सुकर्म, अकर्म और विकर्म- तीन तरह के कर्मों की योग और गीता में विवेचना की गई है।
कर्म : सुकर्म वह है जो धर्म और योग युक्त आचरण है। पलायनवादी चित्त को प्रदर्शित करता है अकर्म, जो जीवन के हर मोर्चे से भाग जाए ऐसा अकर्मी तटस्थ और संशयी बुद्धि माना जाता है। वह दुर्बल और भीरू होता है और यह भी कि उसे मौन समर्थक कहा जाता है। सुकर्म और विकर्म का अस्तित्व होता है परन्तु अकर्म का नहीं।
कर्म में कुशलता : कर्मवान अपने कर्म को कुशलता से करता है। कर्म में कुशलता आती है कार्य की योजना से। योजना बनाना ही योग है। योजना बनाते समय कामनाओं का संकल्प त्यागकर विचार करें। तब कर्म को सही दिशा मिलेगी। कामनाओं का संकल्प त्याग का अर्थ है ऐसी इच्छाएँ न रखे जो केवल स्वयं के सुख, सुविधाओं और हितों के लिए हैं। अत: स्वयं को निमित्त जान कर्म करो जिससे कर्म का बंधन और गुमान नहीं रहता। निमित्त का अर्थ उस एक परमात्मा द्वारा कराया गया कर्म जानो।
समत्व बुद्धि : जिस मनुष्य का जीवन योगयुक्त है, उसे जीवन चलाने के कर्म बंधन में बाँधने वाले नहीं होते। जैसे कमल किचड़ में रहकर भी कमल ही रहता है। युक्त और अयुक्त का अर्थ योगयुक्त और योगअयुक्त से है अर्थात योग है समत्व बुद्धि।
समत्व बुद्धि से तात्पर्य सोच-विचार कर किए गए कर्म को योगयुक्त कर्म कहते है। समत्व बुद्धि से अर्थ सुख-दुख, विजय-पराजय, हर्ष-शोक, मान-अपमान इत्यादि द्वन्द्वों में विचलित हुए बगैर एक समान शांत चित्त रहे- वही कर्मयोगी कहलाता है।
कर्म का महत्व : गीता में कर्म योग का बहुत महत्व है। कर्म बंधन से मुक्त का साधन योग बताता है। कर्मों से मुक्ति नहीं, कर्मों के जो बंधन है उससे मुक्ति ही योग है। कर्म बंधन अर्थात हम जो भी कर्म करते है उससे जो शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है उस प्रभाव के बंधन से आवश्यक है। जहाँ तक अच्छा प्रभाव पड़ता है वहाँ तक सही है किंतु योगी सभी तरह के प्रभाव बंधन से मुक्ति चाहता है। यह मुक्ति ही स्थितिप्रज्ञ योग है। अर्थात् अविचलित बुद्धि और शरीर। भय और चिंता से योगी न तो भयभित होता है और न ही उस पर वातावरण का कोई असर होता है।
स्थितप्रज्ञ : जैसे जहाज को चलाने वाले के पास ठीक दिशा बताने वाला कम्पास या यंत्र होना चाहिए उसी तरह श्रेष्ठ जीवन जीने के तथा मोक्ष के अभिलाषी व्यक्ति के पास 'योग' होना चाहिए। योग नहीं तो जीवन दिशाहीन है। यही बात कृष्ण ने गीता में स्थितप्रज्ञ के विषय में कही है। बुद्धि को निर्मल और तीव्र करने के लिए योग ही एक मात्र साधन है। योग स्थि त व्यक्ति साधारण मनुष्यों से विलक्षण देखने लगता है।
'सर्दी-गरमी, मान-अपमान, सुख-दुख में जिसका चित्त शांत रहता है और जिसका आत्मा इंद्रियों पर विजयी है, वह परमात्मा में लीन व्यक्ति योगारूढ़ कहा जाता है। 'योगी लोहा, मिट्टी, सोना इत्यादि को एक समान समझता है। वह ज्ञान-विज्ञान से तृप्त रहता है। वह कूटस्थ होता है, जितेन्द्रिय होता है और उसका आत्मा परमात्मा से युक्त होता है।
विलक्षण समन्वय : गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति का विलक्षण समन्वय हुआ है। ज्ञानमार्ग या ज्ञान योग को ध्यान योग भी कहा जाता है जो कि योग का ही एक अंग है। भक्ति मार्ग या भक्तियोग भी आष्टांग योग के नियम का पाँचवाँ अंग ईश्वर प्राणिधान है। इस तरह कृष्ण ने गीता में योग को तीन अंगों में सिमेट कर उस पर परिस्थिति अनुसार संक्षित विवेचन किया है।
व्यायाम मात्र नहीं : बिना ज्ञान के योग शरीर और मन का व्यायाम मात्र है। ज्ञान प्राप्त होता है यम और नियम के पालन और अनुशासन से। यम और नियम के पालन या अनुशासन के बगैर भक्ति जाग्रत नहीं होती। तब योग और गीता कहते है कि कर्म करो, चेष्ठा करो, संकल्प करो, अभ्यास करो, जिससे की ज्ञान और भक्ति का जागरण हो। अभ्यास से धीरे-धीरे आगे बढ़ों। कर्म में कुशलता ही योग है। कर्म से शरीर और मन को साधा जा सकता है और कर्म से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है इसलिए जबरदस्त कर्म करो।
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