द्वार पर दस्तक देती मृत्यु का सहर्ष आलिंगन
करना संथारा है ! जिसे जैन धर्म मे मृत्यु महोत्सव
के रूप मे माना जाता है ! जैन धर्म मे मृत्यु महोत्सव
केसे मनाया जाए यह एक साधना पद्धति है ! राजस्थान
उच्च न्यायालय द्वारा लगाई जैनधर्म की साधना पद्धति पर
रोक निंदनीय है ! हमारे स्वतंत्र देश मे
स्वतंत्र नागरिकों को अपने अपने धर्म की उपासना व साधना करने का पूर्ण अधिकार दिया गया है ! मे किसी दूसरे धर्म
का उदाहरण नही दूंगा जिनमे पशु वध को भी मान्यता दी गयी है ! जैन धर्म मे आत्महत्या
को बुरा व निंदनीय माना गया है ! आत्महत्या करना तो दूर
आत्महत्या का विचार करना या इसका प्रयास करना
भी जैन धर्म मे वर्जित है ! काफी ग्रंथो के शोध के बाद मेने जैन शास्त्रो
मे पाया की शस्त्र प्रयोग ,
विष भक्षण ,
अग्निप्रवेश ,
जल प्रवेश आदि अनाचारणीय
साधनो का उपयोग करते हुए जो व्यक्ति जीवनलीला का समापन करते है वे
जन्म व मरण के कर्मो के बंधन मे बंद जाते है ! आत्महत्या
के पीछे कुछ भाव प्रेरक रूप मे छिपे होते है इसलिए आत्महत्या
को जैन धर्म मे सामान्य पाप न मानकर
महापाप माना गया है ! जबकि माननीय अदालत ने
को को समकक्ष मान लिया ! जब कोई साधक सन्यास
धर्म मे प्रवेश करता है तब वह जैन साधना मे ब्रह्मचर्य
पालन , रात्रि भोजन का त्याग ,
नंगे पेर से विहार ,
केश लोचन ,
अल्प वस्त्र या निर्वस्त्र
( श्वेताम्बर व दिगंबर परंपरा
) आदि बहुत से आवश्यक नियम
लेते है ओर त्याग करते है ! इस सब का मुख्य उदेश्य
यही होता है की शरीर से अत्यधिक आसक्ति न रहे ओर मन्म निर्द्वन्द ओर निश्चिंत रहे !
कुछ लोगो की सोच ओर दिमाग मे भ्रांति है की जैन धर्म जीवन रक्षा के
प्रति सावधान न होकर मरणोन्मुख को प्रशय देता है ! उनकी यह धारणा नितांत
निर्मूल है ! क्यूकी जैन धर्म तो सदा ही जियो ओर जीने दो का नारा
देता रहा है ! जब भी देश ,
धर्म ओर आत्मा की रक्षा
के लिए जीवन की आहुती देने का प्रसंग आया है तो उसमे भी जैनो ने अपनी वीरता का प्रदर्शन
किया है ! जैन धर्म की मान्यता
रही है की जीवन को शान से जियो ! संयम साधना ओर तपस्या से जीवन
को चमकाओ ओर जब इससे विदा होने का अवसर आए तब भी हँसते हँसते इस दुनिया से कुच कर जाओ ! जीवन
व मृत्यु
एक सिक्के के दो पहलू है जीवन के साथ मृत्यु का
अटूट संबंध है ! जन्म लिया है तो मृत्यु निश्चित है ! मृत्यु को
जीवंत बनाने की कला जैन धर्म मे बतायी
गयी है ! जैन ग्रंथ आचरांग सूत्र
, उत्तराध्यान सूत्र
, अंतकृतदशा ,
भगवती आराधना व अन्य बहुत
से ग्रंथो मे समाधिमरण के विधि विधान के विस्तृत वर्णन है ! संथारे का विधान मुनि ओर
ग्रहस्थ दोनों के लिए है ! अनेक संतो ,
ग्रहस्थों के यादगार संथारो के उल्लेख इतिहास मे ,
लोक चर्चाओ व अभिलेखो
ओर पुस्तकों मे मिलते है ! भारत रत्न भूदान यज्ञ
के मसीहा आचार्य विनोबा भावे ने 1982 मे जब जान लिया की अब शरीर साथ नही देने वाला
है तब उन्होने समस्त इच्छाओ , ओषधियों ओर आहार क्ला त्याग
करके संथारा ग्रहण किया था ! भले उसे संथारे का नाम
न दिया गया हो ! इतिहासकारो ने जैन मान्यता की
पुष्टी की है की सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने धर्मगुरु भद्रबाहु स्वामी के सानिध्य मे
संलेखना व्रत स्वीकार किया था ! संथारा के दो प्रकार वर्णित है सागारी ओर आजीवन
! किसी आकस्मिक संकट के
समय व शयन पूर्व सागारी संथारा लिया जा सकता है ! सागारी संथारे मे संकट या मृत्यु टल
जाने पर साधक पुनः अन्न जल ग्रहण करता है
! ओर सामान्य जीवन जीता
है ! वेसे सागारी संथारे कम
होते है ! अनेक सजग साधक इसे नित्य
नियम की तरह ग्रहण करते है ! संथारा देह की मृत्यु ओर आत्मा की अमरता
की हमेशा याद दिलाता है ! संथारा तिविहार ओर चोविहार
भी होता है ! तिविहार संथारे मे जल ग्रहण
करने की छूट होती है जबकि चोविहार संथारे मे अन्न जल का पूर्ण त्याग कर दिया
जाता है ! जैन धर्म के इतिहास को
देखते हुए संथारे को आत्महत्या के समकश उच्च न्यायालय द्वारा माना जाना जैन धर्म के
इतिहास व जैन धर्म की भावनाओ को ठेस कहा जाये
तो गलत नही होगा ! ..... उत्तम जैन विद्रोही
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