शनिवार, 29 अगस्त 2015

निर्भीक-आजाद पंछी: हमारे जीवन का दर्शन ( सितम्बर -2015 )

1 सितम्बर 2015 :मान-शान की इच्छा से दिये गए लाख रूपये की तुलना में
प्रेम व ईमानदारी से दान किये गए मुट्ठी भर चावल का अधिक महत्व है.
2 सितम्बर 2015 : यदि आप हिम्मत का पहला कदम आगे बढायेगे तब परमात्मा की सम्पूर्ण मदद मिल जायेगी.
3 सितम्बर 2015 : मुस्कराना, संतुष्टता की निशानी है. इसलिए सदा मुस्कराते रहो.
4 सितम्बर 2015 : क्या मेरे विचारों का स्तर ऐसा है कि मैं परमात्मा का बच्चा कहलाने का अधिकारी हूँ.
5 सितम्बर 2015 : स्वयं में दैवी गुणों का आह्वान करो तो अवगुण भाग जायेंगे.
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सितम्बर 2015 : एक अच्छा, स्वच्छ मन वाला व्यक्ति दूसरों की विशेषताओं को
देखता है. दूषित मन वाला व्यक्ति दूसरों में बुराई ही तलाशता है.
7 सितम्बर 2015 : जो संकल्प करो उसे बीच-बीच में दृढ़ता का ठप्पा लगाओ तब विजयी बन जायेंगे. आगे पढ़े......

निर्भीक-आजाद पंछी: हमारे जीवन का दर्शन ( सितम्बर -2015 )

शनिवार, 22 अगस्त 2015

संथारा पर फैसले के मायने ..


भारत धर्म निरपेक्ष देश है ! भारत में धर्म का क्या स्थान है यह पूरी दुनिया को पता है। शायद ही दुनिया के किसी अन्य राष्ट्र में इतने धर्मों और पंथ के अनुयायी होंगे। इनमे एक प्राचीन धर्म है जैन !  राजस्थान उच्च न्यायालय के एक फैसले से एक नया विवाद उत्पन्न हुआ है। अदालत ने जैन धर्म में जारी संथारा या संलेखना को आत्महत्या और उसके लिए उकसाने के समान अपराध माना है। संथारा के अंतर्गत अन्न त्यागकर धीरे-धीरे मृत्यु का वरण किया जाता जाते हैं। न्यायालय ने अपने फैसले में कहा संथारा या संलेखना के तहत देह त्यागना धारा 309 के तहत आत्महत्या माना जाएगा। वहीं इस कृत्य में किसी भी तरह के सहयोग को धारा 306 के अनुसार अपराध माना जाएगा। संथारा नामक यह परंपरा हजारों वर्ष पुरानी मानी जाती है। इस कारण जैन धर्मावलम्बियों का विरोध स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। वे इसे आत्महत्या से अलग मानते हैं। जैन संतों के अनुसार आत्महत्या तनाव या कुंठा में की जाती है, जबकि संथारा आस्था का विषय है। उनके द्वारा इस मामले को उच्चतम न्यायालय में ले जाने की घोषणा भी की जा चुकी है।इस फैसले के बाद इस पर बड़ी बहस शुरू हो चुकी है। यहां यह उल्लेखनीय है कि आत्महत्या को लेकर देश में पहले से बहस चल रही है कि इसे अपराध माना जाए या नहीं। वर्तमान सरकार के नुमाइंदों ने इसे अपराध के दायरे से बाहर रखने की वकालत भी की र्थी। इसके पक्ष में तर्क यह दिए जाते हैं कि पीड़ित व्यक्ति किसी न किसी हताशा में आत्महत्या जैसा कदम उठाता है, हम उसे अपराधी घोषित कर उसके सिर पर एक नई हताशा लाद देते हैं। तो क्या संथारा को एक प्रकार से इच्छामृत्यु मान सकते हैं। जब कोई व्यक्ति ऐसे रोग से पीडित हो जिसका चिकित्सा जगत में कोई उपचार संभव ना हो या डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए हों तो उसे जीवित रखने के प्रयासों को बंद करने को क्या माना जाना चाहिए ? समाज में इस तरह के मामले सामने आते रहे हैं, जिनमें जीवन से लाचार लोग इच्छामृत्यु मांगते हैं। तो क्या इसे कानूनी मान्यता मिलनी चाहिए! दुनिया के किसी भी देश में अभी तक तो शायद ऐसा कानून नहीं है। ऐसे दुर्लभ उदाहरण मिल सकते हैं, जब अदालत ने जीवन की अप्रतिम पीड़ा झेल रहे व्यक्ति को इच्छामृत्यु की इजाजत दी हो। लेकिन दुविधा यह है कि कानून के दुरुपयोग के रास्ते भी बहुत जल्द खुलने लगते हैं। किसी भी मामले को दुर्लभ या विरल मानने की परिभाषा भी तय करनी होगी। इसके लिए एक नई प्रक्रिया ही तय करनी होगी। यानी यह बहुत लंबी बहस का मुद्दा है। फिलहाल तो संथारा या इससे मिलती जुलती सामाजिक मान्यताओं पर विचार का समय है। हर समाज को इस पर विचार करना होगा। जैन धर्म के प्राचीन आगम व शास्त्रो पर अगर नजर डाली जाए तो उसमे संथारा , संलेखना का उल्लेख मिलता है ! कानून निर्माण के पूर्व के हजारो वर्ष  प्राचीन शास्त्र जिनमे किए उल्लेख को जैन धर्म अस्वीकार नही कर सकता ! यह एक आस्था का विषय है ! जल्दी ही कानून बनाकर इसे मान्यता प्रदान करनी चाहिए !..... उत्तम जैन विद्रोही    


मंगलवार, 11 अगस्त 2015

संथारा जैन धर्म की आगम सम्मत प्राचीन तप आराधना

द्वार पर दस्तक देती मृत्यु का सहर्ष आलिंगन करना संथारा है ! जिसे जैन धर्म मे  मृत्यु महोत्सव के रूप मे माना जाता है ! जैन धर्म मे मृत्यु महोत्सव केसे मनाया जाए यह एक साधना पद्धति है ! राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा लगाई जैनधर्म की साधना पद्धति पर रोक निंदनीय है ! हमारे स्वतंत्र देश मे स्वतंत्र नागरिकों को अपने अपने धर्म की उपासना व साधना करने का पूर्ण अधिकार दिया गया है ! मे किसी दूसरे धर्म का उदाहरण नही दूंगा जिनमे पशु वध को भी मान्यता दी गयी है ! जैन धर्म मे आत्महत्या को बुरा व निंदनीय माना गया है ! आत्महत्या करना तो दूर आत्महत्या का विचार करना या इसका प्रयास करना भी जैन धर्म मे वर्जित है ! काफी ग्रंथो के शोध के बाद मेने जैन शास्त्रो मे पाया की शस्त्र प्रयोग , विष भक्षण , अग्निप्रवेश , जल प्रवेश आदि अनाचारणीय साधनो का उपयोग करते हुए जो व्यक्ति जीवनलीला का समापन करते है वे जन्म व मरण के कर्मो के बंधन मे बंद जाते है ! आत्महत्या के पीछे कुछ भाव प्रेरक रूप मे छिपे होते है इसलिए आत्महत्या को जैन धर्म मे सामान्य पाप न मानकर महापाप माना गया है ! जबकि माननीय अदालत ने को को समकक्ष मान लिया ! जब कोई साधक सन्यास धर्म मे प्रवेश करता है तब वह जैन साधना मे ब्रह्मचर्य पालन , रात्रि भोजन का त्याग , नंगे पेर से विहार , केश लोचन , अल्प वस्त्र या निर्वस्त्र ( श्वेताम्बर व दिगंबर परंपरा ) आदि बहुत से आवश्यक नियम लेते है ओर त्याग करते है ! इस सब का मुख्य उदेश्य यही होता है की शरीर से अत्यधिक आसक्ति न रहे ओर मन्म निर्द्वन्द ओर निश्चिंत रहे ! कुछ लोगो की सोच ओर दिमाग मे भ्रांति है की जैन धर्म जीवन रक्षा के प्रति सावधान न होकर मरणोन्मुख को प्रशय देता है ! उनकी यह धारणा नितांत निर्मूल है ! क्यूकी जैन धर्म तो सदा ही जियो ओर जीने दो का नारा देता रहा है ! जब भी देश , धर्म ओर आत्मा की रक्षा के लिए जीवन की आहुती देने का प्रसंग आया है तो उसमे भी जैनो ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया है ! जैन धर्म की मान्यता रही है की जीवन को शान से जियो ! संयम साधना ओर तपस्या से जीवन को चमकाओ ओर जब इससे विदा होने का अवसर आए तब भी हँसते हँसते इस दुनिया से कुच  कर जाओ ! जीवन मृत्यु  एक सिक्के के दो पहलू है जीवन के साथ  मृत्यु का अटूट संबंध है ! जन्म लिया है तो मृत्यु निश्चित है !  मृत्यु को जीवंत बनाने की कला जैन धर्म मे बतायी गयी है ! जैन ग्रंथ आचरांग सूत्र , उत्तराध्यान सूत्र , अंतकृतदशा , भगवती आराधना व अन्य बहुत से ग्रंथो मे समाधिमरण के विधि विधान के विस्तृत वर्णन है ! संथारे का विधान मुनि ओर ग्रहस्थ दोनों के लिए है ! अनेक संतो , ग्रहस्थों  के यादगार संथारो के उल्लेख इतिहास मे , लोक चर्चाओ व अभिलेखो ओर पुस्तकों मे मिलते है ! भारत रत्न भूदान यज्ञ के मसीहा आचार्य विनोबा भावे ने 1982 मे जब जान लिया की अब शरीर साथ नही देने वाला है तब उन्होने समस्त इच्छाओ , ओषधियों ओर आहार क्ला त्याग करके संथारा ग्रहण किया था ! भले उसे संथारे का नाम न दिया गया हो ! इतिहासकारो ने जैन मान्यता की पुष्टी की है की सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने धर्मगुरु भद्रबाहु स्वामी के सानिध्य मे संलेखना व्रत स्वीकार किया था ! संथारा के दो प्रकार वर्णित है सागारी ओर आजीवन ! किसी आकस्मिक संकट के समय व शयन पूर्व सागारी संथारा लिया जा सकता है ! सागारी संथारे मे संकट या मृत्यु टल जाने पर साधक पुनः अन्न जल ग्रहण करता है ! ओर सामान्य जीवन जीता है ! वेसे सागारी संथारे कम होते है ! अनेक सजग साधक इसे नित्य नियम की तरह ग्रहण करते है ! संथारा देह की मृत्यु ओर आत्मा की अमरता की हमेशा याद दिलाता है ! संथारा तिविहार ओर चोविहार भी होता है ! तिविहार संथारे मे जल ग्रहण करने की छूट होती है जबकि चोविहार संथारे मे अन्न जल का पूर्ण त्याग कर दिया जाता है ! जैन धर्म के इतिहास को देखते हुए संथारे को आत्महत्या के समकश उच्च न्यायालय द्वारा माना जाना जैन धर्म के इतिहास व जैन धर्म की भावनाओ को ठेस  कहा जाये तो गलत नही होगा ! ..... उत्तम जैन विद्रोही 

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

कर्म


सुकर्म, अकर्म और विकर्म- तीन तरह के कर्मों की योग और गीता में विवेचना की गई है।
कर्म : सुकर्म वह है जो धर्म और योग युक्त आचरण है। पलायनवादी चित्त को प्रदर्शित करता है अकर्म, जो जीवन के हर मोर्चे से भाग जाए ऐसा अकर्मी तटस्थ और संशयी बुद्धि माना जाता है। वह दुर्बल और भीरू होता है और यह भी कि उसे मौन समर्थक कहा जाता है। सुकर्म और विकर्म का अस्तित्व होता है परन्तु अकर्म का नहीं।
कर्म में कुशलता : कर्मवान अपने कर्म को कुशलता से करता है। कर्म में कुशलता आती है कार्य की योजना से। योजना बनाना ही योग है। योजना बनाते समय कामनाओं का संकल्प त्यागकर विचार करें। तब कर्म को सही दिशा मिलेगी। कामनाओं का संकल्प त्याग का अर्थ है ऐसी इच्छाएँ न रखे जो केवल स्वयं के सुख, सुविधाओं और हितों के लिए हैं। अत: स्वयं को निमित्त जान कर्म करो जिससे कर्म का बंधन और गुमान नहीं रहता। निमित्त का अर्थ उस एक परमात्मा द्वारा कराया गया कर्म जानो।
समत्व बुद्धि : जिस मनुष्य का जीवन योगयुक्त है, उसे जीवन चलाने के कर्म बंधन में बाँधने वाले नहीं होते। जैसे कमल किचड़ में रहकर भी कमल ही रहता है। युक्त और अयुक्त का अर्थ योगयुक्त और योगअयुक्त से है अर्थात योग है समत्व बुद्धि।
समत्व बुद्धि से तात्पर्य सोच-विचार कर किए गए कर्म को योगयुक्त कर्म कहते है। समत्व बुद्धि से अर्थ सुख-दुख, विजय-पराजय, हर्ष-शोक, मान-अपमान इत्यादि द्वन्द्वों में विचलित हुए बगैर एक समान शांत चित्त रहे- वही कर्मयोगी कहलाता है।
कर्म का महत्व : गीता में कर्म योग का बहुत महत्व है। कर्म बंधन से मुक्त का साधन योग बताता है। कर्मों से मुक्ति नहीं, कर्मों के जो बंधन है उससे मुक्ति ही योग है। कर्म बंधन अर्थात हम जो भी कर्म करते है उससे जो शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है उस प्रभाव के बंधन से आवश्यक है। जहाँ तक अच्छा प्रभाव पड़ता है वहाँ तक सही है किंतु योगी सभी तरह के प्रभाव बंधन से मुक्ति चाहता है। यह ‍मुक्ति ही स्थितिप्रज्ञ योग है। अर्थात् अविचलित बुद्धि और शरीर। भय और चिंता से योगी न तो भयभित होता है और न ही उस पर वातावरण का कोई असर होता है।
स्थितप्रज्ञ : जैसे जहाज को चलाने वाले के पास ठीक दिशा बताने वाला कम्पास या यंत्र होना चाहिए उसी तरह श्रेष्ठ जीवन जीने के तथा मोक्ष के अभिलाषी व्यक्ति के पास 'योग' होना चाहिए। योग नहीं तो जीवन दिशाहीन है। यही बात कृष्ण ने गीता में स्थितप्रज्ञ के विषय में कही है। बुद्धि को निर्मल और तीव्र करने के लिए योग ही एक मात्र साधन है। योग स्थि त व्यक्ति साधारण मनुष्यों से विलक्षण देखने लगता है।
'सर्दी-गरमी, मान-अपमान, सुख-दुख में जिसका चित्त शांत रहता है और जिसका आत्मा इंद्रियों पर विजयी है, वह परमात्मा में लीन व्यक्ति योगारूढ़ कहा जाता है। 'योगी लोहा, मिट्टी, सोना इत्यादि को एक समान समझता है। वह ज्ञान-विज्ञान से तृप्त रहता है। वह कूटस्थ होता है, जितेन्द्रिय होता है और उसका आत्मा परमात्मा से युक्त होता है।
विलक्षण समन्वय : गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति का विलक्षण समन्वय हुआ है। ज्ञानमार्ग या ज्ञान योग को ध्यान योग भी कहा जाता है जो कि योग का ही एक अंग है। भक्ति मार्ग या भक्तियोग भी आष्टांग योग के नियम का पाँचवाँ अंग ईश्वर प्राणिधान है। इस तरह कृष्ण ने गीता में योग को तीन अंगों में सिमेट कर उस पर परिस्थिति अनुसार संक्षित विवेचन किया है।
व्यायाम मात्र नहीं : बिना ज्ञान के योग शरीर और मन का व्यायाम मात्र है। ज्ञान प्राप्त होता है यम और नियम के पालन और अनुशासन से। यम और नियम के पालन या अनुशासन के बगैर भक्ति जाग्रत नहीं होती। तब योग और गीता कहते है कि कर्म करो, चेष्ठा करो, संकल्प करो, अभ्यास करो, जिससे ‍की ज्ञान और भक्ति का जागरण हो। अभ्यास से धीरे-धीरे आगे बढ़ों। कर्म में कुशलता ही योग है। कर्म से शरीर और मन को साधा जा सकता है और कर्म से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है इसलिए जबरदस्त कर्म करो।