10 सितंबर से शुरू हुए
पर्युषण पर्व 28 सितंबर तक चलेंगे ! भारत का जैन समुदाय श्वेताम्बर व
दिगंबर पर्युषण पर्व मना रहा है। यह 18 दिन का समय श्वेताम्बर व दिगंबर
समाज दोनों के अलग अलग पर्युषण काल का समय होने से है ! यह समय निश्चित रूप
से ज्यादा है ! सबसे बड़ी कमजोरी तो जैन समाज की है की पूरे जैन समाज मे एक
साथ पर्युषण पर्व नही मनाया जाता ! इस पवित्र पर्व के मद्देनजर मुंबई
महानगर पालिका ने चार दिनों के लिए मुंबई में मांस की बिक्री पर पाबंदी लगा
दी है। इस पाबंदी को राजनीतिक रंग देते हुए कुछ राजनीतिक पार्टी खुलकर
इसके विरोध में उतर आए हैं। इन दलों का कहना है कि अगले साल होने वाले
मुंबई महानगर पालिका चुनावों को देखते हुए भाजपा ने जैन समुदाय को रिझाने
के लिए मांसाहार पर यह पाबंदी लगाई है। राजनीति और धर्म का आपसी रिश्ता
जरूर हो सकता है, लेकिन यहां पर क्या आधुनिक समाज में पशु अधिकार बनाम
व्यक्तिगत भोजन के अधिकार का द्वंद्व नहीं है? भारत में निरीह पशुओं पर
होने वाली हिंसा को कई स्तरों पर अस्वीकार किया जाता रहा है। यह जरूरी भी
है। अगर किसी भी प्रकार का भोजन प्रकृति को नकारकर किया जाता है तो वह
सात्विक नहीं होता। यदि जंगल में वृक्षों की रक्षा नहीं होगी, समुद्र-तालाब
में मछलियों व अन्य जीवों को बचाया नहीं जाएगा तो जैविकीय संतुलन भी
गड़बड़ाएगा। वह कैसे संतुलित रह सकता है? जैन धर्म में अहिंसा मूल मंत्र है।
भगवान महावीर अहिंसात्मक समाज और दया-करुणा को सर्वोच्च मानवीय मूल्य मानते
थे। पशु हिंसा भारत में प्रारंभ से ही अनुचित मानी जाती रही है। क्षमा
पर्व पर्युषण जीवदया से भी जुड़ा है। भारत में कई त्योहार वृक्षों की रक्षा,
नदियों के प्रवाह से जुड़े हुए हैं। परंपरागत समाज में भी पर्युषण जैसे
धार्मिक आयोजन होते रहे हैं, जो कि समाज और प्रकृति-संतुलन की वाजिब चिंता
करते हैं। मांसाहार-शाकाहार की बहस को अकसर और अकारण मानवाधिकार का रंग दे
दिया जाता है। क्या यह उचित है? क्या मांस खाना मनुष्य के मौलिक अधिकारों
में शामिल है? तो क्या जीवदया भी प्रकृति के प्रति हमारे मौलिक दायित्वों
में से एक नहीं है? जिस तरह से आज वनों और वृक्षों को बचाने के लिए अभियान
चलाए जाते हैं, उसी तरह पशुओं की रक्षा भी तो जरूरी है। पर्युषण जैसे
अहिंसा और करुणा के पर्वों को लेकिन राजनीतिक बहस का चलना आश्चर्य पैदा
करता है। मुंबई में ज्यादातर शाकाहारी उदार होते हैं। हालांकि इन दिनों कई
हाउसिंग सोसायटी वाले केवल शाकाहारियों या प्याज-लहसुन का सेवन न करने वाले
लोगों को ही किरायेदार के तौर पर रखने पर जोर देते हैं। यह बात भी सही है
कि मुंबई की कई पारंपरिक मराठीभाषी बस्तियों में वहां के निवासियों की भाषा
और भोजन की आदतें भिन्न् हो गई हैं। लेकिन आखिर भोजन केवल जिह्वा विलास और
स्वाद ही हो तो नहीं है। यह संस्कृति का भी हिस्सा है। चूंकि मनुष्य दिन
में दो बार भोजन करता है, इसलिए यह भी स्वाभाविक है कि वह इसमें विविधता
चाहे। इसी में हस्तक्षेप को सरकार द्वारा व्यक्तियों की निजी पसंद और निजी
निर्णयों में नाहक दखल माना जा रहा है। इसके कुछ और आयाम भी हैं। मसलन
मुंबई में नौकरियों के लिए आने वाले मराठीभाषी कोंकणी मूलत: समुद्र की
संतानें होते हैं। समुद्री जीव उनके भोजन का हिस्सा रहते हैं और मुंबई में
आने के बाद भी वे इसे जारी रखते हैं। यही स्थिति दूसरे अनेक समुदायों की भी
है। फिर मुंबई भारत की बहुलतावादी संस्कृति का पर्याय भी है। मुंबई में
मनाए जाने वाले अनेक ऐसे त्योहार हैं, जो धीरे-धीरे पूरे देश का हिस्सा हो
गए हैं, फिर चाहे उसमें 'गणपति बप्पा मोरिया" की गूंज हो या 'गोविंदा आला
रे" की। नवरोज से लेकर रमजान तक, मुंबई में सभी पर्व समान उल्लास के साथ
मनाए जाते हैं। वैसे भी भोजन, भवन, भाषा और भूषा किसी भी संस्कृति के चार
आधार स्तंभ होते हैं। समाज के बदलते स्वरूप की श्रेणियां भी इन्हीं से
निर्धारित होती हैं। मुंबई में भोजन की विविधता भी है और भोजन को लेकर
सहिष्णुता भी है। ज्यादातर सार्वजनिक स्थानों और फूड आउटलेट्स पर यह साफ
शब्दों में लिखा होता है कि यहां मिलने वाला भोजन सामिष है या निरामिष।
मुंबई समुद्र किनारे बसा है। समुद्र से मछलियां पकड़ने वाले मछुआरे, कोली
जाति के बाशिंदे यहां सदियों से रह रहे हैं। यह उनकी आजीविका का इकलौता
आधार भी है। एक मायने में मुंबई की भौगोलिक संरचना के कारण भी वहां पर
मांसाहारियों की तादाद ज्यादा है, क्योंकि वहां मछली, झींगा जैसे समुद्री
जीव भारी तादाद में उपलब्ध हैं। ऐसे में हाल ही में उभरे प्रतिबंधात्मक
रुझानों से मांसाहारियों को मन ही मन ऐसा महसूस होने लगा है कि शाकाहारियों
द्वारा न केवल उनकी खानपान की आदतों पर अंकुश लगाया जा रहा है, बल्कि
उन्हें समाज में भी हाशिये पर धकेलने की कोशिश की जा रही है। लेकिन यह
विचित्र बात है कि सभी मांसाहारी भी हर समय मांसाहार नहीं करते। साल के कुछ
अवसरों पर तो वे स्वेच्छा से मांस-शराब आदि का त्याग कर देते हैं। लिहाजा
यह साफ है कि यहां पर बुनियादी दिक्कत सरकारी फरमान को लेकर है।
मांसाहारियों में भी मांस सेवन की सीमाएं उनके धार्मिक विश्वासों के आधार
पर तय हुई हैं। श्रावण मास में पूरे महाराष्ट्र व पूरे देश में हिंदू
मतावलंबी मांसाहार बंद कर देते हैं, क्योंकि श्रावण को पवित्र मास माना
जाता है। इसका एक वैज्ञानिक कारण भी है। सी-फूड के विशेषज्ञों का कहना है
कि समुद्री जीवों को उनके प्रजनन काल में नहीं खाया जाता है। श्रावण मास के
पूर्व की अमावस्या को मांसाहारियों और शराब का सेवन करने वालों को यह
अनुमति दी जाती है कि उस रात वे चाहे जितना मांसभक्षण और मदिरापान कर लें,
पर उसके बाद एक माह की पाबंदी रहेगी। अमूमन मंगलवार के दिन भी मांसाहार पर
अघोषित पाबंदी रहती है। जो नागरिक जिस आराध्य देव को मानते हैं, उसके
अनुसार वे मांसाहार नहीं करते हैं। यानी पर्युषण जैसे पवित्र पर्वों के
अवसर पर मांसाहार से परहेज कोई नई परिपाटी नहीं है। सरकारें भी पहले इस तरह
के प्रतिबंधात्मक कदम उठाती रही हैं। यह जरूर है कि चार दिन की बंदी पहली
बार लगाई गई है। समाज की स्वीकृति और सरकार की पाबंदी में अंतर तो है,
इसलिए यहां पर बुनियादी सवाल यह भी है कि क्या सरकार को धार्मिक मसलों से
सरोकार रखना चाहिए या नहीं?हर चोट का इलाज दुनिया में है लेकिन ये बार-बार
छोटी छोटी बात पर आहत होने वाली भावनाओं वाली बीमारी लाइलाज है। देश अपने
कमाने-खाने में व्यस्त है और राजनीति भावनाओं को बचाने में। उसके अलावा
मुद्दा है ही क्या। भावनाओं के कई प्रकार हैं। सिर्फ धर्म की वजह से
नहीं, बल्कि पार्टी, नेता, इतिहास, जाति, विचारधारा, दर्शन, फिल्मों,
किताबों और कभी-कभी यूंही आहत हो जाती हैं। फिलहाल महाराष्ट्र में सरकार के
द्वारा जैन धर्म के धार्मिक त्यौहार पर्युषण के दौरान मीट पर बैन लगाये
जाने के खिलाफ पूरे विपक्ष और उनके साथी दल शिवसेना ने भी मोर्चा संभाल
लिया है। शिवसेना और मनसे वही दल हैं जो गौ-मांस पर प्रतिबन्ध लगाने को
लेकर भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़ी थी। देखा जाये तो हिन्दू धर्म की
भावनाओं का खयाल रखते हुए गौ-मांस बंद हो सकता है तो फिर जैन धर्म के लोगों
की भावनाओं के सम्मान में 4 दिन का मीट बैन तो न्यायोचित है। प्रतिबन्ध की
समय सीमा भी दोनों धर्मों के लोगों की संख्या के अनुपातिक लगती है। अगर
भाजपा शासित महाराष्ट्र की सरकार ऐसा नहीं करती है तो फिर तो उस पर सिर्फ
हिन्दुओं के तुष्टिकरण का आरोप लगना तय है। गणेश चतुर्थी पर भी महाराष्ट्र
में एक दिन के लिए मीट पर बैन लगता ही है। ये तो राजनीतिक न्याय की बात
हुई। लेकिन देश के संविधान में साफ़-साफ़ लिखा है कि आप बिना किसी खौफ के
अपने-अपने धर्म का पालन कर सकें। वहां ये बिलकुल नहीं लिखा है कि आप पूरे
देश से अपने धर्म का पालन करवाएं। इस देश में नास्तिकों का भी आपकी तरह एक
अल्पसंख्यक समुदाय है। इसलिए किसी भी समाज के द्वारा सरकार से इस तरह के
प्रतिबन्ध का अनुरोध करना सरासर गलत है। महाराष्ट्र में ही नहीं, ये बैन कई
और राज्यों में भी लगता रहा है। गुजरात में पिछले कई वर्षों से पर्युषण के
दौरान ऐसा प्रतिबन्ध लगाया जाता रहा है। इसके खिलाफ 2008 में कुरैशी जमात
ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी डाली थी लेकिन मार्कण्डेय काटजू और एच.के.
सेमा की बेंच ने मुग़ल बादशाह अकबर की मिसाल देते हुए अपने फैसले में कहा कि
अकबर भी हफ्ते में कुछ दिन अपनी हिन्दू पत्नी और शाकाहारी हिन्दुस्तानियों
के सम्मान में शाकाहार का पालन करता था और इसलिए हमें भी दूसरे लोगों की
भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। बेशक भावनाओं का सम्मान करना चाहिए लेकिन
उससे पहले भावनाओं पर एक किताब छप जानी चाहिए जिसे पढ़ कर हम और आप दूसरों
की भावनाओं का सम्मान करना सीख जाएं। फिर तो कानून की किताब भी मोटी होते
रहने से बच जाएगी। अगर भावनाओं पर ही कानून बनते तो आज आपका या मेरा लिखना
भी मुनासिब नहीं होता।
उत्तम जैन संपादक - विद्रोही आवाज़
सह संपादक - जैन वाणी
उत्तम जैन संपादक - विद्रोही आवाज़
सह संपादक - जैन वाणी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
हमें लेख से संबंधित अपनी टिप्पणी करके अपनी विचारधारा से अवगत करवाएं.