवान लोग प्रतिकूल टिप्पणियां भले न करें पर कुछ प्रश्न
उठाने ही लगते हैं।
आधुनिक
भारतीय इतिहास में महात्मा गांधी को पितृपुरुष के रूप में दर्ज किया गया है। हम जब भारत
की बात करते हैं तो एक बात भूल जाते हैं कि प्राचीन समम
में इसे भारतवर्ष कहा जाता था। इतना ही नहीं पाकिस्तान, बांग्लादेश
तथा अफगानिस्तान,
भूटान, श्रीलंका, माले
तथा वर्मा मिलकर हमारी पहचान रही है। अब यह
सिकुड़ गयी है।
भारतवर्ष
से पृथक होकर बने देश अब भारत शब्द से ही इतना चिढ़ते हैं
कि वह नहीं चाहते
शेष
विश्व उनको भारतीय उपमहाद्वीप माने। इस तरह
भारतवर्ष सिकुड़कर भारत रह गया है। उसमें
भी अब इंडिया की
प्रधानता है।
इंडिया
हमारे देश की पहचान वाला वह शब्द है जिसे पूरा विश्व जानता है। भारत वह है जिसे हम
मानते हैं।
यह
वही भारत है जिसका आधुनिक इतिहास है 15 अगस्त
से शुरु होता है।
यह
अलग बात है कि कुछ राष्ट्रवादी अखंड भारत का स्वप्न देख रहे हैं। गांधीजी को विश्व में महान सम्मान प्राप्त हुआ है पर
भारतीय जनमानस में अब उनकी छवि क्षीण हो रही है फिर अब फिल्म, क्रिकेट और अन्य प्रतिष्ठित क्षेत्रों में सक्रिय
नये नये महापुरुषों का भी प्रचार हो रहा है। सरकारी और गैर सरकारी तौर पर गांधी
जयंती के समय खूब प्रचार होने के साथ ही अनेक कार्यक्रम भी होते हैं पर लगता नहीं
कि आज के कठिन समय का सामना कर रहा भारतीय जनमानस उसमें बढ़चढ़कर हिस्सा लेता हो।
गांधीजी को राजनीतक संत कहना उनके दर्शन को सीमित दायरे में रखना है। मूलतः गांधी
जी एक सात्विक प्रवृत्ति के धार्मिक विचार वाले व्यक्ति थे। निच्छल ह्रदय और सहज स्वभाव की वजह से उनमें उच्च जीवन चरित्र
निर्माण हुआ। एक बात तय है कि उन्होंने भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने का जब
अभियान प्रारंभ किया होगा तब उनका लक्ष्य आत्मप्रचार पाना नहीं बल्कि देश के आम
इंसान का उद्धार करना रहा होगा। अलबत्ता अपने आंदोलन के दौरान उन्होंने इस बात को
अनुभव किया होगा कि उनके सभी सहयोग उनकी तरह निष्काम नहीं है। इसके बावजूद वह इस
बात को लेकर आशावदी रहे होंगे कि समय के अनुसार बदलाव होगा और अपने ही देश के भले
लोग राज्य अच्छी तरह चलायेंगे। कालांतर में जो हुआ वह हम सब जानते हैं। उनके सपनों
का भारत कभी न बना न बनने की आशा है। स्थिति यह है कि अनेक अनुयायी अब दूसरे
स्वाधीनता आंदोलन का बात करने लगे हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि गांधी जी का सपना
पूरा नहीं हुआ और जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन
प्रारंभ किया वह पूरा नहीं हुआ। दूसरे शब्दों में 15
अगस्त
1947 को मिली
आजादी केवल एक ऐसा प्रतीक है जिसकी स्मृतियां केवल उस दिन मनाये जाये वाले
कार्यक्रमों में ही मिलती है। जमीन पर अभी गांधीजी के सपनों का पूरा होना बाकी है। यहां हम गांधीजी के व्यक्तित्व और कृतित्व की आलोचना
नहीं कर रहे क्योंकि मेरा जेसा मामूली पत्रकार शख्स भला उन पर क्या लिख सकता है? अलबत्ता देश के हालात देखकर वैचारिक रूप से गांधी
दर्शन अब निरापद नहीं माना जा सकता है। सबसे पहला सवाल तो यह है कि भारत का
स्वाधीनता आंदोलन अंततः एक राजनीतिक प्रयास था जिसमें राजकाज भारतीयों के हाथ में
होने का लक्ष्य तय किया गया था। दूसरी बात यह कि गांधीजी ने अंग्रेज सरकार के
विरुद्ध आंदोलन किया था जिस पर भारतीयों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करने का
आरोप था। इसके अलावा देश की समस्याओं के प्रति अंग्रेज सरकार की प्रतिबद्धता पर भी
संदेह जताया गया था। इसका अर्थ सीधा है कि गांधीजी एक ऐसी सरकार चाहते थे जो देश
के लोगों की होने के साथ ही जनहित का काम करे। ऐसे में राजकाज के पदों पर बैठने
वाले महत्वपूर्ण लोगों की गतिविधियां महत्वपूर्ण होती हैं। तब गांधी जी ने राजकाज
प्रत्यक्ष रूप से चलाने के लिये कोई पद लेने से इंकार क्यों किया? क्या वह इन पदों को भोग का विषय समझते थे या दायित्व
निभाने के लिये अपने अंदर क्षमता का अभाव अनुभव करते थे। अगर यह दोनों बातें नहीं
थी तो क्या उनको भरोसा था कि जो लोग राजकाज देखेंगे वह उनके रहते हुए अच्छा काम ही
करेंगे? क्या
उनको यकीन था कि जिन लोगों को वह राजकाज का जिम्मा सौंपेंगे वह अच्छा ही काम करेंगे?
बहरहाल
विघटित भारतवर्ष के शीर्ष पुरुषों में महात्मा गांधी का नाम
पूज्यनीय है।
उन्होंने
भारत की राजनीतिक आजादी की लड़ाई लड़ी। इसका
अर्थ केवल इतना था कि भारत का व्यवस्था प्रबंधन यहीं के लोग संभालें। संभव
है कुछ लोग इस तर्क को
संकीर्ण
मानसिकता का परिचायक माने पर तब उन्हें यह जवाब देना होगा देश की आजादी के बाद भी
अंग्रेजों के बनाये ढेर सारे कानून अब तक क्यों चल रहे हैं? देश के
कानून ही व्यवस्था के मार्गदर्शक होते हैं और तय बात है कि हमारी वर्तमान आधुनिक
व्यवस्था का आधार अंग्रेजों की ही देन है। महात्मा
गांधी ने अपना सार्वजनिक जीवन दक्षिण अफ्रीका से प्रारंभ हुआ था। वहां गोरों के भेदभाव के विरुद्ध
संघर्ष में जो उन्होंने जीत दर्ज की उसका लाभ यहां के तत्कालीन स्वतंत्रता संग्राम
आंदोलनकारियों ने उठाने के लिये उनको आमंत्रित किया। तय बात
है कि किसी भी अन्य क्षेत्र में लोकप्रिय चेहरों को सार्वजनिक रूप से प्रतिष्ठित कर जनता को संचालित करने का सिलसिला यहीं से शुरु
हुआ जो आजतक चल रहा है।
महात्मा गाँधी का
जीवनकाल
मेरे जैसे लोगों के जन्म से बहुत पहले का है। उन पर
जितना भी पढ़ा और जाना उससे लेकर उत्सुकता रहती है। फिर जब चिंत्तन का कीड़ा
कुलबुलाता है तो कोई नयी बात नहीं निकलती। इसलिये आजकल के राजनीतिक और सामाजिक
हालात देखकर अनुमान करना पड़ता है क्योंकि व्यक्ति बदलते हैं पर प्रकृति नहीं
मिलती।
यह
अवसर अन्ना हजारे साहब ने प्रदान किया। वैसे
तो अन्ना हजारे स्वयं ही महात्मा गांधी के अनुयायी होने की बात करते हैं पर
उन्होंने ही सबसे पहले भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के दौरान यह कहकर आश्चर्यचकित
किया कि अब वह दूसरा स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा
कि ‘‘हमें
तो अधूरी आजादी मिली थी‘। ऐसे
में हमारे जैसे लोगों किंकर्तव्यमूढ़ रह जाते हैं। प्रश्न
उठता है कि फिर महात्मा गांधी ने किस तरह की आजादी की जंग जीती थी। अगर
अन्ना हजारे के तर्क माने जायें तो फिर यह कहना पड़ेगा कि उन्हें इतिहास एक ऐसे
युद्ध के विजेता नायक के रूप में प्रस्तुत करता है जो अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। अनेक
लोग अन्ना हजारे की गांधी से तुलना पर आपत्ति कर सकते हैं पर सच यही है कि उनका
चरित्र भी विशाल रूप ले चुका है। उन्होंने भी महात्मा गांधी की तरह राजनीतिक पदों
के प्रति अपनी अरुचि दिखाई है। सादगी, सरलता
और स्पष्टतवादिता में वह अनुकरणीण उदाहरण पेश कर चुके हैं। मेरे जैसे विद्रोही विचारो ,निष्पक्ष और स्वतंत्र लेखक उनकी गतिविधियों में
इतिहास को प्राकृतिक रूप से दोहराता हुआ देख रहे हैं। इसलिये भारतीय दृश्य पटल पर
स्थापित बुद्धिजीवियों,
लेखकों
और प्रयोजित विद्वानों का कोई तर्क स्वीकार भी नहीं करने वाले। महात्मा
गांधी को कुछ विद्वानों ने राजनीतिक संत कहा। उनके अनुयायी
इसे एक श्रद्धापूर्वक दी गयी उपाधि मानते हैं पर इसमें छिपी सच्चाई कोई नहीं समझ
पाया।
महात्मा
गांधी भले ही धर्मभीरु थे पर भारतीय धर्म ग्रंथों के विषय में उनका ज्ञान सामान्य
से अधिक नहीं था।
अहिंसा
का मंत्र उन्होंने भारतीय अध्यात्म से ही लिया पर उसका उपयोग एक
राजनीति अभियान में उपयोग करने में सफलता से किया। मगर यह नहीं भूलना चाहिए पूरे
विश्व के लिये वह अनुकरणीय हैं। यह अलग बात है कि जहां अहिंसा का मंत्र सीमित रूप
से प्रभावी हुआ तो वहीं राजनीति प्रत्येक जीवन का एक भाग है सब कुछ नहीं। अध्यात्म
की दृष्टि से तो राजनीति एक सीमित अर्थ वाला शब्द है। यही
कारण है कि अध्यात्मिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण कार्य न करने पर महात्मा गांधी
का परिचय एक राजनीतक संत के रूप में सीमित हो जाता है। अध्यात्मिक
दृष्टि से महात्मा गांधी कभी श्रेष्ठ पुरुषों के रूप में नहीं जाने गये। जिस
अहिंसा मंत्र के लिये शेष विश्व उनको प्रणाम करता है उसी के प्रवर्तक महात्मा
बुद्ध और भगवान महावीर जैसे परम पुरुष इस धरती पर आज भी उनसे अधिक श्रद्धेय हैं। कई बार
ऐसे लगता है कि महात्मा गांधी वैश्विक छवि और राष्ट्रीय छवि में भारी अंतर है। वह
अकेले ऐसे महान पुरुष हैं जिनको पूरा विश्व मानता है पर भारत में भगवान राम, श्रीकृष्ण, महात्मा
बुद्ध तथा
महावीर
जैसे परमपुरुष आज भी जनमानस की आत्मा का भाग हैं। इतना
ही नहीं गुरुनानक देव,
संत
कबीर,
तुलसीदास, रहीम, और
मीरा जैसे संतों की
भी
भारतीय जनमानस में ऊंची छवि है। धार्मिक और सामाजिक रूप से स्थापित परम पुरुषों के क्रम
में कहीं महात्मा गांधी का नाम जोड़ा नहीं जाता। एक तरह
से कहें कि कहीं न कहीं महात्मा गांधी वैश्विक छवि की वजह से अपनी छवि यहां बना
पाये। उनके जीवन से प्रेरणा लेकर एक
स्वाभिमानी व्यक्ति बना जा सकता है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है
कि भोगी नहीं त्यागी बड़ा होता है। महात्मा गांधी ने सभ्रांत जीवन की बजाय सादा
जीवन बिताया। यह उस महान त्याग था क्योंकि उस समय अंग्रेजी जीवन के लिये पूरा समाज
लालायित हो रहा था। उन्होंने सरल, सादा सभ्य जीवन गुजारने की
प्रेरणा दी। ऐस महापुरुष को भला कौन सलाम ठोकना नहीं चाहेगा।
(लेखक -विद्रोही आवाज़ के संपादक उत्तम जैन के अपने विचार है सभी
पाठक सहमत हो जरूरी नही )
उत्तम जैन (विद्रोही )
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