रोज़-रोज़ ऐसे ही झगड़े होते रहते हैं, फिर भी पति-पत्नी को इसका हल निकालने को मन नहीं करता, यह आश्चर्य है न?
यह सारा लड़ाई-झगड़ा खुद की गरज से करते हैं। यह जानती है कि आ़खिर वे कहाँ जानेवाले हैं? वह भी समझता है कि यह कहाँ जानेवाली है? ऐसे आमने-सामने गरज से टिका हुआ है।
विषय में सुख से अधिक, विषय के कारण परवशता के दुःख है! ऐसा समझ में आने के बाद विषय का मोह छूटेगा और तभी स्त्री जाति (पत्नी) पर प्रभाव डाल सकेंगे और वह प्रभाव उसके बाद निरंतर प्रताप में परिणमित होगा। नहीं तो इस संसार में बड़े-बड़े महान पुरुषों ने भी स्त्री जाति से मार खाई थी। वीतराग ही बात को समझ पाए! इसलिए उनके प्रताप से ही स्त्रियाँ दूर रहती थीं! वर्ना स्त्री जाति तो ऐसी है कि देखते ही देखते किसी भी पुरुष को लट्टू बना दे, ऐसी उसके पास शक्ति है। उसे ही स्त्री चरित्र कहा है न! स्त्री संग से तो दूर ही रहना और उसे किसी प्रकार के प्रपंच में मत फँसाना, वर्ना आप खुद ही उसकी लपेट में आ जाएँगे। और यही की यही झंझट कई जन्मों से होती आई है।
स्त्रियाँ पति को दबाती हैं, उसकी वज़ह क्या है? पुरुष अति विषयी होता है, इसलिए दबाती हैं। ये स्त्रियाँ आपको खाना खिलाती हैं इसलिए दबाव नहीं डालतीं, विषय के कारण दबाती हैं। यदि पुरुष विषयी न हो तो कोई स्त्री दबाव में नहीं रख सकती! कमज़ोरी का ही़ फायदा उठाती हैं। यदि कमज़ोरी न हो तो कोई स्त्री परेशानी नहीं करेगी। स्त्री बहुत कपटवाली है और आप भोले! इसलिए आपको दो-दो, चार-चार महीनों का (विषय में) कंट्रोल (संयम) रखना होगा। फिर वह अपने आप थक जाएगी।
गृह कलह- आज जिधर भी दृष्टि डालिए लोग पारिवारिक जीवन से ऊबे, शोक- सन्ताप में डूबे, अपने भाग्य को कोसते नजर आते हैं। बहुत ही कम परिवार ऐसे होंगे जिनमें स्नेह- सौजन्य की सुधा बहती दिखाई पड़े, अन्यथा घर- घर में कलह, क्लेश, कहा- सुनी, झगड़े- टंटे, मार- पीट, रोना- धोना, टूट- फूट, बाँट- बटवारा और दरार, जिद फैली देवर- भौजाई यहाँ तक कि पति- पत्नी तथा बच्चों एवं बूढ़ों में टूट- फूट लड़ाई- झगड़ा, द्वेष- वैमनस्य तथा मनोमालिन्य उठता और फैलता दिखाई देता है। आज का पारिवारिक जीवन जितना कलुषित, कुटिल और कलहपूर्ण हो गया है कदाचित् ऐसा निकृष्ट जीवन पहले कभी भी नहीं रहा होगा।
अपने पैरों खड़े होते ही पुत्र असमर्थ माता- पिता को छोड़ कर अलग घर बसा लेता है। भाई- भाई की उन्नति एवं समृद्धि को शत्रु की आँखों से देखता है। पत्नी- पति को चैन नहीं लेने देती। बहू- बेटियाँ, फैशन प्रदर्शन के सन्निपात से ग्रस्त हो रही हैं। छोटी संतानें जिद्दी, अनुशासनहीन तथा मूढ़ बनती जा रही हैं। परिवारों के सदस्यों के व्यय तथा व्यसन बढ़ते जा रहे हैं। कुटुम्ब कबीले वाले कौटुम्बिक प्रतिष्ठा को कोई महत्व देते दृष्टिगोचर नहीं होते। निःसन्देह यह भयावह स्थिति है। परिवार टूटते, बिखरते जा रहे हैं। चिन्तनशील सद्गृहस्थ इस विषपूर्ण विषम स्थिति में शरीर एवं मन से चूर होते जा रहे हैं। गृहस्थ धर्म एक पाप बनकर उनके सामने खड़ा हो गया है। अनेक समाज हितैषी, लोकसेवी, परोपकार की भावना रखने वाले सद्गृहस्थ इस असहनीय पारिवारिक परिस्थिति के कारण अपने जीवन लक्ष्य की ओर न बढ़ सकने के कारण अपने दुर्भाग्य को धिक्कार रहे हैं। जरूरत है संयम के साधना की , अपने इगो (घमंड ) से दूर होने की , एक समर्पण की ........ देखो परिवार एक सुंदर सी बगिया के रूप मे निखर जाएगा
उत्तम जैन (विद्रोही )
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