गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

धीरज हो तो गरीबी का दर्द नहीं होता----

अधम प्रकृत्ति का मनुष्य केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम प्रकृत्ति के धन के साथ मान की तथा उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हैं।अगर मनुष्य में धीरज हो तो गरीबी की पीड़ा नहीं होती। घटिया वस्त्र धोया जाये तो वह भी पहनने योग्य हो जाता है। बुरा अन्न भी गरम होने पर स्वादिष्ट लगता है। शील स्वभाव हो तो कुरूप व्यक्ति भी सुंदर लगता है।इस विश्व में धन की बहुत महिमा दिखती है पर उसकी भी एक सीमा है। जिन लोगों के अपने चरित्र और व्यवहार में कमी है और उनको इसका आभास स्वयं ही होता है वही धन के पीछे भागते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि वह स्वयं किसी के सहायक नहीं है इसलिये विपत्ति होने पर उनका भी कोई भी अन्य व्यक्ति धन के बिना सहायक नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने ऊपर यकीन तो करते हैं पर फिर भी धन को शक्ति का एक बहुत बड़ा साधन मानते हैं। उत्तम और शक्तिशाली प्रकृत्ति के लोग जिन्हें अपने चरित्र और व्यवहार में विश्वास होता है वह कभी धन की परवाह नहीं करते।
धन होना न होना परिस्थितियों पर निर्भर होता है। यह लक्ष्मी तो चंचला है। जिनको तत्व ज्ञान है वह इसकी माया को जानते हैं। आज दूसरी जगह है तो कल हमारे पास भी आयेगी-यह सोचकर जो व्यक्ति धीरज धारण करते हैं उनके लिये धनाभाव कभी संकट का विषय नहीं रहता। जिस तरह पुराना और घटिया वस्त्र धोने के बाद भी स्वच्छ लगता है वैसे ही जिनका आचरण और व्यवहार शुद्ध है वह निर्धन होने पर भी सम्मान पाते हैं। पेट में भूख होने पर गरम खाना हमेशा ही स्वादिष्ट लगता है भले ही वह मनपसंद न हो। इसलिये मन और विचार की शीतलता होना आवश्यक है तभी समाज में सम्मान प्राप्त हो सकता है क्योंकि भले ही समाज अंधा होकर भौतिक उपलब्धियों की तरफ भाग रहा है पर अंततः उसे अपने लिये बुद्धिमानों, विद्वानों और चारित्रिक रूप से दृढ़ व्यक्तियों की सहायता आवश्यक लगती है। यह विचार करते हुए जो लोग धनाभाव होने के बावजूद अपने चरित्र, विचार और व्यवहार में कलुषिता नहीं आने देते वही उत्तम पुरुष हैं। ऐसे ही सज्जन पुरुष समाज में सभी लोगों द्वारा सम्मानित होते हैं।  इसलिए सज्जनता और धीरज  का कभी त्याग नहीं करना चाहिए।
उत्तम जैन विद्रोही

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

माँ की ममता ...प्रकृति का एक उपहार

माँ की ममता ....... प्रकृती का उपहार
माँ शब्द की रचना कब , किसने , किन संजोग मे , किन भावो के साथ की इसका उलेख बहुत खोजने के बाद भी नही मिला ! ओर मिलने की आशा क्यू की यह एक छोटा शब्द पर विशाल शब्द है ! इसकी विशालता मापी जाये तो तीनों लोक भी कम पड़ जाये ! यह शब्द ही अपने आप मे ह्रदय को प्रफुलित कर देनेवाला , आत्मशांति का अनुभव कराने वाला, चेतना केंद्र को जागृत करने वाला है ! माँ शब्द के जाप से सभी मंत्रो के जाप परिपूर्ण हो जाते है ! माँ नाम के मंत्र सभी मंत्रो से ज्यादा उपकारी है ! माँ शब्द की व्याख्या अगर करने लगे हजारो पेज कम जाते है ! माँ की ममता एक प्रकृती का उपहार है ! माँ की ममता अमृत से ज्यादा गुणकारी है ! हर रोग की अमृत तुल्य दवा है माँ की ममता इसमे कोई संदेह नही ! मेने माँ शब्द को एक पुस्तक मे सँजोने की कंही बार कोसिश की मगर न जाने क्यू पुस्तक पूरी नही कर पाता लिखते हुए एक अध्याय पूरा होता नही ओर आंखो से माँ की ममता के गुणो की व्याख्या करते हुए ममता रूपी
अश्रु ( आँसू ) बह जाते है ! कंही बार माँ को सामने देख जब माँ का मंमतामयी चेहरे पर कुछ रिसर्च करने की कोसिस करता हु तो कहा से शुरू करू ओर कहा अंत समझ मे नही आता ! कलम की स्याही भी गर्व से फूलने लगती है अगर सीधे शब्दो मे कहु तो कलम भी बोलने लगती है इस विशाल ह्रदय माँ रूपी देवी का तू क्या वर्णन करेगा जिसका भगवान राम , कृष्ण नही कर पाये ! मित्रो माँ के बारे मे सक्षिप्त मे लिखने ओर आप को बताने के लिए चंद लाइन लिखी है ! माँ की सेवा से तीनों लोक सुधर सकते है माँ का कर्ज़ तो सात जन्मो मे पूरा नही किया जा सकता पर सूद चुकाना मत भूलना क्यूकी इस जन्म मे अगर सूद (ब्याज ) अगर बाकी रह गया तो अगले जन्म मे कभी पूर्ण नही कर पाओगे !! .......माँ तुझे सलाम !

शनिवार, 29 नवंबर 2014

माँ का दूध हो जाता है जहर अगर ...

मां का दूध हो जाता है जहर

आयुर्वेद में बहुत ही स्पष्ट निर्देश हैं कि मां जब क्रोध में हो, अपने बच्चों को दूध न पिलाए। कभी-कभी क्रोध की तीव्रता इतनी भयानक हो सकती है कि उस समय दुग्ध-पान कराने से बच्चे की मृत्यु भी हो सकती है। मां का अमृत समान दूध भी क्रोध के समय जहर हो जाता है। माण्डल भीलवाडा के मेरे आदरणीय मित्र ताराशंकर जी के पिता स्व.श्री लाभशंकर जी जोशी आयुर्वेद के अच्छे विद्वान थे। एक बार अपने मित्र के साथ चित्तौडगढ प्रवास के दौरान एक रिश्तेदार के यहां भोजन पर गए। भोजन बहुत ही अच्छा बना था,लेकिन मित्र ने दो ग्रास ही खाए कि उन्हें उबाके आने लगे और उल्टी हो गई। मित्र ने मेजबान को पूछा आपके यहां भोजन कौन बना रहा है। मेजबान ने बताया कि हमारी बहू खाना बना रही है। मित्र ने कहा कि जरूर आपकी बहू का चित्त शान्त नहीं है,हो सकता है कि सास-बहू में कुछ कहासुनी हुई हो। मेजबान को यह बात नागंवार लगी और वह तुरन्त रसोईघर में गए, देखा बहू खाना तो बना रही है, लेकिन रोते हुए। मेजबान हक्के-बक्के रह गए। भोजन बनाने में और खिलाने में मातृत्व भाव,करुणा, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य और उदारता,प्रसन्नता का भाव रहना चाहिए। बोझ या मजबूरी मानकर कभी किसी को भोजन पर आमंत्रित मत करिए। मन में क्लेश के रहते भोजन न पकाएं। आप जो भोजन कर रहे हैं, उसके लिए आपने किस प्रकार धनार्जन किया है, इसका भी उस भोजन और भोजन ग्रहण करने वाले पर गहरा असर होता है।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

कर्मों के आवरण का विचार

सम्यक्त्व पाना है तो स्वयं को पहचानना पडेगा। जीव स्वयं को ही नहीं पहचान रहा है, तो सम्यक्त्व कैसे पा सकता है? हम कौन हैं? आत्मा। आत्मा का मूल स्वभाव कैसा है? अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत वीर्य और अनंत सुख आदि आत्मा के गुण हैं, ऐसा तो आपने सुना है न? आत्मा स्वरूप से अनंत ज्ञानादि गुणों का स्वामी है न? शुद्ध आत्मा में एक भी दोष नहीं और गुण सब हैं, यह आप जानते हैं? हम भी आत्मा हैं, परन्तु अभी हम में ज्ञानादि गुण कितने हैं और दोष कितने हैं? ज्ञानादि गुण नहींवत् हैं और दोषों का कोई पार नहीं है, ऐसा आपको लगता है? चेतन आत्मा मानो जड तुल्य बन गया है, ऐसा लगता है? आत्मा का गुण अनंतज्ञान है, परन्तु अभी हम कैसे ज्ञानी हैं? वास्तव में हम बहुत सारी बातें नहीं जानते।
अनंतज्ञान गुण का स्वामी आत्मा आज बहुत सी बातें नहीं जानता, इसका कारण क्या है? आत्मा अनंतज्ञानी होते हुए भी आज अज्ञानी है, ऐसा क्यों? आत्मा अनंतचारित्री है, परन्तु आज हमारे द्वारा दुराचरण बहुत होता है, यह क्यों? आत्मा अनंतवीर्य वाला है, फिर भी हममें अपार कमजोरी महसूस होती है, इसका क्या कारण है? आत्मा अनंत सुख का धाम है, फिर भी आज हमें दुःख अधिक भोगना पडता है और सुख के लिए फाँफे मारने पडते हैं, ऐसा क्यों? अपनी इच्छा अज्ञानी रहने की है? नहीं। अपनी इच्छा दुराचरण करने की है? कहिए कि नहीं। इच्छा तो अच्छा करने की ही है न? अच्छा करने की इच्छा होने पर भी खराब हो जाता है अथवा बुरा करने का मन होता है, तो वह क्यों? हममें वीर्य की कमी है, यह हमें खटकती है न? फिर भी हममें निर्बलता कितनी अधिक है?
सत्ता रूप में तो आत्मा अच्छा ही है, अनंत ज्ञानी है, अनंत दर्शनी है, अनंत चारित्री है, अनंत वीर्यवाला है, अनंत सुख का धाम है, परन्तु आज हम ऐसे-वैसे हैं, यह क्यों? क्या आप यह जानते हैं? कर्मरूपी आवरण के प्रताप से ही आज हमारी ऐसी दशा है। यह आवरण यदि हट जाए और हम निरावरण हो जाएं तो सिद्ध आत्मा में और हमारे आत्मा में कोई भेद नहीं है। हम जब-जब ‘णमो सिद्धाणं’ बोलते हैं, तब जैसे हमें सिद्धात्माओं के स्वरूप का ध्यान आता है, वैसे अपने स्वरूप का ध्यान भी आता है न?
ज्ञानी होने की इच्छा होते हुए भी हम बहुत अज्ञानी हैं। सुखी होने की इच्छा होते हुए भी हम बहुत दुःखी हैं। अच्छा करने की इच्छा होते हुए भी हम से दुराचरण हो जाता है। अनुभव है न आपको ऐसा? हां! तो ऐसा क्यों होता है? इस रीति से हम विचार करते हैं क्या? जो जीव सम्यक्त्व पाना चाहते हैं, उन्हें इस तरह भी आत्मा पर कर्मों के आवरण व आत्मा के स्वरूप का विचार करना चाहिए।..... 

सोमवार, 10 नवंबर 2014

क्या दो -चार वर्ष के सुखभ्रम के लिए आगामी 30-40 वर्ष के जीवन सुख को दाँव पर लगा देना बुध्दिमानी होगी ?

हम पर है ..
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मल्टी नेशनल कम्पनीज और कॉल सेंटर में आज युवाओं को जॉब के अवसर ज्यादा हैं। देश के कुछ महानगर में इनके ऑफिस ज्यादा हैं। इनमे ऐसे युवाओं की जिनमें अधिकाँश अविवाहित हैं बहुसंख्या हैं। ज्यादातर ऐसे युवा फ्लैट्स किराये पर लेकर चार छह की सँख्या में इनमें रहते हैं। इन कम्पनीज में वीक-एंड दो दिनों का होता है। शुक्रवार की रात से संडे तक युवा मौज -मजे , पार्टी पीने खाने में समय बिताते हैं। उम्र ऐसी होती है , जिसमें दैहिक संबंधों का आकर्षण भी मन -मस्तिष्क पर छाया रहता है। कुछ युवा जीवन भर निभाने की गंभीरता के बिना इस तरह के संबंधों में लिप्त हो जाते हैं। ये कृत्य ना तो उनके माँ -पिता के घर को और ना ही भविष्य में बनने वाले स्वयं उनके परिवारों में सुखदता के लिए अनुकूल होते हैं। बिगड़ी ये नीयत , दृष्टि , कर्म और चरित्र उनके परिवार की शांति और प्रगति पर ग्रहण बन लगता है। परिवार और सपने बिखरने के कारक इकठ्ठे होते हैं।

मनुष्य जीवन सामान्यतः 70 वर्ष अधिक का होता है। दो -चार वर्ष की यह स्वछँदता अगर सुख भी देती हो (लेखक के अनुमान में सुख की शंका है) , तब भी वह अनुशंसनीय नहीं है। हमारी संस्कृति भी ऐसा चरित्र अनुमोदित नहीं करती है। सामाजिक बुराइयाँ और समस्या भी इससे बढ़ रही हैं। पाश्चात्य इस जीवन शैली में जीवन के 20 -30 वर्ष अवसाद , चिंता और कई तरह के रोगों के कष्ट में बिताने पड़ते हैं। परिवार बिखरने के बुरे प्रभाव मासूम बच्चों पर पड़ते हैं।

आज पाश्चात्य देशों में कम ही परिवार हैं, जिनमें बच्चे अपने सगे माँ -पिता की छत्रछाया में पल-बढ़ रहे हैं। पाश्चात्य प्रौढ़ इस जीवन शैली के बुरे परिणामों को जान कर अपने बच्चों लिये भारतीय संस्कृति के निर्वहन होते देखना चाहता है। लेकिन सामाजिक यह रोग वहाँ नासूर बन गया है। जिसका उपचार कठिन है। वह गहन पछतावे की मानसिकता में जीवन बिताने की लाचारी भोग रहा है।

हमारे देश में सामाजिक यह रोग नया ही है। इसका उपचार अभी संभव है। हम पढ़े -लिखे हैं , दो प्रश्नों के उत्तर स्व-विवेक से प्राप्त कर सकते हैं --

1. क्या दो -चार वर्ष के सुखभ्रम के लिए आगामी 30-40 वर्ष के जीवन सुख को दाँव पर लगा देना बुध्दिमानी होगी ?

2. हमारे समाज में नासूर से रोग के खतरे के लिए स्वयं जिम्मेदार बनना क्या उचित है ? क्या हमारे राष्ट्रीय ,सामाजिक और पारिवारिक दायित्व की दृष्टि से ऐसा आचरण उचित है?

हम पर है , हम चिंतनीय पाश्चात्य सामाजिक परिदृश्य से चेत सकते हैं , या स्वयं ठोकर खाने के बाद हानि उठा कर समझने पर छोड़ते हैं। आशंका है , दूसरी स्थिति में समझना अपूरणीय क्षति सिध्द होगा।
उत्तम जैन
संपादक
विद्रोही आवाज़ सूरत

रविवार, 9 नवंबर 2014

अंधकार एक शास्वत सत्य

अन्धकार; एक शाश्वत सत्य ''....धर्म-ग्रन्थों के अनुसार सृष्टि की रचना के पूर्व ब्रह्माण्ड में सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार विद्यमान था और जब सृष्टि का अन्त होगा तब भी सर्वत्र अन्धकार व्याप्त हो जाएगा; अन्धकार सदैव विद्यमान रहेगा। सृष्टि के पूर्व और पश्चात् जो रह जाता है, वह है अन्धकार; क्योंकि अन्धकार शाश्वत है। अन्धकार ब्रह्माण्ड का एक स्थाई तत्व है। एक समय सब-कुछ अन्धकार में विलीन हो जावेगा। प्रकाश तो क्षणिक है, निश्चित समय के लिए है, प्रकाश को एक समय खत्म होना ही है। प्रकाश की उत्पत्ति के लिए ऊष्मा आवश्यक है, प्रकाश-पुञ्ज आवश्यक है, बिना किसी स्रोत के प्रकाश उत्पन्न नहीं हो सकता, उस स्रोत के खत्म होते ही प्रकाश खत्म हो जाता है। ब्रह्माण्ड में कोई-भी दीर्घकालीन या अल्पकालीन प्रकाश-पुञ्ज या स्रोत अनश्वर नहीं है, समस्त प्रकाश-पुञ्ज और प्रकाश-स्रोत नश्वर हैं और एक समय आएगा जब ब्रह्माण्ड का प्रत्येक प्रकाश-पुञ्ज व स्रोत नष्ट हो जावेगा, इसके साथ ही ब्रह्माण्ड में प्रकाश खत्म हो जावेगा और ब्रह्माण्ड पुनः अन्धकारमय हो जावेगा।
मानव समस्त सुखदाई चीजों को शुभ मानता रहा है, प्रकाश की उपस्थिति में ही देख पाना सम्भव है, इसलिए मनुष्य प्रकाश को भी शुभ मानता है। मानव के समस्त क्रिया-कलाप प्रकाश पर निर्भर हैं, इसलिए मनुष्य प्रकाश को श्रेष्ठ मानता है। सूर्य का प्रकाश और उससे उत्पन्न होने वाली ऊष्मा से पृथ्वी पर जीवन सम्भव हुआ है, इसलिए मनुष्य का सम्पूर्ण ज्ञान व बोध प्रकाशोन्मुखी है; किन्तु प्रकाश के साथ ही मनुष्य और उसका सम्पूर्ण ज्ञान व बोध खत्म हो जावेगा और रह जाएगा मात्र अन्धकार। मनुष्य ने समस्त भय, अशुभ व अज्ञान को, अन्धकार से जोड़ रखा है, क्योंकि अन्धकार में मनुष्य असहाय हो जाता है; इसलिए अन्धकार को मनुष्य नकारात्मक सम्वेदना मान चुका है; किन्तु अन्तिम सत्य अन्धकार ही है। इसलिए वास्तविक मुक्ति चाहने वाली चेतना को अन्धकार के प्रति समर्पित होना चाहिए। प्रकाश के लिए समर्पित चेतना वास्तविक शाश्वतता को प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि प्रकाश स्वयं शाश्वत नहीं है।
योगियों ने मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली जिस ज्योति का जिक्र किया है, वह तो विशेष शारीरिक अभ्यास का परिणाम मात्र है, उसे परमानन्द का पर्याय या समाधि मान लेना उचित नहीं है; यह तो भ्रमित हो जाना है। यह तो एक विशेष मनोदशा की निर्मिति मात्र है; जिसके दौरान मस्तिष्क की वे कोशिकाएँ सक्रिय हो उठती हैं, जिनकी सक्रियता के चलते शरीर की समस्त ऊर्जा तन-मन को सतत उमंगित रखने की ओर प्रवृत होती है। यह अनुभव अलौकिक तो लगता है, पर यह एक मनो-अनुभूति मात्र है; यह जीवन का या स्रष्टि का चरम भान नहीं है। चाहे मस्तिष्क में ज्योति का प्रस्फुटन हो या समाधि की अवस्था, चेतना जब तक कुछ होने पर निर्भर है, तब तक अन्तिम सत्य को उपलब्ध नहीं है। कुछ भी न होने की स्थिति, अर्थात पूर्ण रिक्तता और परम शून्य विशुद्ध अन्धकार में ही सम्भव है। अतः चेतना का प्रथम व अन्तिम स्वीकार होना चाहिए मात्र और मात्र अन्धकार।
प्रसंगवश :- अन्धकार और प्रकाश को परिभाषित नहीं किया गया है। पूर्ण अन्धकार और पूर्ण प्रकाश सम्भव ही नहीं है। केबल प्रकाश की कमी या अधिकता सम्भव है। ऐसा माना जा सकता है कि इतना कम प्रकाश जिसमें मनुष्य कुछ भी न देख सके, अन्धकार है और इतना पर्याप्त प्रकाश कि मनुष्य सब कुछ स्पष्ट देख सके, प्रकाश है। अधिक प्रकाश में भी मनुष्य देख नहीं पाता, चकाचौंध से आँखें बन्द हो जाती हैं। प्रत्येक मनुष्य की आँखों की देखने की क्षमता भी इसे प्रभावित करती है। ..उत्तम विद्रोही

शनिवार, 8 नवंबर 2014

भूतकाल और वर्तमान

भूतकाल व वर्तमान
वर्तमान जेसे जेसे बीतता जाता है ! भूतकाल बन जाता है पर कुछ बाते कुछ यादे मानव भूलता नही चाहे सुखद बात हो या दुखद ! बहुत बार मे सोचता हु बहुत लोगो को देखा है वर्तमान की कुछ समस्या सुलझाने से ज्यादा भूतकाल का रोना रोते है ! ओर अपना वर्तमान भी बिगाड़ देते है फलस्वरूप उन्हे मिलती है तो सिर्फ निराशा ! जिन्हे हम निराशावादी कह सकते है !निराशावादी व्यक्ति हमेशा दुखी रहते है क्यूकी हमेशा उन्हे नकारात्मक ऊर्जा ही मिलती है ! भूतकाल का सोचकर वर्तमान व भविष्यकाल को बिगाड़ देते है वो व्यक्ति न खुद सुखी रहते है न ही परिवार को सुखी रख पाते है ! मेने बहुत इस विषय पर अध्ययन किया है ! जहा नकारात्मक ऊर्जा इंसान के मस्तिष्क मे संचार करेगी वह इंसान हमेशा चिड़चिड़ा, बात बात पर रोना, गुमशुम , एकाकी पृवृति , बिना बात हर किसी को अपना दुश्मन या विरोधी मान लेना , घर दुकान नोकरी मे दिल न लगना आदि लक्षण देखे जा सकते है ! धीरे धीरे वह अवसाद मे चला जाता है फलस्वरूप अपनी ज़िंदगी व मोत की दूरिया कम करता जाता है ! मानव जीवन का आनंद नही लेकर सिर्फ चिंता मे डूब कर चीता के पास जाने मे देर नही करता ! दोस्तो मेरे इस पोस्ट का उद्देश्य यही है की मेरे मित्रो सखियो की लंबी सूची मे कुछ लोग जरूर होंगे जो भूतकाल मे विचरण करते होंगे ! एक सलाह के तोर पर यह पोस्ट समर्पित ....हमेशा सकारात्मक सोचे विपरीत परिस्थिति मे भी खुश रहे ! वर्तमान मे जिये भविष्य को सुनहरा बनाए ....  ........ उत्तम जैन ( विद्रोही )

शनिवार, 1 नवंबर 2014

एक गॊत्र में शादी क्यों नही ...

एक गोत्र में शादी क्यु नहीं....
वैज्ञानिक कारण हैं.. एक दिन डिस्कवरी पर जेनेटिक
बीमारीयों से सम्बन्धित
एक ज्ञानवर्धक कार्यक्रम
देख रहा था ... उस प्रोग्राम में एक
अमेरिकी वैज्ञानिक ने कहा की जेनेटिक बीमारी न
हो इसका एक ही इलाज है और वो है "सेपरेशन ऑफ़
जींस".. मतलब अपने नजदीकी रिश्तेदारो में विवाह
नही करना चाहिए ..क्योकि नजदीकी रिश्तेदारों में
जींस सेपरेट नही हो पाता और जींस लिंकेज्ड
बीमारियाँ जैसे हिमोफिलिया, कलर ब्लाईंडनेस, और
एल्बोनिज्म होने की १००% चांस होती है .. फिर मुझे
बहुत ख़ुशी हुई जब उसी कार्यक्रम में ये
दिखाया गया की आखिर हिन्दूधर्म में
करोड़ो सालो पहले जींस और डीएनए के बारे में कैसे
लिखा गया है ? हिंदुत्व में कुल सात गोत्र होते है
और एक गोत्र के लोग आपस में शादी नही कर सकते
ताकि जींस सेपरेट रहे.. उस वैज्ञानिक ने
कहा की आज पूरे विश्व
को मानना पड़ेगा की हिन्दूधर्म ही विश्व का एकमात्र
ऐसा धर्म है जो "विज्ञान पर आधारित" है !

शनिवार, 27 सितंबर 2014

सास बहु और मतभेद

सास बहु हर एक परिवार में एक अहम् जिमेदारी के साथ परिवार का महत्वपूर्ण रिश्ता है । जंहा बहु शादी करके घर में आती है । कुछ वर्षो तक बहु के रूप में रहकर एक सास के रूप में दायित्व निभाती है । यह तो एक परम्परा है जो प्राचीनकाल से चली आरही है । यह एक रिश्ता अगर सोचा जाये तो बहुत महत्वपूर्ण आपसी समझ. एक दुसरे को सन्मान , विचारधारा को समझने वाला , सामंजस्य  से परिवार का सञ्चालन करने  वाला होता है । क्यों की मुख्य रूप से सास व् बहु में  तक़रीबन 20 से 25 वर्ष का उम्र का फर्क होता है । स्वाभाविक रूप से विचारधारा में काफी फर्क होता है । जहा सास अपने पूर्व के अनुभव के आधार पर परिवार को संचालित करना चाहती है । वही बहु आधुनिकता के साथ घर को संचालित करना चाहती है । फलस्वरूप बात वाद विवाद को जन्म देती है । अनबन झगडे क्लेश शुरू हो जाते है । वेसे कोई बड़ा मुद्दा नही होता पर आपसी समझ की जरुरत होती है । बहु का कर्तव्य होता है की सास की भावनाओ की कद्र करे । क्यों की ससुराल में सास ही माँ के रूप में मिली है । एक आदर्श बहु अगर एक आदर्श पुत्री के रूप में घर में सन्मान पाना चाहती है तो उसे सबसे पहले सास का दिल जितना होगा । अगर सास का दिल जीत लिया तो उसको पीहर से ज्यादा प्यार मिल सकता है । तब वह अपने पति का प्यार को तो स्वत प्राप्त कर लेगी । घर में देवर जेठ छोटे बड़े सब की जिमेदारी एक बहु पर ज्यादा होती है । अगर इस अग्नि परीक्षा में बहु सफल हो जाती है तो निसंदेह घर स्वर्ग हो जाता है । अपने अधिकारों के साथ कर्तव्य का निर्वाह करना बहु की नेतिक जिमेदारी है । पर ज्यादा शिक्षित व् अपने माँ पिता का प्यार पाई हुई बेटी जब ससुराल आती है तो हर घर का माहोल विचारधारा रस्मे रीतिरिवाज के कुछ परिवर्तन जो स्वाभाविक रूप से होता है । बहु का फर्ज है अपने पीहर की तरह न अपनाकर ससुराल के अनुसार चले । और कुछ परिवर्तन करना भी चाहे तो सास के दिल पर विजय प्राप्त करके उसे  परिवर्तन करने की कोशिश करे । तो शायद एक बहु आदर्श बहु के रूप में स्थान पा सकती है । बहुत जगह बहु को अपने माता पिता व् भाई  की सह मिलती है । जिससे बहु का भविष्य कभी सुन्दर नही हो सकता है । उस जगह अगर मिलता है तो सिर्फ दुःख ।।
हर एक माँ का पुत्र यही चाहता है की उसकी पत्नी माँ व् पिता का सन्मान करे । अगर पत्नी सास व् ससुर का सन्मान नही करेगी तो पति का अपेक्षित प्यार कभी नही पा सकती भले एक सांसारिक रिश्ते व् अपनी मज़बूरी में पत्नी का साथ दे । और साथ में सास को भी चाहिए बहु से उसी तरह वर्ताव करे जेसा अपनी बेटी के साथ चाहती है । बहु की भावनाओ को समझे उसकी नादानी उम्र को देख कर उसे बेटी से ज्यादा प्यार करे । जिससे बहु एक आदर्श बहु
के रूप में जिमेदारी का निर्वहन कर सके । सास को चाहिय की बहु के साथ वो वर्ताव न करे जो वर्ताव उनकी सास ने उनके साथ किया । समय के साथ परिवर्तन बहुत जरुरी है । समय में आये बदलाव के साथ सास को चलना चाहिए । जिससे उनके द्वारा सींचे घर को बहु आगे बढ़ा सके । परिवार व् समाज में पूर्वजो का नाम रोशन कर सके ।।
उत्तम जैन ( विद्रोही )

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

पल का उपयोग

हम जब भी बाजार से कोई खाने पिने या दवा खरीदते है उस पर लिखी उत्त्पाद तिथी व् अवसान तिथी पहले देखते है !क्युकी हम पहले से अधिक जागरूक हो गए है ! साथ में हम यह भी देखते है की इस वस्तु में कोई हानिकारक तत्व तो मौजूद नही ! 
इसी  प्रकार से हम सभी के जीवनों पर प्रयोग हो सकने वाली तिथि लिखी हुई है - बस हम में से कोई उस तिथि को जानता नहीं है; हमें पता नहीं है कि हमारा हृदय किस तिथि तक ही कार्य करेगा और फिर सदा के लिए बैठ जाएगा, या हमारी अन्तिम श्वास किस पल ली जाएगी और फिर किस रीति से सदा के लिए थम जाएगी। जब यह सत्य सभी के जीवनों के लिए अवश्यंभावी है, तो क्या हम सब को उन पलों का जो हमें दिए गए हैं, मन  लगा कर सदुपयोग नहीं करना चाहिए? पलों के उपयोग से मेरा तात्पर्य है हम और गहराई तथा अर्थपूर्ण रीति से सच्चा प्रेम दिखाएं, औरों को क्षमा करने में तत्पर रहें, दूसरों की सुनने वाले बनें, खराई किंतु मृदुभाव से बोलने वाले बनें, इत्यादि।
क्योंकि हम में से कोई भी अपने उपयोगी रहने की अन्तिम तिथि नहीं जानता, इसलिए प्रत्येक पल को बहुमूल्य जानकर, हर पल का उपयोग त्याग ,संयम, साधना , सतकर्म , प्रेम से   प्रसार कर  संसार को और अधिक उज्जवल तथा सुन्दर बनाने के लिए करने वाले बन जाएं।**उत्तम जैन (विद्रोही )

मेरा बचपन मेरा गाव

मेरा बचपन मेरा गाँव शीर्षक एक बचपन की याद दिलाता है । बचपन से  छप्पन में आते आते जिन्दगी की दिनचर्या में कितना बदलाव आ जाता है । समय के साथ जन्मभूमि से कर्मभूमि तक के सफ़र में इंसान थपेड़े खाते खाते जन्मभूमि व् अपनों से दूर निकल जाता है । दादा दादी बड़े बुजुर्गो से इन्सान दूर सिर्फ अर्थ के पीछे भागता है । शारीरिक सुख मानसिक सुख अपनत्व को भूल दिन रात भागता रहता है । शहरो में व्यस्त पडोशी से  अनभिज्ञ तो रहता ही है वरन अपने परिवार को भी समय नही दे पाता है । फलस्वरूप सिर्फ प्राप्त करता है तो अर्थ । मानसिक तनाव में जीवन गुजारते हुए असाध्य बीमारी से ग्रसित होकर परिवार के लिए एक पारिवारिक  डॉक्टर से जरुर निकटता बना कर रखता है । शहरो के प्रदुषण से वास्ता रोगी बना देता है । कहा वो गाँव की खुली हवा प्रदुषण मुक्त जीवन पर वक़्त के साथ चलना इन्सान की मज़बूरी का बहाना । मेने बहुत परिवार को देखा जिनके पास न बच्चो न पत्नी न माँ व् पिता के लिए समय है । क्या यही मानव जीवन का लक्ष्य है । अगर नही तो क्यों बद से बदतर जिन्दगी जीता है । साथ में परिवार को भी जीने को मजबूर करता है । में शहर में रहने के खिलाफ नही हु पर चेन की जिन्दगी जीने की सलाह तो दे सकता हु । वर्तमान को देखते हुए गाव में रह कर समाज में अपना अस्तित्व नही बना सकता यह एक कटु सत्य है । इसके अनेक कारण है ।समाज में फेली  कुप्रथा सबसे बड़ी  जिमेदार है । व्यक्ति दोड़ में पीछे नही रहना चाहता । शादी विवाह में फिजूल खर्ची , दिखावा, एशो आराम के साधन , समाज में दिए जाने वाले बड़े बड़े चंदे की राशि जिससे खुद का नाम रोशन कर सके । भले पिछली पीढ़ी  अर्थ कमाने के लिए संस्कार विहीन हो रही हो । दोस्तों मेरा मकसद समाज में बगावत करना नही पर समय रहते परिवर्तन की अपेक्षा है । समाज एक परिवार का हिस्सा है अब समय है परिवर्तन होना चाहिए । दहेज़ प्रथा , दिखावा , अपव्यय , बहुत सी कुरतिया है जिसे आज की युवा पीढ़ी को आगे आकर अंकुश लगाना होगा । पूर्वजो के पथ से कुछ हटना होगा । उनके अच्छे  संस्कार ग्रहण करे व् कुरतियो से बगावत करनी होगी तभी एक स्वस्थ समाज की सरचना होगी आगे की भावी पीढ़ी शहरो की तरफ न भाग कर गाँव में रहने में शुकून का अनुभव करेगी । चाहे कंही भी रहे पर एक परिवार को समय देना अपना कर्तव्य समझेगी । और एक  स्वस्थ समाज एक स्वस्थ परिवार में जी सकेगा ... उत्तम जैन ( विद्रोही )

देहली में शेर ने मानव का शिकार किया

पिछले 2 दिनों से मिडिया टीवी ,पेपर  ,  व्हाट्स अप , फेसबुक ,ट्विटर और न जाने किस पर यह खबर सुर्खियों में रही । बहुत बुरी घटना थी । मुझे भी बड़ा दर्द हुआ। जब शेर ने मानव का भक्षण किया । स्वाभाविक है सभी लोग वीडियो देख कर ,फोटो देखकर बड़े दुखी हुए ।
एक शेर लोगो के सामने गर्दन मुह में पकड़ कर केसे एक इन्सान की जान ले ली । सुना तो यह भी था शेर शिकारी नही था । खुद 10 किलो मांस भी बड़े आलस से खाता था । मगर कुछ लोगो द्वारा पत्थर फेंकने से शेर क्रोधित हो गया और एक व्यक्ति को जान से हाथ धोना पड़ा। वेसे मिडिया अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाती है । अच्छे या बुरी हर घटना को को जन जन पहुचाने में मिडिया का बड़ा योगदान है । मिडिया लोकतंत्र का तीसरा स्तम्भ है । मिडिया में वो ताकत है जो ठान ले कर दिखा सकता है । एक बात जेहन में उठी की आज एक शेर के मानव भक्षण पर मिडिया ने इतना कवरेज दे दिया । जो मांसहारी प्राणी प्रकृति प्रदान है । पर एक मानव जो  मांसाहार का सेवन करता है । प्रकृति प्रदान नही है । प्रकृति ने मानव को मांसाहार की अनुमति तो प्रदान नही की है फिर भी मानव मांसाहार का सेवन करता है । कितनी निर्दोष गायो , मूक प्राणियों , मुर्गो , बकरों का वध किया जाता है । तो क्यों नही मिडिया इस बात को ज्यादा से ज्यादा विरोध दर्ज करके अपनी भूमिका निभाए । जैन धर्म व् हिन्दू धर्म में तो सभी जीवो को सन्मान दिया गया है । हिंसा तो आखिर हिंसा है । चाहे मानव की हो या मूक पशु की । आखिर बुद्धिजीवी समाज जब शिकार होता है तब कवरेज बताया जाता है और मूक पशु के लिए क्यों नही प्रतिबन्ध की मांसाहार प्रकृति प्रदत नही है । मानव किसी को मार कर अपना आहार नही बना सकता । यह विचार  मेरे अपने है । किसी को बाध्य करने के लिए नही । उत्तम जैन ( विद्रोही )