सम्यक्त्व पाना है तो स्वयं को पहचानना पडेगा। जीव स्वयं को ही नहीं पहचान
रहा है, तो सम्यक्त्व कैसे पा सकता है? हम कौन हैं? आत्मा। आत्मा का मूल
स्वभाव कैसा है? अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत वीर्य और अनंत
सुख आदि आत्मा के गुण हैं, ऐसा तो आपने सुना है न? आत्मा स्वरूप से अनंत
ज्ञानादि गुणों का स्वामी है न? शुद्ध आत्मा में एक भी दोष नहीं और गुण सब
हैं, यह आप जानते हैं? हम भी आत्मा हैं, परन्तु अभी हम में ज्ञानादि गुण
कितने हैं और दोष कितने हैं? ज्ञानादि गुण नहींवत् हैं और दोषों का कोई पार
नहीं है, ऐसा आपको लगता है? चेतन आत्मा मानो जड तुल्य बन गया है, ऐसा लगता
है? आत्मा का गुण अनंतज्ञान है, परन्तु अभी हम कैसे ज्ञानी हैं? वास्तव
में हम बहुत सारी बातें नहीं जानते।
अनंतज्ञान गुण का स्वामी आत्मा आज बहुत सी बातें नहीं जानता, इसका कारण क्या है? आत्मा अनंतज्ञानी होते हुए भी आज अज्ञानी है, ऐसा क्यों? आत्मा अनंतचारित्री है, परन्तु आज हमारे द्वारा दुराचरण बहुत होता है, यह क्यों? आत्मा अनंतवीर्य वाला है, फिर भी हममें अपार कमजोरी महसूस होती है, इसका क्या कारण है? आत्मा अनंत सुख का धाम है, फिर भी आज हमें दुःख अधिक भोगना पडता है और सुख के लिए फाँफे मारने पडते हैं, ऐसा क्यों? अपनी इच्छा अज्ञानी रहने की है? नहीं। अपनी इच्छा दुराचरण करने की है? कहिए कि नहीं। इच्छा तो अच्छा करने की ही है न? अच्छा करने की इच्छा होने पर भी खराब हो जाता है अथवा बुरा करने का मन होता है, तो वह क्यों? हममें वीर्य की कमी है, यह हमें खटकती है न? फिर भी हममें निर्बलता कितनी अधिक है?
सत्ता रूप में तो आत्मा अच्छा ही है, अनंत ज्ञानी है, अनंत दर्शनी है, अनंत चारित्री है, अनंत वीर्यवाला है, अनंत सुख का धाम है, परन्तु आज हम ऐसे-वैसे हैं, यह क्यों? क्या आप यह जानते हैं? कर्मरूपी आवरण के प्रताप से ही आज हमारी ऐसी दशा है। यह आवरण यदि हट जाए और हम निरावरण हो जाएं तो सिद्ध आत्मा में और हमारे आत्मा में कोई भेद नहीं है। हम जब-जब ‘णमो सिद्धाणं’ बोलते हैं, तब जैसे हमें सिद्धात्माओं के स्वरूप का ध्यान आता है, वैसे अपने स्वरूप का ध्यान भी आता है न?
ज्ञानी होने की इच्छा होते हुए भी हम बहुत अज्ञानी हैं। सुखी होने की इच्छा होते हुए भी हम बहुत दुःखी हैं। अच्छा करने की इच्छा होते हुए भी हम से दुराचरण हो जाता है। अनुभव है न आपको ऐसा? हां! तो ऐसा क्यों होता है? इस रीति से हम विचार करते हैं क्या? जो जीव सम्यक्त्व पाना चाहते हैं, उन्हें इस तरह भी आत्मा पर कर्मों के आवरण व आत्मा के स्वरूप का विचार करना चाहिए।.....
अनंतज्ञान गुण का स्वामी आत्मा आज बहुत सी बातें नहीं जानता, इसका कारण क्या है? आत्मा अनंतज्ञानी होते हुए भी आज अज्ञानी है, ऐसा क्यों? आत्मा अनंतचारित्री है, परन्तु आज हमारे द्वारा दुराचरण बहुत होता है, यह क्यों? आत्मा अनंतवीर्य वाला है, फिर भी हममें अपार कमजोरी महसूस होती है, इसका क्या कारण है? आत्मा अनंत सुख का धाम है, फिर भी आज हमें दुःख अधिक भोगना पडता है और सुख के लिए फाँफे मारने पडते हैं, ऐसा क्यों? अपनी इच्छा अज्ञानी रहने की है? नहीं। अपनी इच्छा दुराचरण करने की है? कहिए कि नहीं। इच्छा तो अच्छा करने की ही है न? अच्छा करने की इच्छा होने पर भी खराब हो जाता है अथवा बुरा करने का मन होता है, तो वह क्यों? हममें वीर्य की कमी है, यह हमें खटकती है न? फिर भी हममें निर्बलता कितनी अधिक है?
सत्ता रूप में तो आत्मा अच्छा ही है, अनंत ज्ञानी है, अनंत दर्शनी है, अनंत चारित्री है, अनंत वीर्यवाला है, अनंत सुख का धाम है, परन्तु आज हम ऐसे-वैसे हैं, यह क्यों? क्या आप यह जानते हैं? कर्मरूपी आवरण के प्रताप से ही आज हमारी ऐसी दशा है। यह आवरण यदि हट जाए और हम निरावरण हो जाएं तो सिद्ध आत्मा में और हमारे आत्मा में कोई भेद नहीं है। हम जब-जब ‘णमो सिद्धाणं’ बोलते हैं, तब जैसे हमें सिद्धात्माओं के स्वरूप का ध्यान आता है, वैसे अपने स्वरूप का ध्यान भी आता है न?
ज्ञानी होने की इच्छा होते हुए भी हम बहुत अज्ञानी हैं। सुखी होने की इच्छा होते हुए भी हम बहुत दुःखी हैं। अच्छा करने की इच्छा होते हुए भी हम से दुराचरण हो जाता है। अनुभव है न आपको ऐसा? हां! तो ऐसा क्यों होता है? इस रीति से हम विचार करते हैं क्या? जो जीव सम्यक्त्व पाना चाहते हैं, उन्हें इस तरह भी आत्मा पर कर्मों के आवरण व आत्मा के स्वरूप का विचार करना चाहिए।.....
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