मंगलवार, 11 अगस्त 2015

संथारा जैन धर्म की आगम सम्मत प्राचीन तप आराधना

द्वार पर दस्तक देती मृत्यु का सहर्ष आलिंगन करना संथारा है ! जिसे जैन धर्म मे  मृत्यु महोत्सव के रूप मे माना जाता है ! जैन धर्म मे मृत्यु महोत्सव केसे मनाया जाए यह एक साधना पद्धति है ! राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा लगाई जैनधर्म की साधना पद्धति पर रोक निंदनीय है ! हमारे स्वतंत्र देश मे स्वतंत्र नागरिकों को अपने अपने धर्म की उपासना व साधना करने का पूर्ण अधिकार दिया गया है ! मे किसी दूसरे धर्म का उदाहरण नही दूंगा जिनमे पशु वध को भी मान्यता दी गयी है ! जैन धर्म मे आत्महत्या को बुरा व निंदनीय माना गया है ! आत्महत्या करना तो दूर आत्महत्या का विचार करना या इसका प्रयास करना भी जैन धर्म मे वर्जित है ! काफी ग्रंथो के शोध के बाद मेने जैन शास्त्रो मे पाया की शस्त्र प्रयोग , विष भक्षण , अग्निप्रवेश , जल प्रवेश आदि अनाचारणीय साधनो का उपयोग करते हुए जो व्यक्ति जीवनलीला का समापन करते है वे जन्म व मरण के कर्मो के बंधन मे बंद जाते है ! आत्महत्या के पीछे कुछ भाव प्रेरक रूप मे छिपे होते है इसलिए आत्महत्या को जैन धर्म मे सामान्य पाप न मानकर महापाप माना गया है ! जबकि माननीय अदालत ने को को समकक्ष मान लिया ! जब कोई साधक सन्यास धर्म मे प्रवेश करता है तब वह जैन साधना मे ब्रह्मचर्य पालन , रात्रि भोजन का त्याग , नंगे पेर से विहार , केश लोचन , अल्प वस्त्र या निर्वस्त्र ( श्वेताम्बर व दिगंबर परंपरा ) आदि बहुत से आवश्यक नियम लेते है ओर त्याग करते है ! इस सब का मुख्य उदेश्य यही होता है की शरीर से अत्यधिक आसक्ति न रहे ओर मन्म निर्द्वन्द ओर निश्चिंत रहे ! कुछ लोगो की सोच ओर दिमाग मे भ्रांति है की जैन धर्म जीवन रक्षा के प्रति सावधान न होकर मरणोन्मुख को प्रशय देता है ! उनकी यह धारणा नितांत निर्मूल है ! क्यूकी जैन धर्म तो सदा ही जियो ओर जीने दो का नारा देता रहा है ! जब भी देश , धर्म ओर आत्मा की रक्षा के लिए जीवन की आहुती देने का प्रसंग आया है तो उसमे भी जैनो ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया है ! जैन धर्म की मान्यता रही है की जीवन को शान से जियो ! संयम साधना ओर तपस्या से जीवन को चमकाओ ओर जब इससे विदा होने का अवसर आए तब भी हँसते हँसते इस दुनिया से कुच  कर जाओ ! जीवन मृत्यु  एक सिक्के के दो पहलू है जीवन के साथ  मृत्यु का अटूट संबंध है ! जन्म लिया है तो मृत्यु निश्चित है !  मृत्यु को जीवंत बनाने की कला जैन धर्म मे बतायी गयी है ! जैन ग्रंथ आचरांग सूत्र , उत्तराध्यान सूत्र , अंतकृतदशा , भगवती आराधना व अन्य बहुत से ग्रंथो मे समाधिमरण के विधि विधान के विस्तृत वर्णन है ! संथारे का विधान मुनि ओर ग्रहस्थ दोनों के लिए है ! अनेक संतो , ग्रहस्थों  के यादगार संथारो के उल्लेख इतिहास मे , लोक चर्चाओ व अभिलेखो ओर पुस्तकों मे मिलते है ! भारत रत्न भूदान यज्ञ के मसीहा आचार्य विनोबा भावे ने 1982 मे जब जान लिया की अब शरीर साथ नही देने वाला है तब उन्होने समस्त इच्छाओ , ओषधियों ओर आहार क्ला त्याग करके संथारा ग्रहण किया था ! भले उसे संथारे का नाम न दिया गया हो ! इतिहासकारो ने जैन मान्यता की पुष्टी की है की सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने धर्मगुरु भद्रबाहु स्वामी के सानिध्य मे संलेखना व्रत स्वीकार किया था ! संथारा के दो प्रकार वर्णित है सागारी ओर आजीवन ! किसी आकस्मिक संकट के समय व शयन पूर्व सागारी संथारा लिया जा सकता है ! सागारी संथारे मे संकट या मृत्यु टल जाने पर साधक पुनः अन्न जल ग्रहण करता है ! ओर सामान्य जीवन जीता है ! वेसे सागारी संथारे कम होते है ! अनेक सजग साधक इसे नित्य नियम की तरह ग्रहण करते है ! संथारा देह की मृत्यु ओर आत्मा की अमरता की हमेशा याद दिलाता है ! संथारा तिविहार ओर चोविहार भी होता है ! तिविहार संथारे मे जल ग्रहण करने की छूट होती है जबकि चोविहार संथारे मे अन्न जल का पूर्ण त्याग कर दिया जाता है ! जैन धर्म के इतिहास को देखते हुए संथारे को आत्महत्या के समकश उच्च न्यायालय द्वारा माना जाना जैन धर्म के इतिहास व जैन धर्म की भावनाओ को ठेस  कहा जाये तो गलत नही होगा ! ..... उत्तम जैन विद्रोही 

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