रविवार, 9 नवंबर 2014

अंधकार एक शास्वत सत्य

अन्धकार; एक शाश्वत सत्य ''....धर्म-ग्रन्थों के अनुसार सृष्टि की रचना के पूर्व ब्रह्माण्ड में सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार विद्यमान था और जब सृष्टि का अन्त होगा तब भी सर्वत्र अन्धकार व्याप्त हो जाएगा; अन्धकार सदैव विद्यमान रहेगा। सृष्टि के पूर्व और पश्चात् जो रह जाता है, वह है अन्धकार; क्योंकि अन्धकार शाश्वत है। अन्धकार ब्रह्माण्ड का एक स्थाई तत्व है। एक समय सब-कुछ अन्धकार में विलीन हो जावेगा। प्रकाश तो क्षणिक है, निश्चित समय के लिए है, प्रकाश को एक समय खत्म होना ही है। प्रकाश की उत्पत्ति के लिए ऊष्मा आवश्यक है, प्रकाश-पुञ्ज आवश्यक है, बिना किसी स्रोत के प्रकाश उत्पन्न नहीं हो सकता, उस स्रोत के खत्म होते ही प्रकाश खत्म हो जाता है। ब्रह्माण्ड में कोई-भी दीर्घकालीन या अल्पकालीन प्रकाश-पुञ्ज या स्रोत अनश्वर नहीं है, समस्त प्रकाश-पुञ्ज और प्रकाश-स्रोत नश्वर हैं और एक समय आएगा जब ब्रह्माण्ड का प्रत्येक प्रकाश-पुञ्ज व स्रोत नष्ट हो जावेगा, इसके साथ ही ब्रह्माण्ड में प्रकाश खत्म हो जावेगा और ब्रह्माण्ड पुनः अन्धकारमय हो जावेगा।
मानव समस्त सुखदाई चीजों को शुभ मानता रहा है, प्रकाश की उपस्थिति में ही देख पाना सम्भव है, इसलिए मनुष्य प्रकाश को भी शुभ मानता है। मानव के समस्त क्रिया-कलाप प्रकाश पर निर्भर हैं, इसलिए मनुष्य प्रकाश को श्रेष्ठ मानता है। सूर्य का प्रकाश और उससे उत्पन्न होने वाली ऊष्मा से पृथ्वी पर जीवन सम्भव हुआ है, इसलिए मनुष्य का सम्पूर्ण ज्ञान व बोध प्रकाशोन्मुखी है; किन्तु प्रकाश के साथ ही मनुष्य और उसका सम्पूर्ण ज्ञान व बोध खत्म हो जावेगा और रह जाएगा मात्र अन्धकार। मनुष्य ने समस्त भय, अशुभ व अज्ञान को, अन्धकार से जोड़ रखा है, क्योंकि अन्धकार में मनुष्य असहाय हो जाता है; इसलिए अन्धकार को मनुष्य नकारात्मक सम्वेदना मान चुका है; किन्तु अन्तिम सत्य अन्धकार ही है। इसलिए वास्तविक मुक्ति चाहने वाली चेतना को अन्धकार के प्रति समर्पित होना चाहिए। प्रकाश के लिए समर्पित चेतना वास्तविक शाश्वतता को प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि प्रकाश स्वयं शाश्वत नहीं है।
योगियों ने मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली जिस ज्योति का जिक्र किया है, वह तो विशेष शारीरिक अभ्यास का परिणाम मात्र है, उसे परमानन्द का पर्याय या समाधि मान लेना उचित नहीं है; यह तो भ्रमित हो जाना है। यह तो एक विशेष मनोदशा की निर्मिति मात्र है; जिसके दौरान मस्तिष्क की वे कोशिकाएँ सक्रिय हो उठती हैं, जिनकी सक्रियता के चलते शरीर की समस्त ऊर्जा तन-मन को सतत उमंगित रखने की ओर प्रवृत होती है। यह अनुभव अलौकिक तो लगता है, पर यह एक मनो-अनुभूति मात्र है; यह जीवन का या स्रष्टि का चरम भान नहीं है। चाहे मस्तिष्क में ज्योति का प्रस्फुटन हो या समाधि की अवस्था, चेतना जब तक कुछ होने पर निर्भर है, तब तक अन्तिम सत्य को उपलब्ध नहीं है। कुछ भी न होने की स्थिति, अर्थात पूर्ण रिक्तता और परम शून्य विशुद्ध अन्धकार में ही सम्भव है। अतः चेतना का प्रथम व अन्तिम स्वीकार होना चाहिए मात्र और मात्र अन्धकार।
प्रसंगवश :- अन्धकार और प्रकाश को परिभाषित नहीं किया गया है। पूर्ण अन्धकार और पूर्ण प्रकाश सम्भव ही नहीं है। केबल प्रकाश की कमी या अधिकता सम्भव है। ऐसा माना जा सकता है कि इतना कम प्रकाश जिसमें मनुष्य कुछ भी न देख सके, अन्धकार है और इतना पर्याप्त प्रकाश कि मनुष्य सब कुछ स्पष्ट देख सके, प्रकाश है। अधिक प्रकाश में भी मनुष्य देख नहीं पाता, चकाचौंध से आँखें बन्द हो जाती हैं। प्रत्येक मनुष्य की आँखों की देखने की क्षमता भी इसे प्रभावित करती है। ..उत्तम विद्रोही

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