मेरा बचपन मेरा गाँव शीर्षक एक बचपन की याद दिलाता है । बचपन से छप्पन में आते आते जिन्दगी की दिनचर्या में कितना बदलाव आ जाता है । समय के साथ जन्मभूमि से कर्मभूमि तक के सफ़र में इंसान थपेड़े खाते खाते जन्मभूमि व् अपनों से दूर निकल जाता है । दादा दादी बड़े बुजुर्गो से इन्सान दूर सिर्फ अर्थ के पीछे भागता है । शारीरिक सुख मानसिक सुख अपनत्व को भूल दिन रात भागता रहता है । शहरो में व्यस्त पडोशी से अनभिज्ञ तो रहता ही है वरन अपने परिवार को भी समय नही दे पाता है । फलस्वरूप सिर्फ प्राप्त करता है तो अर्थ । मानसिक तनाव में जीवन गुजारते हुए असाध्य बीमारी से ग्रसित होकर परिवार के लिए एक पारिवारिक डॉक्टर से जरुर निकटता बना कर रखता है । शहरो के प्रदुषण से वास्ता रोगी बना देता है । कहा वो गाँव की खुली हवा प्रदुषण मुक्त जीवन पर वक़्त के साथ चलना इन्सान की मज़बूरी का बहाना । मेने बहुत परिवार को देखा जिनके पास न बच्चो न पत्नी न माँ व् पिता के लिए समय है । क्या यही मानव जीवन का लक्ष्य है । अगर नही तो क्यों बद से बदतर जिन्दगी जीता है । साथ में परिवार को भी जीने को मजबूर करता है । में शहर में रहने के खिलाफ नही हु पर चेन की जिन्दगी जीने की सलाह तो दे सकता हु । वर्तमान को देखते हुए गाव में रह कर समाज में अपना अस्तित्व नही बना सकता यह एक कटु सत्य है । इसके अनेक कारण है ।समाज में फेली कुप्रथा सबसे बड़ी जिमेदार है । व्यक्ति दोड़ में पीछे नही रहना चाहता । शादी विवाह में फिजूल खर्ची , दिखावा, एशो आराम के साधन , समाज में दिए जाने वाले बड़े बड़े चंदे की राशि जिससे खुद का नाम रोशन कर सके । भले पिछली पीढ़ी अर्थ कमाने के लिए संस्कार विहीन हो रही हो । दोस्तों मेरा मकसद समाज में बगावत करना नही पर समय रहते परिवर्तन की अपेक्षा है । समाज एक परिवार का हिस्सा है अब समय है परिवर्तन होना चाहिए । दहेज़ प्रथा , दिखावा , अपव्यय , बहुत सी कुरतिया है जिसे आज की युवा पीढ़ी को आगे आकर अंकुश लगाना होगा । पूर्वजो के पथ से कुछ हटना होगा । उनके अच्छे संस्कार ग्रहण करे व् कुरतियो से बगावत करनी होगी तभी एक स्वस्थ समाज की सरचना होगी आगे की भावी पीढ़ी शहरो की तरफ न भाग कर गाँव में रहने में शुकून का अनुभव करेगी । चाहे कंही भी रहे पर एक परिवार को समय देना अपना कर्तव्य समझेगी । और एक स्वस्थ समाज एक स्वस्थ परिवार में जी सकेगा ... उत्तम जैन ( विद्रोही )
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