हम पर है ..
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मल्टी नेशनल कम्पनीज और कॉल सेंटर में आज युवाओं को जॉब के अवसर ज्यादा हैं। देश के कुछ महानगर में इनके ऑफिस ज्यादा हैं। इनमे ऐसे युवाओं की जिनमें अधिकाँश अविवाहित हैं बहुसंख्या हैं। ज्यादातर ऐसे युवा फ्लैट्स किराये पर लेकर चार छह की सँख्या में इनमें रहते हैं। इन कम्पनीज में वीक-एंड दो दिनों का होता है। शुक्रवार की रात से संडे तक युवा मौज -मजे , पार्टी पीने खाने में समय बिताते हैं। उम्र ऐसी होती है , जिसमें दैहिक संबंधों का आकर्षण भी मन -मस्तिष्क पर छाया रहता है। कुछ युवा जीवन भर निभाने की गंभीरता के बिना इस तरह के संबंधों में लिप्त हो जाते हैं। ये कृत्य ना तो उनके माँ -पिता के घर को और ना ही भविष्य में बनने वाले स्वयं उनके परिवारों में सुखदता के लिए अनुकूल होते हैं। बिगड़ी ये नीयत , दृष्टि , कर्म और चरित्र उनके परिवार की शांति और प्रगति पर ग्रहण बन लगता है। परिवार और सपने बिखरने के कारक इकठ्ठे होते हैं।
मनुष्य जीवन सामान्यतः 70 वर्ष अधिक का होता है। दो -चार वर्ष की यह स्वछँदता अगर सुख भी देती हो (लेखक के अनुमान में सुख की शंका है) , तब भी वह अनुशंसनीय नहीं है। हमारी संस्कृति भी ऐसा चरित्र अनुमोदित नहीं करती है। सामाजिक बुराइयाँ और समस्या भी इससे बढ़ रही हैं। पाश्चात्य इस जीवन शैली में जीवन के 20 -30 वर्ष अवसाद , चिंता और कई तरह के रोगों के कष्ट में बिताने पड़ते हैं। परिवार बिखरने के बुरे प्रभाव मासूम बच्चों पर पड़ते हैं।
आज पाश्चात्य देशों में कम ही परिवार हैं, जिनमें बच्चे अपने सगे माँ -पिता की छत्रछाया में पल-बढ़ रहे हैं। पाश्चात्य प्रौढ़ इस जीवन शैली के बुरे परिणामों को जान कर अपने बच्चों लिये भारतीय संस्कृति के निर्वहन होते देखना चाहता है। लेकिन सामाजिक यह रोग वहाँ नासूर बन गया है। जिसका उपचार कठिन है। वह गहन पछतावे की मानसिकता में जीवन बिताने की लाचारी भोग रहा है।
हमारे देश में सामाजिक यह रोग नया ही है। इसका उपचार अभी संभव है। हम पढ़े -लिखे हैं , दो प्रश्नों के उत्तर स्व-विवेक से प्राप्त कर सकते हैं --
1. क्या दो -चार वर्ष के सुखभ्रम के लिए आगामी 30-40 वर्ष के जीवन सुख को दाँव पर लगा देना बुध्दिमानी होगी ?
2. हमारे समाज में नासूर से रोग के खतरे के लिए स्वयं जिम्मेदार बनना क्या उचित है ? क्या हमारे राष्ट्रीय ,सामाजिक और पारिवारिक दायित्व की दृष्टि से ऐसा आचरण उचित है?
हम पर है , हम चिंतनीय पाश्चात्य सामाजिक परिदृश्य से चेत सकते हैं , या स्वयं ठोकर खाने के बाद हानि उठा कर समझने पर छोड़ते हैं। आशंका है , दूसरी स्थिति में समझना अपूरणीय क्षति सिध्द होगा।
उत्तम जैन
संपादक
विद्रोही आवाज़ सूरत
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