रविवार, 25 सितंबर 2016

आतंकी शासक का देश - पाकिस्तान


आज जगह जगह हमारी मातृ भूमि की रक्षा के लिए शहीद वीर जवानो को श्रदाजली दे रहे है ! हर भारतीय को उन शहीदो पर गर्व भी है ओर हम सब आहत भी हैं , क्रोधित भी हैं , लगता है युद्ध हो ही और युद्ध के अतिरिक्त कोई और रास्ता ही नहीं है ! ईट का जवाब पत्थर से दें, नामोनिशान मिटा दें. लेकिन क्षण में मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा कि सभी पाकिस्तानी तो खूंखार नहीं हैं. वहां हमारे जैसे अमन पसंद लोग भी तो रहते हैं. सारे मूसलमान आतंकवादी नहीं होता. अपने देश के मुसलमानों जैसे अमन पसंद मुसलमान तथा हिन्दू भी तो पाकिस्तान में रहते हैं. युद्ध से वे भी तो हताहत होंगे. आखिर वे तो अपने हैं जो अमन पसंद हैं तो अपनों का हत्या कैसे करें? वे भी तो दर्द में होंगे!समय की मांग या ब्रिटिश हुकूमत की चालाकी जो भी हो बंटवारा हो गया . लेकिन यदि नहीं हुआ होता तो संभवतः पाकिस्तान की ऐसी दुर्दशा नहीं होती. हम साथ-साथ होते तो हम अपने साथ उनकी भी उन्नति करते और एक थाली में खाते, एक खेत में पसीना बहाते और हम एक साथ होते तो पाकिस्तान को कोई गुमराह भी नहीं कर पाता. भाई फूटे , गंवार लूटे . हम से पाकिस्तान अलग हुआ और पाकिस्तान को चीन लूट रहा है! हमारा दुश्मन उनका दोस्त बन गया. हम साथ होते तो अमेरिका जैसी महाशक्ति भी हमारे आगे नतमस्तक होता.! पाकिस्तान सदा से भारत से शत्रुता करता रहा है ! हमारे निर्दोष जनता को अकारण मारता रहता है. आतंकियों का सरगना है पाकिस्तान अभी हाल में ही उड़ी में घिनौनी हरकत से हमारे जवान शहीद हो गए हैं. बिना कारण निर्दोष की हत्या कर दी इन पाकिस्तान के आतंकवादियों ने बंटवारे के समय पाकिस्तान वाले क्षेत्र से इधर आये लोगों से जब बातें होती है तो उनके चेहरे में अपने से बिछड़ने का दर्द मन को मर्माहत कर देता है. उनके अपनों के लिए व्याकुलता ,छटपटाहट , बेचैनी को व्यक्त करना असंभव है . कुछ महीने पूर्व की बात है , मैं मुंबई गया हुआ था बांद्रा से ठाणे के लिए टेक्सी पकड़ी टेक्सी ड्राइवर मुसलमान था बातो ही बातों ही ऐसे ही औपचारिकतावश पूछ बैठा कि आप यही के हैं , उसने कहा -जी हूँ तो यहीं का . लेकिन मेरे पिताजी लाहौर से आये हुए हैं , साहब ‘हम लोगों के अपने’ वहीँ हैं ,मेरे पिताजी आज भी अपने भाई से बिछड़ने का गम भूल नहीं पाए हैं ,हंसना तो दूर ठीक से मुस्कुराये भी नहीं है ,80 साल के हो गए हैं लेकिन ऐसा एक पल भी नहीं व्यतीत हुआ होगा जब वे अपने परिवार के लिए तड़पे न हों ,जिन्दा लाश के तरह हो गए हैं ,कल्पना भी करना कठिन है कि किस दर्द से समय काटा है ! उन लोगों ने ,किस्से , कहानियों में जो दिखाया गया है सत्य है ,लेकिन उन लोगों ने जो दर्द भुगता है उसको व्यक्त करना असंभव है . उसने कहा कि नेहरूजी ने 25 बीघे जमीन भी दिए ,सबको आश्रय भी दिए . मेरे कुछ संबंधी आज उन जमीन से धनवान हैं लेकिन मेरे पिताजी, भाई की याद में कुछ कार्य नहीं कर पाए और इस कारण जमीन भी सस्ते में बेच दी ! परिणामस्वरूप आज मैं टेक्सी चला रहा हूँ .लेकिन मेरे बच्चे अध्ययन कर रहे हैं उन सबको आर्मी ऑफिसर बनाऊंगा जो, अब जो मेरा देश है उसकी रक्षा करेगा, अमन से देश को रखेगा जिससे कभी भी भाई – भाई को अलग नहीं होना पड़े . पुनः उसने कहा एक बार मिलने की चाहत है . उसके अश्रुपूरित नयन को देखकर मैं व्यथित हो गया !तब तक मे भायखला पहुँच चुका था ! मुझे रानी बाग नजर आया टेक्सी जहा मुंबई मे कक्षा 6 मे पढ़ता था ओर पहली बार मुंबई मेरे बड़े पापा लेकर गए ओर मुझे घूमने के लिए उसी राणी बाग मे ले गए ! टेक्सी वाले को थोड़ी देर रुकने का बोला सोचा 33 वर्ष मे कितना परिवर्तन हुआ आज थोड़ी देर घूमकर देख लू ! थोड़ी देर रानीबाग मे घूमा चिड़ियाघर मे पक्षियों के मधुर कलरव को देखकर मैं सोचने पर विवश हो गया कि – ऐसे बेबस मानव से तो अच्छे ये पक्षी हैं ,कितने उन्मुक्त हैं ,इनके लिए न बॉर्डर है न वीजा कि आवश्यकता . आज़ाद होकर घुमते है और संध्या काल अपने नीड में अपने परिवार के संमीप लौट आते हैं . इन्हें न बिछड़ने का का दुःख है न अपनों के लिए घुटन . काश मानव भी आज़ाद पक्षी कि तरह होता जहाँ कोई बंदिश नहीं हो , सब मिलकर जीवन बिताये , किसी से कोई जुदा न होता. न बॉर्डर होता न पासपोर्ट और वीजा की जरूरत होती. कानून इस पृथ्वी का होता न की टूकड़ों में बँटे सीमाबद्ध देशों का ! मानव तो मानव है फिर कानून और देश अलग -अलग क्यों? ........ उड़ी की अमानवीय बर्बरतापूर्ण घटना देखकर मेरी भी इच्छा हुई कि युद्ध हो,सबक सिखायें पाकिस्तानियों को , लेकिन पुनः चेतना जग गयी कि किससे लड़ाई ? सभी तो अपने हैं ,सरहद पर भी तो हैं अपने ही .कुछ दरिंदो के कारण हम अपनों के ही रक्त पिपासु बन जाएँ ,आखिर जो दर्द पाकिस्तान से आये मानव को है वही दर्द तो ,वही तड़प तो यहाँ से गए हमारे बन्धु बांधव को होगा देश से से विलग होने का गम तो उन लोगों को भी होगा .भाइयों में बंटवारा तो वर्षो से होता रहा है ,जमीन जायदाद का बंटवारा होता है ,ह्रदय का तो नहीं ,दिल का तार तो जुडा ही रहता है .बापू की तो यही सोच रही होगी .उनकी जान भी ले ली हत्यारे ने, लाखों निर्दोष मारे गए ,फिर भी असामाजिक तत्वों को संतोष नहीं हुआ .आज भी दहशत फैलाये हुए हैं, हमारे निरपराध लोग मारे जा रहे हैं .कुछ पाकिस्तानी आतंक फैला रहा है , हम करें तो करें क्या ?....... अब भी अगर पाकिस्तान माफ़ी मांगे , आतंकबाद से अपने को अलग करे , आतंकियों को पनाह न दे और पाकिस्तानी लोगों को संदेश दे की भारत उनका भाई है उन पर कुद्रष्टि न रखे , कश्मीर भारत का है और इसका जिस भाग को वे रखे हुए हैं उन्हें लौटा दे तथा बलूच लोगों पर अत्याचार न करे तो पाकिस्तान भारत का मित्र बन सकता है.! भारतवासियों को अपना कुटुंब समझे , शत्रुता समाप्त कर दोस्ती करे , दोनों देश मिल कर रहे तो सारी दुनिया पर भारत-पाक का वर्चस्व होगा. हर पाकिस्तानी और हर भारतीय विकास की उच्चतम शिखर पर होगा. चीन यह नहीं चाहती और यही वजह है की चीन पाक को उकसाता रहता है अपना हथियार उसे बेचता है और दोनों देश को परेशान करता रहता है ! क्या आप को लगता है कि पाकिस्तान की अमन पसंद जनता सुखी है या उन्हें भरत पर थोपे गए आतंक वाद से ख़ुशी मिलती है? नहीं , उन्हें भी दुःख होता है लेकिन कुछ पाकिस्तानी मानव जो दानव बन चुके हैं और उनके हाथ में सत्ता की डोर है वे ही इस तरह के कुकृत्य में संलग्न हो कर सत्ता का सुख कायम रहे इस उद्देश्य से आतंक का सहारा लिए हुए हैं. विद्वेष की भावना ये सत्ताधारी धर्म का आड़ ले कर तथा राष्ट्रबाद के दिखावे के नाम पर वहाँ के मासूम जनताओं को भड़काने के लिए तथा अपने को सत्ता में रख पाने केलिए हथियार के रूप में प्रयोग कर उन्हें फिदायनी बनाते हैं. कोई भी धर्म आतंक का समर्थक नहीं है न हो सकता है. पर दुर्योधन और रावण तो हर युग में हुआ है ! पाकिस्तान में राक्षस का सत्ता है और भोले भाले लोगों को अपने सेना में शामिल किये हुए है. उनको मानव के अहित में प्रयोग किया जाता है. इतिहास देखें जिन्ना से लेकर भुट्टो तक और मुशर्रफ से लेकर नवाजशरीफ तक सभी एक ही मुद्दे को लेकर सत्ता धारी बने रहते है और उनका सबका एक ही नारा रहा -कश्मीर,भारत और भारत विरोधी देशों से मिलीभगत. यह स्पष्ट है कि यहाँ की जनता मासूम हैं पर यहाँ के शासक आतंकी है ! और उन्हें शासन में काबिज रहने हेतु आतंक का सहारा लेना पड़ता है.! अरे अब भी सम्भल जाओ उन दुराचारियों का संगत छोडो तथा अपने हितैषियों को पहचानो . इसमें देर हुई तो भारत कब तक सहन करेगा ? आज हमारे एक दिन उसे फैसला करना पड़ेगा ! और वो दिन ऐसा भी हो सकता है कि मात्र बंगलादेश जैसे टुकड़े न करके तुम्हारा नामों -निशान विश्व के मानचित्र से गायब कर दे.
जय हिन्द

सोमवार, 1 अगस्त 2016

धर्म का मर्म

धर्म का मर्म ---धर्म के विभिन्न विचारों पर चलकर हम धीरे-धीरे बड़े होते हैं। वहीं विचार हमारे मन में बस जाते हैं। लेकिन आजकल लगातार कई बार इसमें ह्रास देखा जा रहा है। हर व्यक्ति अपने धर्म को छोड़ कर दूसरे धर्म के प्रति अधिक आकर्षित होता है। पहले हमारे पूर्वजों ने जिन चीजों को दृष्टि में रखकर धर्म को महत्व दिया था, हम उससे बिल्कुल हटकर सोचते हैं। जैसा कि एक किसान का धर्म खेती करना है अगर उसी कार्य को वह निपुणता के साथ करे तो उसे उस कार्य में सफलता भी मिलेगी। हर व्यक्ति को अपने धर्म को समझना जरूरी होता है। अपने-अपनेे धर्म को समझकर उसी में रूचि के साथ कार्य करने से हमें सफलता जरूर मिल सकती है। साधारण तौर पर यह देखा गया है कि कई व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अपने धर्म और कर्म से अधिक दूसरों के धर्म और उनके कार्य लुभाते हैं। हम उनसे प्रेरित होकर वही करने बैठ जाते हैं। जबकि हमारी अपने धर्म के प्रति निष्ठा धीरे-धीरे कम होने लगती है और जिस कार्य को हम मन लगाकर करने बैठते हैं वही कार्य सुचारू रूप से कर भी पाते हैं। दूसरों के धर्म को अपमानित करना हमारा इरादा नहीं होना चाहिए। अपने धर्मपथ पर दृढ़ रहते हुए दूसरों के धर्म के प्रति समान सम्मान का भाव रखना चाहिये। देखा जाये तो जो व्यक्ति अपने धर्म का मर्म सही रूप से समझता है वही व्यक्ति दूसरों के धर्म के प्रति अपने दिल में समान सम्मान का भाव रख सकता है। कुछ अहंकारी व्यक्ति जिन्हें धर्मों, मर्यादाओं और संस्कारों के मोल का एहसास नहीं होता उनकी वजह से ही समाज में धर्म के नाम पर व्यभिचार व्याप्त होता है।
हम सभी धर्म रूपी शब्द में आस्था तो रखते है मगर धर्म का वास्तविक अर्थ उसका मर्म क्या है कभी समझने की कोशिश नही की मूल आज का विषय है - धर्म क्या है ? धर्म की क्या आवश्यकता है। (धर्म का मर्म) धर्म शब्द से क्या अभिप्राय है ? धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है। धृ का अर्थ है धारणा करना, संभाले रखना। धर्म की व्याख्या शास्त्रों में की गयी है ---
                        ‘परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीड़नम्’
अर्थात परोपकार करना ही पुण्य है और दूसरों को किसी भी भांति सताना और दुःखी करना पाप है। जो चीज सबको संभाले और मिलाए रखे-वही धर्म है। जिस बात से किसी को भी दुःख न पहुंचे वही धर्म है। धर्म के दस लक्षण है धैर्य, क्षमा, इन्द्रिय, दमन (निरहंकारिता), अस्तेय, पवित्रता, बुद्धि, विवेक, सत्य एवं अक्रोध।
हम सभी लोग अपने आपको धार्मिक कहलाना पसंद जरूर करते हैं, मगर अपनी आत्मा से ही कभी कभार पूछ लिया करें कि हम कितने धार्मिक हैं तो हमारी कलई अपने आप खुल जाएगी। धर्म-कर्म के नाम पर हम जो कुछ करते हैं उसका अधिकांश हिस्सा भगवान को रिझाने या दिखाने के लिए तो शायद ज्यादा कभी नहीं होता बल्कि लोक दिखाऊ संस्कृति का ही हिस्सा माना जा सकता है। हम जो कुछ साधना और धर्म-ध्यान, भजन-पूजन आदि करते हैं वह सब कुछ देवी या देवता के लिए करते हैं मगर प्रायः देखा यह गया है कि हम लोगों को देख कर अपने हाथ-होंठ और जीभ चलाते हैं। कोई हमें नहीं देख रहा हो तब कुछ भी नहीं करते या कि दूसरे-तीसरे विचारों में खोये रहते हैं अथवा अन्य कामों में मन लगाए रहते हैं। धर्म को हमने उपासना पद्धति ही मान लिया है जबकि धर्म का संबंध जीवनचर्या के व्यापक अनुशासन और वैश्विक सोच की उदारता से भरा है।   मन में राग द्वेष रख कर हम चले धर्म करने यह तो एक विडम्बना ही है ! धर्म हमें वसुधैव कुटुम्बकम् के सिदान्त को सिखाता है ! सच में देखा जाए तो  कहा भी गया है कि जो धर्म को धारण करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।कोई कितना ही साधन, भजन-पूजन, अनुष्ठान आदि कर ले, यज्ञ-यागादि, धार्मिक समारोहों आदि से लेकर मन्दिरों और मूर्तियों की प्रतिष्ठा में लाखों-करोड़ो रुपयों का दान कर दे, इसका कोई मूल्य नहीं है, यदि यह पैसा पवित्र नहीं है।यह मेरा मानना है ! धर्मानुरागी माने या न माने मुझे उससे कोई वास्ता नही! क्यों की
दुर्भाग्य से आजकल धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें अधिकांश पैसा दूषित आ रहा है। और साधू संत व् बाबाओं ने भी धर्म के नाम पर गंदे और प्रदूषित पैसे को शुद्ध करने का ऎसा भ्रम बना रखा है कि धर्म और कालेधन, पापधन, दूषित धन सब कुछ एक दूसरे का पर्याय हो गया है। हम सभी लोगों को भ्रम है कि कितनी ही काली कमायी कर लें, रिश्वतखोर बने रहें, भ्रष्टाचार से धन जमा करते रहें, उसका थोड़ा सा अंश धार्मिक कार्यक्रमों, मन्दिरों और पूजा-पाठ या बाबाओं, साधू के इंगित अनुसार उनके चरणों में समर्पित कर देने से उनके पाप धुल जाएंगे और अनाचार, अनीति से धनार्जन का पाप समाप्त हो जाएगा। यही वजह है कि देश में हर तरफ धर्म के नाम पर गतिविधियों की हमेशा धूम मची रहती है, हर दिन कोई न कोई आयोजन होता रहता है, इसके बावजूद न शांति स्थापित हो पा रही है, न संतोष। प्राकृतिक, दैवीय और मानवीय आपदाओं का ग्राफ निरन्तर बढ़ता ही चला जा रहा है। कहीं भूकंप आ रहे हैं, भूस्खलन हो रहा है, कही बाढ़ सूखा और दूसरी सारी समस्याएं बढ़ती ही चली जा रही हैं। इन सभी का मूल कारण यही है कि धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें शुचिता समाप्त हो रही है, प्रदूषित और पाप की कमायी लग रही है। जो कर रहे हैं वे भी, और जो करवा रहे हैं उनका भी धर्म से कोई वास्ता नहीं है बल्कि इन लोगों ने धर्म के नाम पर धंधा ही चला रखा है।यही कारण है कि भगवान भी इन लोगों की उपेक्षा कर रहा है और हम सभी मूर्खों को भी उपेक्षित कर रखा है जिन्हें धर्म के मूल मर्म से कोई सरोकार नहीं है।धर्म सदाचार, मानवीय मूल्यों, आदर्शाें और विश्व मंगल के लिए जीने का दूसरा नाम है। असली धर्म वही है जिसे देख, सुन और अनुभव कर हर किसी को प्रसन्नता का अनुभव हो, चाहे वह मनुष्य और, दूसरे कोई से प्राणी या जड़-चेतन जगत ही क्यों न हो। धर्म वह छत है जिसके नीचे कोई भेदभाव नहीं है बल्कि पूरी सृष्टि का भरण-पोषण और रक्षण करता है। हम सभी को चाहिए कि धर्म के मूल मर्म को आत्मसात करें और मानवीय मूल्यों से भरे-पूरे उन विचारों और कर्मों को अपनाएं जहाँ हर कोई एक-दूसरे से प्रसन्नता का अनुभव करे, मनुष्य-मनुष्य और जगत के हर प्राणी के बीच प्रेम, सात्विकता और पारस्परिक विकास की भावनाओं से भरा माहौल हो।
                                  -- किसी कवि ने धर्म के मर्म पर बहुत खूब लिखा ----
                                      आड़ लेकर धर्म की, सत्ता सुख की छांव
                                     अस्त्र लिए कोई हाथ में, कोई घुंघरू बांधे पांव !
                                     छुरी छुपी है हाथ में, मुख में लिए हैं राम
                                     कहीं धर्म का नाम ले, करते कत्लेआम!
                                    भोला बचपन विश्व में, भाले दिए हैं हाथ
                                   भरी जवानी आज देखो, छोड़ रहे हैं साथ!
                                   कराह रही इंसानियत, चीत्कार चहुं ओर
                                   धर्म हमारे मौन से, सत्ता का नहीं ठौर!!
                                  आज धर्म के मर्म को, समझ रहा है कौन
                                  कांव-कांव कौवा करे, कोयल बैठी मौन !!
                                  हम सबको दो हाथ मिले, करने को सद्काम
                                  एक हाथ से जेब भरी, एक हाथ में जाम !!
                                 नाम नहीं ले राम का, तब भी होंगे काम
                                रावण की गर राह चला, तब बिगड़ेंगे काम
                                                                                                                  उत्तम जैन (विद्रोही )
                                                                                                                  मो- 84607 83401      

सोमवार, 25 जुलाई 2016

बदलता बच्चो का परिवेश एक चिंतनीय





 
बदलता बच्चो का परिवेश एक चिंतनीय



मित्रों, आज बहुत दिनों से बच्चो के बदलते परिवेश को देखते हुए मानस पटल पर एक पीड़ा व् चिंतन उभर रहा है ! विचारों का प्रवाह किसी भंवर की तरह फिर मंथन कर रहा है शायद सारी बातें लिखना इतना आसान ना होगा फिर भी कोशिश है कि सम्पूर्ण विचारों का एक अंश मात्र ही लिख सकूँ तो बेहतर होगा आज इसी विषय पर लिखने बैठा हूँ मेरा लेखन व् पीड़ा तभी सार्थक होगी जब आप स्वय इस विषय पर चिंतन करेंगे अब मुख्य विषय पर ............!!
मैं और आप उस पीढ़ी है ! जिसने की कुछ स्वतंत्रता प्राप्ति के चंद वर्षो बाद में अपनी आँखें खोली और जो इस देश के साथ बड़े होते गए आज युवा से बुजुर्ग की और अग्रसर हो रहे है। मगर बात है कि देश जवानी के दौर में है। मेरी व् आपकी पीढ़ी वो पीढ़ी हे जो चिमनी व् लालटेन से कंप्यूटर तक की यात्रा की है। हमारी पूर्व पीढ़ी ने युद्ध और शांति के अध्याय पढ़े हैं।और हमारी पीढ़ी ने भ्रष्ट नेताओ और राशन की पँक्तियों में खड़ी ग़रीबी देखी है और आज चमचमाते मॉलों में, विदेशी ब्रांड के लिए नौजवानों की पागल भीड़ देख रही है। मगर आज के युवा के इस बदलते परिवेश को जब हम देखते है तो एक अलग अनुभूति होती है ! हमारे भारतीय सस्कृति में सयुंक्त परिवार प्रथा का प्रचलन प्राचीन काल से होता आया है ! जिसमे समस्त परिवार ,मुखिया के संचालन में ही संचलित होता था। परिवार के समस्त सदस्यों के कार्यो का विभाजन मुखिया के सहमत से ही होता था! परिवार के सभी सदस्य बिना किसी भेदभाव के एक ही छत के नीचे एक ही सांझे चूल्हे पर परिवार के वयोवृद्ध मुखिया की छत्र छाया में जीवनयापन करते थे। परन्तु आज के परिद्रश्य में हम उन्नत एवं प्रगति व विकास की दुहाई दे कर हम रिश्तों की उस खुशनुमा जिन्दगी को खोते जा रहे है और हम उस प्रथा को छोड़ने को मजबूर है। सयुंक्त परिवार मे अपने से बड़े व वृद्ध का मान ,सम्मान तथा उनकी भावनाओ को पूर्ण रूप से सम्मान दिया जाता था परन्तु आज के विकसित एकल परिवार में उक्त का विघटन होता जा रहा है एक दूसरे के प्रति प्रेम और सौहार्द तथा भाईचारे की भावना समाप्त होती जा रही है !यह एक चिंतनीय विषय है आज यदि अपने आसपास नज़र डाली जाये, आसपास ही क्यों यदि अपने घरों में भी झांका जाये तो साफ़ पता चल जाता है कि बच्चे अब बहुत बदल रहे हैं । हां ये ठीक है कि जब समाज बदल रहा है, समय बदल रहा है तो ऐसे में स्वाभाविक ही है कि बच्चे और उनसे जुडा उनका मनोविज्ञान, उनका स्वभाव, उनका व्यवहार सब कुछ बदलेगा ही। मगर सबसे बडी चिंता की बात ये है कि ये बदलाव बहुत ही गंभीर रूप से खतरनाक और नकारात्मक दिशा की ओर अग्रसर है। आज नगरों , महानगरों में न तो बच्चों मे वो बाल सुलभ मासूमियत दिखती है न ही उनके उम्र के अनुसार उनका व्यवहार। कभी कभी तो लगता है कि बच्चे अपनी उम्र से कई गुना अधिक या कहू हमसे ज्यादा परिपक्व हो गये हैं। ये इस बात का ईशारा है कि आने वाले समय में जो नस्लें हमें मिलने वाली हैं..उनमें वो गुण और दोष ,,स्वाभाविक रूप से मिलने वाले हैं , जिनसे आज का समाज खुद जूझ रहा है।बदलते परिवेश के कारण आज न सिर्फ़ बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से अव्यवस्थित हो रहे हैं बल्कि आश्चर्यजनक रूप से जिद्दी , हिंसक और कुंठित भी हो रहे हैं। जिसका नतीजा सामने है पिछले एक दशक में ही ऐसे अपराध जिनमें बच्चों की भागीदारी में बढोत्तरी हुई है। इनमें गौर करने लायक एक और तथ्य ये है कि ये प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा,शहरी क्षेत्र में अधिक रहा है। बच्चे न सिर्फ़ आपसी झगडे, घरों से पैसे चुराने, जैसे छोटे मोटे अपराधों मे लिप्त हो रहे हैं..बल्कि चिंताजनक रूप से नशे, जुए, गलत यौन आचरण,फ़ूहड और फ़ैशन की दिखावटी जिंदगी आदि जैसी आदतों में भी पडते जा रहे हैं। बच्चों मे आने वाले इस बदलाव का कोई एक ही कारण नही है। इनमें पहला कारण है बच्चों के खानपान में बदलाव। आज समाज जिस तेजी से फ़ास्ट फ़ूड या जंक फ़ूड की आदत को अपनाता जा रहा है उसके प्रभाव से बच्चे भी अछूते नहीं हैं। बच्चों के प्रिय खाद्य पदार्थों में आज जहां, चाकलेट, चाऊमीन, तमाम तरह के चिप्स, स्नैक्स, बर्गर, ब्रेड आदि न जाने में तो नाम व् स्वाद भी नही जानता शामिल हो गये हैं ! परिणाम स्वरुप कहावत है "जेसा खाए अन्न वेसा होए मन" वहीं, फ़ल हरी सब्जी ,साग दूध, दालें जैसे भोज्य पदार्थों से दूरी बनती जा रही है। इसका परिणाम ये हो रहा है कि बच्चे कम उम्र में ही मोटापे, रक्तचाप, आखों की कमजोरी,हर्दयाघात और उदर से संबंधित कई रोगों व् सबसे भयानक मधुमेह का शिकार बनते जा रहे हैं। भारतीय बच्चों मे जो भी नैतिकता, व्यवहार कुशलता स्वाभाविक रूप से आती थी, उसके लिये उनकी पारिवारिक संरचना बहुत हद तक जिम्मेदार होती थी। पहले जब सम्मिलित परिवार हुआ करते थे., तो बच्चों में रिश्तो की समझ, बडों का आदर, छोटों को स्नेह, सुख दुख , की एक नैसर्गिक समझ हो जाया करती थी। उनमें परिवार को लेकर एक दायित्व और अपनापन अपने आप विकसित हो जाता था। साथ बैठ कर भोजन, साथ खडे हो पूजा प्रार्थना जो अभी दुर्लभ हो गयी है ! पूजा पाठ का स्थान आज व्हट्स अप , फेसबुक ने ले लिया है ! सभी पर्व त्योहारों मे मिल कर उत्साहित होना, कुल मिला कर जीवन का वो पाठ जिसे लोग दुनियादारी कहते हैं , वो सब सीख और समझ जाया करते थे। आज इस बात पर में मुख्य रूप से चिंता जाहिर करता हु कि आज जहां महानगरों मे मां-बाप दोनो के कामकाजी होने के कारण या पिता सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से दूर भागते हुए रुपयों के पीछे भाग रहा है ! बच्चे दूसरे माध्यमों के सहारे पाले पोसे जा रहे हैं या पथ से भ्रमित हो रहे है , वहीं दूसरे शहरों में भी परिवारों के छोटे हो जाने के कारण बच्चों का दायरा सिमट कर रह गया है । इसके अलावा बच्चों में अनावश्यक रूप से बढता पढाई का बोझ, माता पिता की जरूरत से ज्यादा अपेक्षा, और समाज के नकारात्मक बदलावों के कारण भी उनका पूरा चरित्र ही बदलता जा रहा है । यदि समय रहेते इसे न समझा और बदला गया तो इसके परिणाम निसंदेह ही समाज व् परिवार के लिये आत्मघाती साबित होंगे।
उत्तम जैन विद्रोही
मो- ८४६०७८३४०१

शनिवार, 23 जुलाई 2016

एक विचारणीय विषय -राजनीति का धर्म या धर्म की राजनीति



एक विचारणीय विषय -राजनीति का धर्म या धर्म की राजनीति
वर्तमान समय में और विशेषकर भारत के धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक नेतागण, इस बात की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं कि धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिए. यह इस लिए प्रबल समस्या बन गई है कि राजनीति के काम में सब जगह धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म को राजनीति से जोड़ने की कोशिश करते हैं. ऐसा करने से उनके धर्म को बल मिलता है. और शक्ति से लोगों को विवश किया जाता है कि उनके धर्मों में अधिक से अधिक लोग आएं ताकि उस धर्म के अनुयायी अपनी इच्छा के अनुसार सरकार बना लें ! भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है यहाँ विभिन्न प्रकार के धर्म पाये जाते है और उन धर्मों के अनुसार भारतीय समाज में नाना प्रकार की परम्पराएं और प्रथाऐं प्रचलित हैं, इन सबमें भारतीय समाज, भारतीय साहित्य, सभ्यता और संस्कृति, भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति को एक बड़े पैमाने तक प्रभावित किया है। इस प्रभाव की विचित्रताओं, विशिष्टताओं और विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए यदि यह कहा जाये कि भारत विभिन्न धर्मों का अजायबघर है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लोकतान्त्रिक देश की राजनीती की और आपको लेकर चलू तो ‘धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं,और धर्म व् राजनीती का मूल सिद्दांत है - धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निन्दा करे। अब क्युकी हमारे देश मे दो प्रकार के भ्रम फल-फूल रहे हैं। कुछ लोग धर्म को गलत अर्थ निकालते हुये उसे सिर्फ और सिर्फ उपासना पद्धति से जोड़ते हैं। कुछ लोग राजनीति को गंदे लोगों के लिए सुरक्षित छोड़ देते हैं। धर्म का गलत अर्थ लेने की वजह से राजनीति भी गलत अर्थों मे ली जाती है परिणाम यह है कि राजनीति भी ‘धर्म’ की ही भांति गलत लोगों के हाथों मे पहुँच गई है। देश-हित,समाज-हित की बातें न होकर कुछ लोगों के मात्र आर्थिक-हितों का संरक्षण ही आज की राजनीति का उद्देश्य बन गया है। नेता का अर्थ है जो समाज, देश या वर्ग समूह का नेतृत्व करता है वह नहीं जो खुद का नेतृत्व करता है और सत्ता की कुर्सी पर बैठकर अपनी महत्वकांक्षा साधता हो। देश का नेतृत्व किसके हाथ में हो अब जनता तय करती है भ्रष्ट्राचारी, अपराधी , विश्वासघाती लोग ही इस देश का नेतृत्व करे, यही जनता चाहती है तो इनका चुनाव करने के लिए वह स्वतन्त्र है।धर्म गुरूओं द्वारा धर्म का जो वर्तमान स्वरूप बदला जा रहा है या कहे तो शब्दों का ताना-बुना कर अनुयायी के मन मे धर्म का जो बीजारोपण किया जा रहा है उस पर शायद ही किसी सच्चे अनुयायी को गर्व होना चाहिए। रही सही कसर हमारे राजनेताओं ने पूरी कर दी है। परिणामतः धर्म का अस्तित्व खतरे में नहीं है, वस्तुतः धर्म के कारण मानव समुदाय का अस्तित्व ही खतरे में है। यह बात किसी से छिपी नहीं है। दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ धर्म के कारण अस्थिरता, अराजकता एवं भय का वातावरण नहीं हो फिर भी बहुत कम लोग इस संबंध में बोलने का दुस्साहस करता है।आज राजनीती की स्थिति को हर कोई जानता है । सब के मुंह से एक ही बात सुनने को मिलती है की , राजनीती बड़ी गन्दी हो गई है। आज कोई राजनीती की और जाना पसंद नही करता !अगर यह बात सत्य है तो हमारे देश की व्यवस्था को , हमारे समाज को इस गन्दी नीती से क्यो चलाया जाय ? इस नीति को साफ़ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनाया जाय या फ़िर देश की व्यवस्था को किसी दूसरी व्यवस्था से चलाया जाय। राजनीती को कोसने या नेताओ को गालिया देने से क्या होगा ? अगर बात राजनीती को साफ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनने की करे तो प्रश्न उपस्थित होता है की , यह शुभ कार्य करेगा कौन ? अगर कोई करेगा नहीं तो हमे यह साफ-सुंदर स्वच्छ लोकतांत्रिक परिकल्पना को भी भुला देने की जरूरत है और हमे यह कहने का भी अधिकार नहीं की राजनीत बहुत गंदी हो गयी है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था, ‘मेरे लिए धर्म से अलग कोई राजनीति नहीं है। मेरा धर्म सार्वभौम और सहनशील धर्म है, अंधविश्वासो और ढकोसलों का धर्म नहीं। वह धर्म भी नहीं, जो घृणा कराता है और लड़ाता है। नैतिकता से विरक्त राजनीति को त्याग देना चाहिए.’ उनका यह विचार आज भी प्रासंगिक है, पर उनके नाम का इस्तेमाल करके सत्ता-सुख भोगने वालों ने इसे बहुत पहले त्याग दिया था. आज उनकी राजनीति अनैतिकता से भरपूर है। गांधी जी का यह विचार अब अप्रासांगिक हो गया है आज का धर्म ने अपना मूल स्वरूप त्याग कर समाज मे गलत व्यसन, कुकृत्य और धर्म को अधर्म मे परिवर्तन करने का स्वरूप बन कर रह गया है। अब धर्म राजनीति और राजनीति समाज देश को दिशा तो नही देता परंतु दोनों चेले-गुरु का दामन थाम अपनी अपनी स्वार्थ की रोटियाँ जरूर पक्का रहे है।यह तो जनता का सरोकार है अधिकार है बोलने की आज़ादी है राजनेताओं को चुनने का हक़ है आख़िर बार-बार हर बार जनता एक मौक़ा और क्यों दे ताकि वह अपनी रही-सही महत्वकांक्षा भी पूर्ण कर सकें। अब तो अपने सरोकार के लिए, अपने आने वाले भविष्य के लिए आवाज़ बुलंद करनी होगी और कहना होगा, ‘अब यह नहीं चलेगा’ ।हम जिस दौर में जी रहे है, उस दौर मे हंस के टाल देने वाली बातो पर हमारा खून खौल उठता है और जिन बातो पर वाकई हमारा खून खौलना चाहिए, उन्हें हम बेशर्मी से हंस के टाल देते है।आज जरुरत है धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।’’ धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट होते हैं, इस अविवेकपूर्ण मिलन से साम्प्रदायिक कट्टरता जन्म लेती है। धर्म और राजनीति को अलग रखने का सबसे बड़ा मतलब यही है कि साम्प्रदायिक कट्टरता से बचा जाय। राजनीति के दण्ड और धर्म की व्यवस्थाओं को अलग रखना चाहिए नहीं तो, दकियानूसी बढ़ सकती है और अत्याचार भी। लेकिन फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति सम्पर्क न तोड़े बल्कि मर्यादा निभाते हुए परस्पर सहयोग करें। तभी धर्म एवं राजनीति के विवेकपूर्ण मिलन से एक आदर्श व् उन्नत समाज और उज्जवल राष्ट्र का निर्माण होगा !
उत्तम जैन ( विद्रोही )
मो-८४६०७८३४०१

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

कन्या भ्रूण हत्या एक अभिशाप

                                                                 कन्या भ्रूण हत्या एक अभिशाप


                     
                                
                                       

                                  मेरी हत्या न करो माँ
                                 मैं तेरा ही अंश हूँ माँ
                                 पिताजी को समझा दो माँ
                                पिताजी को मना लो माँ
 
 
 
 
कन्या भ्रूण हत्या के रूप में हम अपनी जल्लाद मानसिकता के साथ सांस्कृतिक पतन की सूचना संसार को दे रहे हैं। यह महापाप है। अक्सर इसके लिए स्त्रियों को जिम्मेदार ठहराकर "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है" वाला रटा रटाया फार्मूला सुनते है। सच तो यह है कि हम पुरुषो ने भ्रूणहत्या में अपने दोष को कभी देखा ही नही या देखकर खुद को नजर अंदाज कर दिया है ! पुरुष प्रधान भारतीय समाज में सक्षम स्त्री भी हर फैसले के लिए पुरुष का मुंह ताकती हैं। वह प्रणय क्रीड़ा में सहभागी होना चाहती है या नहीं, गर्भ निरोधक इस्तेमाल करे या ना करे, कितने बच्चों को कब जन्म दे, वे लड़के होंगे या लड़कियां, उन्हें शिक्षा कहां और कितनी देनी हैं- ये सब पुरुष तय करता है। जहां स्त्री का अपनी देह पर अधिकार नहीं होगा वहां कन्या भ्रूण हत्या तो होगी ही। अधिकांश मामलों में स्त्री विवश कर दी जाती है और न करने की स्थिति में उसका जीना हराम कर दिया जाता है। कन्या भ्रूण हत्या के लिए पुरुष ही पूर्णत: जिम्मेदार हैं। मरने के मुखाग्नि देने, तर्पण करने, वंशवृद्धि और संपत्ति के उत्तराधिकार के लिए कुलदीपक" अर्थात् पुत्र की चाह होती है। चाहे उसके कारनामे कुल-काजल क्यों न हों। पुरुष, पुत्रजन्म को अपनी मर्दांनगी से जोड़ते हैं। कन्या भ्रूण हत्या 21वीं सदी के माथे पर कलंक है। स्त्री के अस्तित्व को गर्भ में ही नष्ट करने का कुकृत्य हो रहा है। "प्राइवेट क्लिनिक" कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं जो समाज की इस रुग्ण मानसिकता को अपने हक में भुनाकर चांदी काट रहे हैं। मुख्यतया सभी समाज में तो दुल्हनें अन्य समाज से "आयात" करनी पड़ रही हैं। कही परिवार तो ऐसे जहां राखी बांधने के लिए बहनें ही नहीं हैं।
स्त्री पुरुषों का अनुपात, खतरनाक रूप से असन्तुलित हो चुका है। प्रकृति के साथ यह क्रूर मजाक समाज पर ही भारी पड़ रहा है। जिस समाज की नैतिक चेतना सदियों से कुभकर्णी नींद में हो, उसे जगाने के लिए आज पुन: ढोल-नगाड़ों की जरूरत है। केवल कानून बनाना जरूरी नहीं, उसे सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। गैरसरकारी सामाजिक संगठनों से भी सन्देश पहुंचना चाहिए। शिक्षक ही नहीं, धर्म गुरु भी इसमें अपनी भूमिका तय करें, शास्त्रों में ईश्वर को "त्वं स्त्री" कहकर नारी रूप में आराधना की गई हैं, क्योंकि नारी अपनी सीमाओं में संपूर्णता की वाहक है।सामाजिक रूढ़ियां, पूर्वाग्रह, दहेज, शिक्षा-ब्याह पर होने वाला खर्च (क्योंकि लड़की को दूसरे घर जाना होता है) और असामाजिक आचरण से उसकी रक्षा, ऐसे कई कारण हैं जो कन्या भ्रूण हत्या के गर्भ में हैं। कन्या को मार दो और जिन्दगी भर के लिए बिंदास हो जाओ- पर इस नीच वृत्ति के लोग यह नहीं सोचते कि उनकी अगली पीढ़ी को शादी के लिए लड़कियां कहां से मिलेंगी। वे स्वयं भी तो किसी स्त्री से जन्मे हैं। कन्या भ्रूण हत्या के रूप में वे आत्मघात ही कर रहे हैं।
हमें बेटी को पराया धन और बेटे को कुल दीपक की मानसिकता से ऊपर उठने की जरूरत है। यह सोचा जाना भी आवश्यक है कि भ्रूण हत्या करके हम किसी को अस्तित्व में आने से पहले ही खत्म कर देते हैं। आज के दौर में बेटीयां बेटे से कमतर नहीं है। इस गलत परम्परा को रोकने के लिये हम सभी को मिलकर तेजी से अभियान चलाना होगा। सरकारी सहयोग की अपेक्षा हमें नही करनी चाहिये। इस मामले में कानून भी लाचार सा ही दिखता है। जाँच सेन्टरों के बाहर बोर्ड पर लिख देने से कि "भ्रूण जाँच किया जाना कानूनी अपराध है।" उन्हें इसका भी लाभ मिला है। जाँच की रकम कई गुणा बढ़ गई। रोजाना गर्भपात के आंकड़े चौकाने वाले बनते जा रहे हैं, चुकिं भारत में गर्भपात को तो कानूनी मान्यता है, परन्तु गर्भाधारण के बाद गर्भ के लिंक जाँच को कानूनी अपराध माना गया है। यह एक बड़ी विडम्बना ही मानी जायेगी कि इस कानून ने प्रचार का ही काम किया। जो लोग नहीं जानते थे, वे भी अब गर्भधारण करते वक्त इस बात की जानकारी कर लेते हैं कि किस स्थान पर उन्हें इस बात की जानकारी मिल जायेगी कि होने वाली संतान नर है या मादा। धीरे-धीरे लिंगानुपात का आंकड़ा बिगड़ता जा रहा है। यदि समय रहते ही हम नहीं चेते तो इस बेटे की चाहत में हर इंसान जानवर बन जायेगा। भले ही हम सभ्य समाज के पहरेदार कहलाते हों, पर हमारी सोच में भी बदलाव लाने की जरूरत है !
उत्तम जैन(विद्रोही)
uttamvidrohi121@gmail.com
mo-8460783401
नोट - मेरे इन विचारो से आप अगर प्रभावित है ! और इन विचारो से आप सहमत है तो बिना कांट छांट किये व् लेखक का नाम हटाये बिना श्योसल मिडिया ( व्ह्ट्स अप , फेसबुक , ट्विटर , अपने समाचार पत्रों में जरुर स्थान दे / फोरवर्ड करे ! अगर कुछ दो चार महानुभाव भी भ्रूण हत्या नही करेगे तो मेरा लेखन सफल हो जायेगा !    

वर्तमान की शिक्षा प्रणाली - मेरा दर्द




               वर्तमान की शिक्षा प्रणाली - मेरा दर्द


        देश को बदलना है तो शिक्षा का प्रारूप बदलो
आज एक पुस्तक पर मेरी नजर पड़ी जिसमे लिखा था --जिस शिक्षा से हम अपने जीवन का निर्माण कर सके , मनुष्य बन सके , चरित्र गठन कर सके और विचारो का सामंजस्य कर सके वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है ... स्वामी विवेकानन्द की यह पंक्तिया आज मेने एक जब पढ़ी कुछ दिनों पूर्व की शिक्षा से जुडा मेरा मानसिक तनाव कहू या या मेरी शिक्षा की वर्तमान प्रणाली पर मेरा चिंतनीय विषय ने मुझे लिखने को मजबूर कर दिया ! क्यों की चंद दिनों पूर्व ही मेरा पुत्र 12 वि में वाणिज्य संकाय में गुजरात बोर्ड में अपेक्षितअंको/ प्रतिशत से कम 51 प्रतिशत ही प्राप्त कर पाया ! मे व् मेरे पुत्र को मानसिक तनाव तो परिणाम आने के बाद बढ़ ही गया था क्यों की मेरा पुत्र B.B.A में दाखला लेना चाहता था मगर परिणाम के प्रतिशत को देखते हुए वीर नर्मद यूनिवर्सिटी से पहले व् दुसरे चक्र में उसका नाम किसी महाविद्यालय में नामित नही हुआ ! वर्तमान में आज के हताश विद्यार्थी के आत्महत्या के किस्से सुन में डर के मारे अपने पुत्र को प्रतिदिन होंसला देता रहता था चिंता न करो दाखला हो जायेगा ! पुत्र को चिंतित देख में खुद मानसिक तनाव में था ! खुद पहुच गया स्वयं निर्भर(सेल्फ फायनेंस ) महाविद्यालय में जहा दूसरी यूनिवर्सिटी से M.M.A नामक कोई कोर्स जिसे 5 वर्ष में पूर्ण करने पर B.B.A व् M.B.A की ऐसी ही कुछ डिग्री मिलेगी ! मरता क्या न करता दाखला लेने को तेयार हुआ और मुझे बताया गया 1 लाख डोनेशन प्रवेश के लिए व् प्रति सेमेस्टर (छह माह ) फीस ३१५०० /- भुगतान करना पड़ेगा ! मुझ जेसे साधारण व्यक्ति के सामने आँखों के आघे अँधेरा छा गया ! मुह लटकाकर बिना कुछ बोले जेहन में एक दर्द लेकर बाहर निकला ! अब मानस पटल पर मेरे विचार शिक्षा पर आये प्रेषित ----
शिक्षा का व्यवसायीकरण या बाजारीकरण आज देश के समक्ष बड़ी चुनौती हैं !
किसी भी समस्या का समाधान चाहते है तो उसकी जड़ में जाने की आवश्यकता होती है। शिक्षा में वर्तमान का व्यवसायीकरण का कारण क्या है? उसका समाधान क्या हो? कुछ लोग ऐसा भी तर्क देते है कि शिक्षा का विस्तार करना है या सर्वसुलभ कराना है तो मात्र सरकार के द्वारा संभव नहीं है, निजीकरण आवश्यक है और जो व्यक्ति शिक्षा संस्थान में पैसा लगायेगा वह बिना मुनाफे क्यों विद्यालय,महाविद्यालय खोलेगा?यह तर्क भी बिल्कुल सही है कुछ लोग इससे भी आगे बढ़कर कहते है कि देश की शिक्षा का विस्तार एवं विकास करने हेतु विदेशी शैक्षिक संस्थाओं के लिए द्वारा खोलने चाहिए। वैश्वीकरण के युग में इसको रोका नहीं जा सकता आदि प्रकार के विभिन्न तर्क दिये जा रहे है। यह सारे तर्क तथाकथित सभ्रांत वर्ग के द्वारा ही दिये जाते है। अगर मुख्य मुद्दे पर नजर डाली जाये तो पूर्व में शैक्षिक संस्थाए या तो सीधे तोर पर सरकार चलाती थी या सरकार के अनुदान से संस्थाएं चलती थी। विद्यार्थियों का निष्चित शुल्क शिक्षकों का निष्चित वेतन एवं संस्था चलाने हेतु अनुदान जैसी व्यवस्थाए बनी।
कुछ समय के बाद सरकारी शैक्षिक संस्थाओं के स्तर में लगातार गिरावट आती गई। इस कारण से निजी विद्यालयों का आकर्षण बढ़ा शुरू में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में वस्तुओं के रूप में दान लेना शुरू हुआ। आगे जाकर छात्र से बड़ी मात्रा में दान लेना, शिक्षकों की निुयक्ति में पैसा लेना और कम वेतन देना शुरू हुआ। विद्यालयों में शिक्षा के स्तर गिरने से ट्यूशन प्रथा प्रारम्भ हुई। क्रमशः शिक्षा का स्वरूप धन्धे जैसा बनने लगा।यह सब कार्य शासन-प्रशाासन एवं शिक्षा माफियाओं की मिलीभगत से होने लगे। जिसका आज इस प्रकार विभत्स स्वरूप बन गया कि शिक्षा यह सब्जी मंडी का बाजार जैसे हो गई है । आज अराजकता का माहौल है। शुल्क न भर सकने के कारण छात्र आत्महत्याएं कर रहे है। अभिभावक इस हेतु गलत कार्य करने को मजबूर है। एक प्रकार से व्यवसायिक उच्च-शिक्षा उच्च मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग को छोड़कर अन्य किसी भी वर्ग के बस की बात नही रही। प्रष्न उठता है इस प्रकार के लगभग 20 प्रतिशत वर्ग को छोड़कर 80 प्रतिशत वर्ग के बच्चे प्रतिभावन नहीं है क्या? इससे देश की प्रतिभाएं भी कुठित हो रही है। इन सारी परिस्थितियों के कारण वर्तमान में शिक्षा का मात्र बजारीकरण नहीं हुआ है। एक प्रकार से अतिभ्रष्ट व्यापार हो गया है। इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र किस प्रकार के निर्माण होगे? और इस प्रकार के छात्र देश के विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व करेंगे तब देश का चरित्र कैसा बनेगा? यह बड़ा प्रश्न है। देश में भ्रष्टाचार, अनाचार, चरित्र-हीनता बढ़ रही है उसकी चिंता करने से कुछ परिणाम नहीं होगा। जब तक शिक्षा का बाजारीकरण नहीं रूकेगा तब तक बाकी सारी गलत बातें बढ़ना स्वाभाविक है। देश की सभी समस्याओं की जड़ वर्तमान शिक्षा है। इसके लिए कुछ मेरे समाधान हेतु सुझाव की शिक्षा प्रणाली केसी हो -शिक्षा के व्यापारीकरण, बाजारीकरण को रोकने हेतु केन्द्र सरकार कानून बनाये।
1. शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार पर रोक लगे।
2 .विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भारत के शैक्षिक संस्थानों से भी कड़े कानून हो। उनका प्रत्ययायन एवं मूल्यांकन उस देश में तथा भारत में भी हो ।
अपने देश की विशेषकरके सरकारी शैक्षिक संस्थानों की गुणवत्ता सुधार हेतु ठोस योजना बनें।
३. उच्च शिक्षा विशेषकरके व्यवसायी उच्च शिक्षा को मात्र निजी भरोसे पर न छोड़ा जाए। सरकार के द्वारा भी नये शैक्षिक संस्थान शुरू करने की योजना बनें।
शिक्षा की भारतीय संकल्पना को पुनः स्थापित करने हेतु प्रयास किये जाएं।
शिक्षा मात्र सरकार का दायित्व न होकर समाज भी अपने दायित्व का निर्वाह करें।..... सुझाव तो बहुत है मगर सिर्फ ३ सुझाव पर भी ध्यान दे दिया जाये तो शिक्षा जगत में काफी परिवर्तन हो सकता है
उत्तम जैन (विद्रोही )
मो- ८४६०७८३४०१

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

जैन समाज कि एक कुरीति- आरती

जैन समाज कि- एक कुरीति आरती
जैन समाज के मुख्य दो घटक है श्वेतांबर व दिगंबर इन दो घटको मे भी कही पंथ है जेसे श्वेतांबर संप्रदाय मे मूर्तिपूजक , तेरापंथी , स्थानकवासी व दिगंबर संप्रदाय मे तेरापंथी , बीसपंथी व अन्य काफी पंथ मुझे ज्ञात नही की इन पंथो की रचना कब व केसे हुई ! मगर स्वाभाविक रूप से पंथो की रचना कुछ धर्म गुरुओ के आपसी विचारधारा मे मतभेद होने से ही हुई होगी ! खेर मुझे इस विषय पर आज चर्चा नही करनी की ये पंथो का विस्तार केसे हुआ ! आज मुख्य मेरी विचारधारा दीपक से आरती की जाती है क्या जैन धर्म जो अहिंसा के मूल सिदान्त को मानता है उपयुक्त है या नही ! मेरी सोच से दीपक से आरती करना जैन सिद्धांत के अनुकूल नहीं है ! आरती के लिए रात्रि में दीपक जलाना पड़ता है ! जो किसी भी तरह से उचित नहीं है ! रात्रि का समय तो सामायिक का है ! सामयिक के समय को टालकर उसको आरती के काम में लगाना किसी शास्त्र से सिद्ध नहीं होता ! मच्छर/कीट/पतंगे इत्यादि चतुरिंद्रिय जीव प्रकाश के व्यसनी होते हैं वे आकर्षित होकर दीपक की लौ की ओर खिंचे चले आते हैं, और मृत्यु को प्राप्त होते हैं !अब कोई कहे कि घर में खाना बनाते हैं, या रौशनी करते हैं, उसमे भी तो जीवों का घात होता है, फिर मंदिर के कार्य में क्यों टोकते हो ?मेरे मंतव्य से
घर के कार्यों में धर्म का अनुसरण नहीं होता है, किन्तु आरती से जो जीवों का घात होता है वह धर्म के नाम पर होता है ! अतः आरती करना किसी विज्ञ और दयालु पुरुष का ध्येय नहीं हो सकता !
"देव धर्मतपस्विनाम् कार्ये महति सत्यपि !
जीव घातो न कर्तव्यः अभ्रपातक हेतुमान !!
याने,
देव, धर्म और गुरुओं के निम्मित भी महान से महान कार्य पड़ने पर जीव घात नहीं करना चाहिए ! जो इसकी परवाह नहीं करते वे जिनेन्द्र भगवान के वचन रूपी चक्षुओं से रहित हैं !जीव-घात नियम से ही नरकादि गतियों में ले जाने वाला है !और ऊपर से अगर धर्म मान कर ऐसा कार्य किया जाए तो उसमे "मिथ्यात्व' का दोष भी जोड़ लें, जो कि अनंत संसार का मूल कारण है ! अन्य स्थानों में किया गया पाप मंदिरजी जाकर कट जाता है, किन्तु धर्मस्थान में किया हुआ पाप, वज्र लेप समान है ! जिसे कोई नहीं काट सकता !
याद रखें :- आरती का सम्बन्ध दीपक से कदापि नहीं है !
आरती का अर्थ केवल स्तुति और गुणगान से ही है, उसके अलावा कुछ भी नहीं !
- अब कोई कहे की मंदिरजी में बड़े-बड़े बल्ब/लाइट/जनरेटर जलते हैं रात में तो उससे भी तो तीव्र हिंसा होती है ! इसके २ समाधान बनते हैं :-
१ - आज के भौतिकवादी हो चुके समाज में श्रावकों की इतनी श्रद्धा नहीं रही जैसी पहले हुआ करती थी ! यह पंचम काल का प्रभाव ही है कि यदि मंदिरों में बल्ब नहीं जलाये तो स्वाध्याय तो दूर मंदिरजी आने-जाने का क्रम भी लुप्त हो जाएगा!
जबकि विवेकवान पुरुष तो रात्रि के समय में सब आरम्भ-परिग्रहों से विरक्त होकर सामायिक आदि क्रियाओं में लग जाते हैं !
दूसरा और सबसे मुख्य तथ्य
२ - मंदिरजी में बल्ब/लाइट जलाना धर्म नहीं माना जाता, किन्तु दीपक जलकर आरती करने को लोग धर्म मानते हैं, और उल्टी/विपरीत मान्यता होने के कारण मिथ्यात्व ही है ! हमे विवेक का परिचय करते हुए, इस प्रचलित प्रथा को सही दिशा देने का प्रयास करना चाहिए तथा रूढ़िवाद, अज्ञानता और पक्षपात को छोड़कर जैसा भगवान ने बतलाइं वैसी ही क्रियाएँ करनी चाहिए !
- पर्वों/आयोजनों में 108,1008 दीपकों से महाआरती की जाती है !
- कभी कभी सुनता हु अमुक महाराज जी की 25,000 दीपकों से महाआरती की जाएगी ! कल्पना से परे हैं ऐसे भक्त और ऐसे मुनि ... - जहाँ "अहिंसा परमो धर्म" बताया है, वहां हिंसा का अनुसरण करती हुई किसी क्रिया को कोई साधु या कोई श्रावक कदापि नहीं कर सकता ! किन्तु फिर भी बहुत कर रहे हैं ! पंचम काल प्रभावी हो रहा है ! - अखंड ज्योत जलाना भी मूढ़ता है ! वैष्णव परंपरा की नकल मात्र है ! कृपया विवेक से काम लें !!! जो पहले से होता आ रहा है ज़रूरी तो नहीं कि वो सही ही हो ! वेसे श्वेतांबर परंपरा के तेरापंथ , स्थानकवासी परंपरा मे मूर्ति पुजा को मान्यता नही है ! साधना , स्वाध्याय बिना पुजा के भी संभव है ! जैन समाज के साधू , संतो , आचार्यो , श्रावकों को इस गहन विषय पर विचार करना चाहिए ! क्या आरती , द्रव्य पुजा , अभिषेक आदि से हिंसा तो नही हो रही है जो जैन धर्म का मूल सिदान्त है ! जैन समाज को आज सिर्फ हिंदुस्तान ही नही विश्व मे अहिंसक के रूप मे जाना जाता है ! जहा अहिंसा परमो धर्म का ध्वज फहराया जाता है !
उत्तम जैन 

शनिवार, 9 जुलाई 2016

जैन धर्म और अहिंसा

   
                              जैन धर्म ओर अहिंसा
हमारे भारत देश में अनेक धर्म प्रचलन में है लेकिन सब में, सब से अलग अहिंसा और सत्य पर आधारित जैन धर्म प्राचीन धर्मो में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, क्युकी इस धर्म के जरिये देश दुनिया में एक सन्देश जाता है और इस धर्म के मूल आधार पञ्च महाव्रत के नियमो का कोई विरोद्ध भी नहीं कर सकता !

यह पंचमहाव्रत-
1: अहिंसा: जैन धर्म में अहिंसा संबंधी सिद्धान्त प्रमुख है। मन, वचन तथा कर्म से किसी के प्रति असंयत व्यवहार हिंसा है। पृथ्वी के समस्त जीवों के प्रति दया का व्यवहार अहिंसा है। इस सिद्धांत के आधार पर ही जियो और जीने दो का सिद्धांत परिकल्पित हुवा है |
2: सत्य: जीवन में कभी भी असत्य नहीं बोलना चाहिए। क्रोध व मोह जागृत होने पर मौन रहना चाहिए। जैन धर्म के अनुसार भय अथवा हास्य-विनोद में भी असत्य नहीं बोलना चाहिए।
3: अस्तेय: चोरी नहीं करनी चाहिए और न ही बिना अनुमति के किसी की कोई वस्तु ग्रहण करनी चाहिए।
4: अपरिग्रह: किसी प्रकार के संग्रह की प्रवृत्ति वर्जित है। संग्रह करने से आसक्ति की भावना बढ़ती है। इसलिए मनुष्य को संग्रह का मोह छोड़ देना चाहिए।
5: ब्रह्मचर्य: इसका अर्थ है इन्द्रियों को वश में रखना। ब्रह्मचर्य का पालन संतो के लिए अनिवार्य माना गया है। क्युकी ये मानवता के लिए उनके मूल स्वरुप को सात्विक बनाये रखने के लिए एक मजबूत आधार है!
जैन धर्म के अनुसार ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है। सृष्टि अनादि काल से विद्यमान है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के अनुसार फल भोगते हैं। कर्म फल ही जन्म-मृत्यु का कारण है। कर्म फल से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है। जैन धर्म में संसार दुखमूलक माना गया है। दु:ख से छुटकारा पाने के लिए संसार का त्याग आवश्यक है। कर्म फल से छुटकारा पाने के लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक बताया गया है। त्रिरत्न: सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन व सम्यक आचरण जैन धर्म के त्रिरत्न हैं। सम्यक ज्ञान का अर्थ है शंका विहीन सच्चा व पूर्ण ज्ञान। सम्यक दर्शन का अर्थ है सत् तथा तीर्थंकरों में विश्वास। सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुख-दु:ख के प्रति समभाव सम्यक आचरण है। जैन धर्म के अनुसार त्रिरत्नों का पालन करके व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो सकता है और मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। त्रिरत्नों के पालनार्थ आचरण की पवित्रता पर विशेष बल दिया गया है। जैन धर्म अनादिकाल से अहिंसा का समर्थक रहा है अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन मे किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वारा भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है| जैन धर्म में अहिंसा का बहुत महत्त्व है। अहिंसा परमो धर्म: - अहिंसा परम (सबसे बड़ा) धर्म कहा गया है। आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने भारत की आजादी के लिये जो आन्दोलन चलाया वह काफी सीमा तक अहिंसात्मक था। जब कभी ' अहिंसा ' पर चर्चा होती है , भगवान बुद्ध, भगवान महावीर और महात्मा गांधी को याद किया जाता है। अक्सर देखा गया है कि धर्म प्रवर्तक उपदेश तो देते हैं , लेकिन खुद वे उन पर चल नहीं पाते। यह बात महावीर , बुद्ध व गांधी पर लागू नहीं होती। इन तीनों ही युग पुरुषों ने अहिंसा के महत्व को समझा , उसकी राह पर चले और इसके अनुभवों के आधार पर दूसरों को भी इस राह पर चलने को कहा। अहिंसा की पहचान उनके लिए सत्य के साक्षात्कार के समान थी। अपने युग में यज्ञों में होने वाली हिंसा से महावीर के मन को गहरी चोट पहुंची , इसलिए उन्होंने अहिंसा का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इसके प्रचार के लिए उन्होंने श्रमणों का संघ तैयार किया , जिन्होंने मनुष्य जीवन में अहिंसा के महत्व को बताया। सामान्यत: अहिंसा का अर्थ किसी प्राणी की मन , वचन व कर्म से हिंसा न करना होता है। आदमी में अनेक बुराइयां पाई जाती हैं , जिनकी गिनती करना असंभव है। इन बुराइयों की जड़ में मुख्य पांच दोष मिलेंगे। बाकी सभी दोष इन्हीं से पैदा होते हैं। ये दोष हैं चोरी , झूठ , व्यभिचार , नशाखोरी व परिग्रह यानी धन इकट्ठा करना। इन्हीं बुराइयों के कारण मनुष्य न जाने और किन-किन बुराइयों में लगा रहता है। हिंसा इनमें सबसे बड़ी बुराई है। हिंसा , अहिंसा की विरोधी है। इसका अर्थ सिर्फ किसी प्राणी की हत्या या उसे शारीरिक चोट पहुँचाना ही नहीं होता। महावीर ने इसका व्यापक अर्थ किया कि यदि कोई आदमी अपने मन में किसी के प्रति बुरी भावना रखता है , बुरे व कटु वचन बोलता है , तो वह भी हिंसा ही करता है। सभी प्राणी जीना चाहते हैं , अहिंसा उनको अमरता देती है। अहिंसा जगत को रास्ता दिखाने वाला दीपक है। यह सभी प्राणियों के लिए मंगलमय है। अहिंसा माता के समान सभी प्राणियों का संरक्षण करने वाली , पाप नाशक व जीवन दायिनी है। अहिंसा अमृत है। इस प्रकार महावीर ने अहिंसा की व्याख्या की।
उत्तम जैन विद्रोही
uttamvidrohi121@gmail.com
मो -8460783401

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

जीवन को सुख से जीने की कला

                                                      जीवन को सुख से जीने की कला
जीवन एक यात्रा के सजब सपने हमारे हैं तो कोशिशें भी हमारी होनी चाहिए। जब पहुंचना हमें है तो यात्रा भी हमारी ही होनी चाहिए। पर सच तो यह है जीवन की यह यात्रा सीधी और सरल नहीं है इसमें दुख हैं, तकलीफें हैं, संघर्ष और परीक्षाएं भी हैं। ऐसे में स्वयं को हर स्थिति-परिस्थिति में, माहौल-हालात में सजग एवं संतुलित रखना वास्तव में एक कला है। इसे सफलता से जीना एक कला है. अपने उत्साह और दूसरों की प्रशंसा करने का मौका कभी नहीं छोड़ना चाहिए.! जीवन जीना भी एक कला है अगर हम इस जीवन को किसी Art-Work की तरह जिए तो बहुत सुन्दर जीवन जिया जा सकता है ! वर्तमान में जब चारों ओर अशांति और बेचैनी का माहौल नजर आता है । ऐसे में हर कोई शांति से जीवन जीने की कला सीखना चाहता है । जीवन अमूल्य है ! जीवन एक यात्रा है ! जीवन एक निरंतर कोशिश है ! इसे सफलता पूर्वक जीना भी एक कला है ! जीवन एक अनंत धडकन है ! जीवन बस एक जीवन है ! एक पाने-खोने-पाने के मायाजाल में जीने और उसमे से निकलने की बदिश है ! इसे किस तरह जिया जाये कि एक सुखद, शांत, सद्भावना पूर्ण जीवन जीते हुये, समय की रेत पर हम अपने अमिट पदचिन्ह छोड़ सकें ? प्रतिदिन हम सुबह शाम तक ही नही बल्कि देर रात तक हमारे मित्र अनर्गल वार्तालाप, अनर्गल सोच विचार, करते रहते है, ऑफिस में सहकर्मियों से, दोस्तों से, बाजार में दुकानदार, घर में परिवार के सदस्यों से कंही मतभेदतो कही मनभेद करते है क्यों ? क्‍या आपने कभी यह सोचा है कि - जीवन का उद्देश्य क्या है ? क्या है यह जीवन ? इस तरह के प्रश्न बहुत कीमती हैं । जब इस तरह के प्रश्न मन में जाग उठते हैं तभी सही मायने में जीवन शुरू होता है । ये प्रश्न आपकी जिंदगी की गुणवत्ता को बेहतर बनाते हैं ! आप यहां शिकायत करने नहीं आए हो,अपने दुखड़े रोने नहीं आए हो या किसी पर दोष लगाने के लिए नहीं आए हो । ना ही आप नफ़रत करने के लिए आए हो । ये बातें आपको जीवन में हर हाल में खुश रहना सिखाती हैं । उत्साह जीवन का स्वभाव है । दूसरों की प्रशंसा करने का और उनके उत्साह को प्रोत्साहन देने का मौका कभी मत छोड़ो । इससे जीवन रसीला हो जाता है । जो कुछ आप पकड़ कर बैठे हो उसे जब छोड़ देते हो, और स्वकेंद्र में स्थित शांत हो कर बैठ जाते हो तो समझ लो आप के जीवन में जो भी आनंद आता है, वह अंदर की गहराइयों से आएगा । किसी भी उपलब्धि को पाने का शार्ट कट पथ के राहगीर न बने जीवन में ये शार्ट कट भले ही त्वरित क्षुद्र सफलतायें दिला दें पर स्थाई उपलब्धियां सच्ची मेहनत से ही मिलती हैं । कहना तो बड़ा आसान है, लेकिन करना बड़ा कठिन । हमारा छोटे से छोटा कृत्य भी अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहता है । इसलिए हर कार्य को सोच समझ कर करें ।आज से एक सीधी सी बात कहूँगा कि- जीवन में छोटी छोटी बातो में खुशियाँ ढूंढें ! क्योंकि अक्सर बड़ी बड़ी चीजे हमें दुःख देती है ! जरूरत है अंतर्मन की गहराइयों तक जाकर आत्मनिरीक्षण के जरिए आत्मशुद्धि की इस साधना को अपनाना होगा ! हमे हमें अपने अतीत से प्रेरणा लेनी चाहिए , भविष्य की योजनाएं बनाना चाहिए एवं वर्तमान का आनंद लेना चाहिए। हम वर्तमान में जी रहे हैं इसलिए वर्तमान का आनंद लेना ही हमें जीवन जीने की कला सीखा सकता है। ......
उत्तम जैन विद्रोही
vidrohiawaz@gmail.com
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रविवार, 3 जुलाई 2016

शक नामक बीमारी

शक नामक बीमारी-----
शक नामक बीमारी जो स्त्री, पुरूषों में प्रायः होती है लाइलाज है। ऊपर वाला न करे कि यह बीमारी किसी में हो। शक यानि संदेह जिसे डाउट भीं कहते हैं एक ऐसी बीमारी है जो स्त्री-पुरूष के रिश्तों में दरार डालकर दोनों का जीवन दुःखद बनाती है। इसी शक पर पिछले दिनों मेरी एक लम्बी चौड़ी बहस पुराने मित्र से हुई। शक की बात चली तो उन्होंने कहा कि यह झूठ बोलने की वजह से होता है। झूठ तो सभीं बोलते हैं तो क्या सभीं पर शक किया जाए, इस पर वह बोले नहीं व्यापार में झूठ बोला जाता है। यदि सत्यवादी बन गए तो एक दिन कटोरा लेकर भीख मांगोगे। समय और परिस्थितियो के अनुसार ही झूठ-सच बोला जाता है। इस समय शक की बीमारी ने हर तरह की घातक बीमारियों को भीं काफी पीछे छोड़ दिया है। वो क्या है पति अपनी पत्नी पर, पत्नी अपने पति पर प्रेमी अपनी प्रेमिका और प्रेमिका अपने प्रेमी पर ‘शक’ करने लगे हैं। यार यह कोई नई बीमारी नहीं है सदियों से चलती आई रही है, और इन फ्यूचर चलती रहेगी। देखो भाई जी लोग एक दूसरे को बेहद प्यार करते हैं वे नहीं चाहते कि उनके प्यार के बीच कोई दूसरा आए। वैसे तुमसे कुछ भीं अनजान नहीं है, ऐसा करो विषय वस्तु पर कुछ भी बोलने का ‘मूड’ नहीं हो रहा है। यार शक ‘डाउट’ संदेह आदि सब गुड़ गोबर कर देता है। इसका इलाज भीं नहीं है। कई लोग अपसेट हो चुके हैं। हमने देखा है कि शक्की मिजाज के कई स्वथ्य लोग और नवजवान स्त्री व पुरुष डिप्रेशन का शिकार होकर अच्छा खासा जीवन कष्टकारी बना डाला है। इन बेचारे कालीदासों को कौन कहे कि ‘शक’ करने की आदत को छोड़ दो मजे में रहोगे। रिश्ते वह भीं स्त्री-पुरूष के बहुत ही नाजुक होते हैं, इनको परखने के लिए मन की आंखे और दिमाग चाहिए। ‘शक’ की बीमारी से दूर रहकर ही प्रेम, प्यार का रिश्ता मजबूर रहेगा वर्ना.....। बस अब तो मेरा प्रवचन समाप्त नही तो शकी लोग बोेल उठेंगे नहीं डियर कलमघसीट यह साधारण बात नहीं है। तुम सीरियसली नहीं ले रहे हो, मेरी मानों औरइस विषय पर इतना ‘प्रवचन’ मत कहो। बी सीरियस, एण्ड टेक इट सीरियसली। वर्ना कहीं तुम्हारे (तुम-दोनों के) बीच ‘शक’ की बीमारी आ गई तब तो सब खेल चौपट, जिन्दगी तबाह, बरबाद।
डियर उपदेशक ऐसा नहीं है कि हमारे बीच ‘शक’ है। हम लोग रूठने-मनाने के लिए ड्रामा किया करते हैं और सच्चे प्यार को कसौटी पर कसकर उसकी मजबूती को देखते हैं। क्या समझे-यदि नहीं समझे तो हम क्या करें। तुम अपना काम कर रहे हो और हम हमारा। करते रहो, यही तो जिन्दगी है। बन्धु मगर यह मत सोचों कि हमारे प्यार के बीच किसी प्रकार के ‘शक’ की गुंजाइश है। बस ठण्ड रखो मजे करो हमे हमारे हाल पर रहने दो। ..... उत्तम जैन विद्रोही

स्त्री की योग्यता का पैमाना उसकी प्रतिभा है देह नहीं......

                                                     स्त्री की योग्यता का पैमाना उसकी प्रतिभा है देह नहीं......

देश की एक न्यूज़ वेबसाइट पर ने एक समाचार प्रकाशित किया हुआ आज मे पढ़ रहा था … ” देश की सबसे सुन्दर 10 आई ए एस व् आई .पी एस अधिकारी …………. इसमें उन्होंने 10 महिलाओं के नाम दिए | पढ़ते हुए मानस पटल पर एक विचार आया स्त्री की योग्यता का पैमाना उसकी प्रतिभा है या देह आज तक कभी देश के 10 सुन्दर पुरुष आई ए एस व् आई पी एस के नाम क्यों नहीं जारी किये गए | यह पुरुष वादी सोंच है जहाँ प्रतिभाशाली महिलाओं की योग्यता व् उनके द्वारा किये गए कामों के स्थान पर उनकी शक्लों सूरत को वरीयता दी जाती है ………एक तो पुरुष की मानसिकता स्त्री देह तक ही सीमित है …दूसरे मीडिया उसे भुनाता है | ये आग में घी डालने के सामान है जिससे आग बुझेगी नहीं और भड़केगी | जब इतनी योग्य स्त्रियों को भी प्रतिभा के स्थान पर सौन्दर्य से मापा जाएगा तो साधारण स्त्रियों का अंदाज़ा स्वयं ही लगाया जा सकता !पुरुष स्त्री को हर हाल में शारीरिक-संरचना से क्यों आँकता है? इस तरह के सर्वेक्षण से उन स्त्रियों की उपलब्धि और योग्यता गौण और शारीरिक-संरचना प्रमुख होकर प्रस्तुत होती है जो कि सर्वथा अनुचित है ….शर्म आनी चाहिए… ऐसे बेहूदा विचार धारा वाले हर शख्स को अपने अंतर्मन में झाँक देखना चाहिए कि क्या गलत किया है उन्होंने.... ! बहुधा महिलाओं को ऐसी स्तिथितियों का सामना करना पड़ता है | जब उन के चयन या तरक्की पर सहकर्मी दबी जुबान में कहतें हैं … महिला थी इसलिए प्रमोशन हो गया . ऐसे वाक्य सुनकर एक मिनट के लिए रक्त खौल उठता है | पर फिर अगले ही क्षण मन को संयत करना होता है | आज महिलाएं अपनी प्रतिभा के दम पर हर जगह सफलता का परचम लहरा रहीं हैं | ऐसे में प्रतिभा के स्थान पर केवल उनके सौदर्य की चर्चा करना एक गलत मानसिकता है | जिसकी जितनी भत्सर्ना की जाए कम है ! प्रतिभा स्त्री कठोर परिश्रम से अर्जित करती है | फेसबूक हो शोशल मीडिया पर स्त्री की पोस्ट पर तारीफ़ों के पूल बांधते हुए मानसिक रूप से पीड़ित आप घोर से देखे मिल ही जाएंगे ! उनके विचारो पर ध्यान कम मगर तारीफ़ों की अंबार लग जाती है ! ऐसे व्यक्ति एक गलत मानसिकता से ग्रसित होते है ! इन सब मामलो स्त्रीया भी कुछ हद तक दोषी होती है ! जानबुझ कर कभी कभी ऐसा लिखती है की पुरुष के दिमाग मे कुछ संशय पेदा होने लगता है ! खेर समझदार को इशारा काफी मगर एक अनुरोध स्त्रियो के देह को न देखो उनकी योग्यता को परखो ------- उत्तम जैन (विद्रोही )

सोमवार, 27 जून 2016

कडवे घूंट जीवन के --

कडवे घूंट जीवन के ---
हमारी वर्तमान दशा व दिशा सिर्फ अपने कारण से होती है इस दशा मे मुख्य कारण एक चिंता व नकारात्मक भाव है !चिंताओं का विश्लेषण किया जाए तो ४०%- भूतकाल की, ५०% भविष्यकाल की तथा १०% वर्त्तमान काल की होती है ! इस स्वीकार भाव से ही हमारे भाव बदलने शुरू होते हैं। रोग का जन्म ही नकारात्मक भावनाओं में है । विकृत भाव व चिन्तन रोग के माता-पिता है । हम भावनाओं में जीते है । उन्हे बदल कर ही हम सुखी हो सकते है । आज अधिकतर लोग चिन्ता से चिन्तित रहते हैं। पिता को अपनी बेटी की शादी की चिन्ता है। एक गृहिणी को पूरा महीना घर चलाने की चिन्ता है। एक विद्यार्थी को अच्छे अंक प्राप्त करने की चिन्ता है। एक मैनेजर को अपने प्रोमोशन की चिन्ता है। एक व्यापारी को अपने व्यापार में लाभ कमाने की चिन्ता है। एक नेता को चुनाव से पहले वोट लेने और जीतने की चिन्ता है। किसी को अपनी सफलता की दावत देने की चिन्ता है।न जाने इंसान कितनी चिंताओ से ग्रसित रहता है लोगों ने जाने-अनजाने में अपनी जिम्मेदारी के साथ चिन्ता को भी जोड़ दिया है। क्या हर जिम्मेदारी के साथ चिन्ता का होना आवश्यक है? क्या चिन्ता किए बिना जिम्मेदारी का निभना संभव नहीं है? एक मां अपने बच्चे से कहती है, 'तुम्हारी परीक्षा सिर पर आ गई है, अब तो चिन्ता कर लो।' बच्चा शायद समझदार है। वह चिन्ता नहीं करता, पढ़ाई करता है और अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है। जिम्मेदारी है पॉजिटिव और चिन्ता करना है नेगेटिव। हम जब जिम्मेदारी को निभाते हैं तो हमारी ऊर्जा पॉजिटिव काम में लगती है और हमें लाभ देती है। लेकिन जब हम चिन्ता करते हैं तो हमारी ऊर्जा नेगेटिव काम में लगती है और नष्ट हो जाती है। मान लो यदि हमारी 20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता में चली जाती है तो जिम्मेदारी को निभाने के लिए कितनी बची? यदि साधारण हिसाब की बात करें तो बचती है 80 प्रतिशत। लेकिन यदि हम गहराई में जाएं तो परिणाम कुछ और ही होगा। चिन्ता है नेगेटिव और जिम्मेदारी है पॉजिटिव। जब दोनों एक साथ होंगे तो एक दूसरे की विपरीत दिशा में काम करेंगे। जिस तरह 'टग ऑफ वार' खेल में दो विभिन्न समूह एक मोटे रस्से को दो विपरीत दिशाओं में खींचते हैं तो एक समूह की सामूहिक ऊर्जा, दूसरे समूह की सामूहिक ऊर्जा के साथ बराबर हो जाती है। उसके बाद जिस समूह के पास थोड़ी ऊर्जा ज्यादा बचती है, उसका पलड़ा भारी हो जाता है और वह विजयी घोषित किया जाता है। इसी तरह चिन्ता और जिम्मेदारी के मध्य भी चलता है 'टग ऑफ वार'। यदि 20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता के पास है तो उसे बराबर करने के लिए 20 प्रतिशत ऊर्जा जिम्मेदारी की ओर से खर्च करनी होगी। इस तरह हमारे पास जिम्मेदारी निभाने के लिए बचती है सिर्फ 60 प्रतिशत ऊर्जा। जितनी ऊर्जा हम लगाएंगे, परिणाम भी वैसे ही आएंगे। 100 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के परिणाम अधिक और अच्छे होंगे और 60 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के परिणाम कम ही होंगे। लेकिन लोगों को लगता है कि काम चल जाएगा। यदि हमारी 50 प्रतिशत ऊर्जा चली गई चिन्ता की ओर तो चिन्ता शेष 50 प्रतिशत ऊर्जा भी खींच लेगी जिम्मेदारी से। और इस तरह हमारे पास अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए कोई ऊर्जा बचेगी ही नहीं। जब ऊर्जा न हो तो अच्छा से अच्छा उपकरण भी काम नहीं कर पाता। फिर हमारा दिमाग भी बिना ऊर्जा के काम कैसे कर सकता है। हम बहुत छोटी-छोटी जिम्मेदारियां भी नहीं निभा सकते और स्वयं से कहते हैं, 'ये मुझे क्या हो गया है, मेरा दिमाग ही काम नहीं कर रहा।' चिन्ता हमारी ऊर्जा को नष्ट कर देती है, जिससे हम अपनी जिम्मेदारी को निभाने में अपने आप को असमर्थ महसूस करते हैं। हम अपनी जिम्मेदारी से नाता नहीं तोड़ सकते। हमें अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए ऊर्जा चाहिए। इसलिए यह हमारी सबसे बड़ी जरूरत है कि हम अपनी ऊर्जा को चिन्ता में नष्ट होने से रोकें। हमें चिन्ता न करने का अभ्यास करना है। लेकिन कोई भी अभ्यास करने के लिए आवश्यक है अभ्यास करने का अवसर। प्रतिदिन हमारे पास अनगिनत समस्याएं आती हैं, जिनके लिए हम चिन्ता करते हैं। तो हर समस्या आने पर स्वयं से बात करें कि चिन्ता करने पर मेरी मूल्यवान ऊर्जा नष्ट हो रही है, जो मुझे नहीं करनी। सिर्फ अपने मन को इस बात की याद दिला कर भी हम अपनी काफी ऊर्जा नष्ट होने से बचा सकते हैं।
यदि आप चिन्ता मुक्त होना चाहते है तो आपको सकारात्मक विचारों को अपने जीवन में लाना पड़ेगा । चिन्ता जन्मजात नहीं होती है । ये एक आदत है जो पड़ जाती है । जब हम इस आदत को मजबूत बना लेते है तो इसको तोड़ना मुश्किल पड़ जाता है । यदि हमको पता चल जायें कि चिन्ता से डर का जन्म होता है और डर एक बहुत भयानक वस्तु है जो आपको मुर्त्यु का ग्रास बना सकती है!
उत्तम जैन (विद्रोही )

शनिवार, 25 जून 2016

पति पत्नी व पारिवारिक क्लेश -

पति पत्नी व पारिवारिक क्लेश -
रोज़-रोज़ ऐसे ही झगड़े होते रहते हैं, फिर भी पति-पत्नी को इसका हल निकालने को मन नहीं करता, यह आश्चर्य है न?
यह सारा लड़ाई-झगड़ा खुद की गरज से करते हैं। यह जानती है कि आ़खिर वे कहाँ जानेवाले हैं? वह भी समझता है कि यह कहाँ जानेवाली है? ऐसे आमने-सामने गरज से टिका हुआ है।
विषय में सुख से अधिक, विषय के कारण परवशता के दुःख है! ऐसा समझ में आने के बाद विषय का मोह छूटेगा और तभी स्त्री जाति (पत्नी) पर प्रभाव डाल सकेंगे और वह प्रभाव उसके बाद निरंतर प्रताप में परिणमित होगा। नहीं तो इस संसार में बड़े-बड़े महान पुरुषों ने भी स्त्री जाति से मार खाई थी। वीतराग ही बात को समझ पाए! इसलिए उनके प्रताप से ही स्त्रियाँ दूर रहती थीं! वर्ना स्त्री जाति तो ऐसी है कि देखते ही देखते किसी भी पुरुष को लट्टू बना दे, ऐसी उसके पास शक्ति है। उसे ही स्त्री चरित्र कहा है न! स्त्री संग से तो दूर ही रहना और उसे किसी प्रकार के प्रपंच में मत फँसाना, वर्ना आप खुद ही उसकी लपेट में आ जाएँगे। और यही की यही झंझट कई जन्मों से होती आई है।
स्त्रियाँ पति को दबाती हैं, उसकी वज़ह क्या है? पुरुष अति विषयी होता है, इसलिए दबाती हैं। ये स्त्रियाँ आपको खाना खिलाती हैं इसलिए दबाव नहीं डालतीं, विषय के कारण दबाती हैं। यदि पुरुष विषयी न हो तो कोई स्त्री दबाव में नहीं रख सकती! कमज़ोरी का ही़ फायदा उठाती हैं। यदि कमज़ोरी न हो तो कोई स्त्री परेशानी नहीं करेगी। स्त्री बहुत कपटवाली है और आप भोले! इसलिए आपको दो-दो, चार-चार महीनों का (विषय में) कंट्रोल (संयम) रखना होगा। फिर वह अपने आप थक जाएगी।
गृह कलह- आज जिधर भी दृष्टि डालिए लोग पारिवारिक जीवन से ऊबे, शोक- सन्ताप में डूबे, अपने भाग्य को कोसते नजर आते हैं। बहुत ही कम परिवार ऐसे होंगे जिनमें स्नेह- सौजन्य की सुधा बहती दिखाई पड़े, अन्यथा घर- घर में कलह, क्लेश, कहा- सुनी, झगड़े- टंटे, मार- पीट, रोना- धोना, टूट- फूट, बाँट- बटवारा और दरार, जिद फैली देवर- भौजाई यहाँ तक कि पति- पत्नी तथा बच्चों एवं बूढ़ों में टूट- फूट लड़ाई- झगड़ा, द्वेष- वैमनस्य तथा मनोमालिन्य उठता और फैलता दिखाई देता है। आज का पारिवारिक जीवन जितना कलुषित, कुटिल और कलहपूर्ण हो गया है कदाचित् ऐसा निकृष्ट जीवन पहले कभी भी नहीं रहा होगा।
अपने पैरों खड़े होते ही पुत्र असमर्थ माता- पिता को छोड़ कर अलग घर बसा लेता है। भाई- भाई की उन्नति एवं समृद्धि को शत्रु की आँखों से देखता है। पत्नी- पति को चैन नहीं लेने देती। बहू- बेटियाँ, फैशन प्रदर्शन के सन्निपात से ग्रस्त हो रही हैं। छोटी संतानें जिद्दी, अनुशासनहीन तथा मूढ़ बनती जा रही हैं। परिवारों के सदस्यों के व्यय तथा व्यसन बढ़ते जा रहे हैं। कुटुम्ब कबीले वाले कौटुम्बिक प्रतिष्ठा को कोई महत्व देते दृष्टिगोचर नहीं होते। निःसन्देह यह भयावह स्थिति है। परिवार टूटते, बिखरते जा रहे हैं। चिन्तनशील सद्गृहस्थ इस विषपूर्ण विषम स्थिति में शरीर एवं मन से चूर होते जा रहे हैं। गृहस्थ धर्म एक पाप बनकर उनके सामने खड़ा हो गया है। अनेक समाज हितैषी, लोकसेवी, परोपकार की भावना रखने वाले सद्गृहस्थ इस असहनीय पारिवारिक परिस्थिति के कारण अपने जीवन लक्ष्य की ओर न बढ़ सकने के कारण अपने दुर्भाग्य को धिक्कार रहे हैं। जरूरत है संयम के साधना की , अपने इगो (घमंड ) से दूर होने की , एक समर्पण की ........ देखो परिवार एक सुंदर सी बगिया के रूप मे निखर जाएगा
उत्तम जैन (विद्रोही )  

शुक्रवार, 24 जून 2016

जीवन जीने का विज्ञान

जीवन जीने का विज्ञान-----
 -24/06/216
प्राणों का एक ही सन्देश है, भौतिक संसार में आर्थिक प्रगति ही अध्यात्मिक विकास की, शांति, आनंद रूप परमात्मा को प्राप्त करने की सीढ़ी बन सकती है। आपसे कहता हूँ कि आप इसी जीवन में शांति, आनंद और इस संसार कि समस्त उपलब्धियों को प्राप्त करना चाहते हैं तो अपने जीवन के अनुभव किये हुए जो महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं सिर्फ सुनें ह्रदय खोलकर , ह्रदय खोलकर सुनना ही आपको सबकुछ उपलब्ध करा देगा। आपको कोई तपस्या करने के लिये नहीं कह रहा हूँ सिर्फ इतना कह रहा हूँ कि आप अपने शब्दों को सुनें, अपनी दृष्टि के माध्यम से, अपने शब्दों के माध्यम से स्वयं को अपने भीतर प्रवेश करने का अवसर दें। आपको तन मन धन तीनों प्रकार का सुख, तीनों प्रकार कि उपलब्धियां प्रदान होगी इसमें कोई संदेह नहीं है। मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा दुःख है कि वह आने वाले कल और बीते हुए कल के जालों में उलझा रहता है और जिंदगी में कभी वर्तमान में जीने का आनंद नहीं ले पाता है। जिसे ऋषियों ने माया कहा है वो कोई अप्सरा नहीं है, कोई सुंदरी नहीं है जो आपको उलझाये रहती है इस भंवर में, इस दुखों के जाल में। केवल आने वाला कल यानि भविष्य और बीता हुआ कल यानि भूत, ये दोनों ही आपके जीवन की ऊर्जा को नष्ट करते हैं और आप इस जिंदगी में जिसके लिये पैदा हैं वह शांति, वह आनंद और इस रूप में साक्षात् परमात्मा को नहीं प्राप्त हो पते हैं। परमात्मा तो सदैव वर्तमान में है, आनंद सदैव वर्तमान में है। अगर तुम सिर्फ वर्तमान में आ जाओ तो तुम्हारा तार आनंद से जुड़ जाता है इसलिए दुनिया में जितने धर्म हैं सबका सार है तुम कैसे वर्तमान में जी सको; सबमें इस विधि को, इस व्यवस्था को, इस विज्ञान को देने का प्रयास किया गया है। आज मैं आपसे चर्चा करना चाहता हूँ कि वर्तमान में जीना कैसे संभव है, वर्तमान में जीने का विज्ञान क्या है और वर्तमान में जीना आपको आ जाये तो कैसे आपके जीवन में क्रांति पैदा हो जाती है और आपका जीवन ऊर्जा का पुंज बन जाता है। वर्तमान में जीना ही होश में जीना है, वर्तमान में जीना ही जागे हुए जीना है, और यही सारे धर्मों का सार है।.......
उत्तम जैन विद्रोही 

बुधवार, 22 जून 2016

भारतीय युवा भटकाव की राह पर ....

आज कल युवा वर्ग जो उच्च मध्यम वर्ग का है जो आज अपनी शिक्षा के बल पर उड़ना चाहता है । उसे परिवार से यही सीखने को मिल रहा है कि चार किताबें पढ़ कर अपने career (भविष्य ) को बनाओ, यह युवा अपनी सारी ऊर्जा केवल अपने स्वार्थ या उज्जवल भविष्य के लिए लगा देता है । यदि कभी भूले भटके उसका विचार देश या समाज की तरफ जाने लगता है तो घर परिवार और समाज उसे सब भूल कर अपने भविष्य के बारे में सोचने पर मजबूर कर देता है । यह वर्ग भी अपने आप को देश और समाज से अलग ही अनुभव या यूं कहें की अपने आपको को समाज से श्रेष्ठ समझने लगता है और सामाजिक विषमता का होना उसके अहम को पुष्ट करता है ।ओर कभी आज के युवा हताशा में गलत कदम उठा लेते है ! युवा वर्ग की हताशा देश का दुर्भाग्य है क्योंकि न तो इस वर्ग मे हम उत्साह भर सके न ही समाज के प्रति संवेदनशीलता । एक प्रकार से यह वर्ग विद्रोही हो जाता है समाज के प्रति, परिवार के प्रति और अंत में राष्ट्र के प्रति । क्या हमने सोचा है कि ऐसा क्यों हो रहा है मुझे लगता है इसके पीछे कई वजह है , आज दुनिया भौतिकता वादी हो गयी है और लोगो की जरूरते उनकी हद से बाहर निकल रही है इसलिए उनके अंदर तनाव और फ़्रस्ट्रेशन बढ़ता जाता है , दूसरी बात पहले सयुंक्त परिवार थे तो अपनी कठिनाइया और तनाव घर में किसी ना किसी सदस्य के साथ बातचीत कर कम कर लेते थे घर में अगर कोई अकस्मात दुर्घटना हो जाती थी तो परिवार के बीच बच्चे बड़े हो जाते थे लेकिन आज न्यूक्लिअर फैमिली हो गयी है व्यक्ति को यही समझ में नहीं आता कि अपने दुःख-दर्द किसके साथ बांटे, पुरानी कहावत है कि पैर उतने ही पसारो जितनी बड़ी चादर हो लेकिन आज दूसरो की बराबरी करने के चक्कर में हम कर्ज लेकर भी अपनी हैसियत बढ़ाने की कोशिश करते है, आज के युवा वर्ग में जोश तो है पर आज के युवा को बहुत जल्दी बहुत सारा चाहिए और वो सब हासिल ना कर पाने पर डिप्रेशन में चले जाते है मेरा तो यही मानना है कि विपरीत समय और ख़राब हालात हमें जितना सिखाते है उतना हम अच्छे समय में नहीं सीख पाते इसलिए विपरीत समय को हमेशा ख़राब नहीं मानना चाहिए बल्कि विपरीत परिस्थितियों में हमें धैर्य रखना चाहिए और अच्छे समय का इंतज़ार करना चाहिए क्योंकि जिंदगी में अगर अँधेरा आया है तो उजाला भी आएगा अगर रात हुयी है तो सुबह भी होगी .....उत्तम जैन (विद्रोही)

सोमवार, 20 जून 2016

योग दिवस पर विशेष -

योग दिवस पर विशेष -
अगर आप रोजाना योग करते हैं तो आपके चेहरे पर अद्धभुत प्राकृतिक चमक आती है। योग के माध्यम से शरीर में लचीलापन आता है और त्वचा स्वस्थ रहती है। पहले के दिनों में, तनाव वयस्कों की बात हुआ करता था। थकाऊ पेशेवर कार्यक्रम के कारण अक्सर वयस्कों के निजी जीवन में तनाव हो जाता है। लेकिन हाल के दिनों में तनाव तेजी से बच्चों के जीवन अपनी पैठ बनाता जा रहा है। बच्चे आजकल आउटडूर खेलों से दूर होते जा रहे हैं। स्कूल में पढ़ाई का दबाव , ट्यूशन और बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण बच्चों में तनाव बढ़ता जा रहा है। योग व्यक्ति के आत्म-स्वास्थ्य, विश्राम और मन की पूर्ति के लिए बहुत फायदेमंद है। योग के माध्यम से बच्चों में तनाव की स्थिति को दूर कर उनमें आने वाले जीवन को लेकर साकारात्मक उर्जा का और अधिक संचार करने की शक्ति है।अकसर लोग योग की तुलन जिम के साथ करते हैं। लेकिन यह तुलना बिल्कुल गलत है योग शारीरिक व्यायाम से कहीं अधिक है। यह सबको एक साथ जोड़ने की कला है। यह मन और आत्मा की शांति के साथ-साथ शरीर को फिट बनाता है। जिम केवल शरीर की संरचना में सुधार लाने पर केंद्रित है जबकि योग इसके अलावा बुहत कुछ है। योग एक विद्या है, एक विज्ञान है, जसिका उद्देश्य है व्यक्तित्व में एक सकारात्मक परिवर्तन लाना, स्वयं को सदविचार, सद्व्यवहार एवं सत्कर्म से युक्त करना. उसी से जीवन में सुख, शांति और तृप्ति आती है. अगर आप कहते हो कि योग का उद्देश्य चित्तवृत्ति-निरोध है, तो क्या आप दस आसनों से, दो प्राणायामों से ऐसी योग निद्रा से, जिसमें सोते रहते हो और झपकते हुए ध्यान के अभ्यास से चित्तवृत्तियों का निरोध कर पाओगे? क्या यह संभव है?
चित्तवृत्तियों का निरोध तभी संभव होगा, जब हम अपनी ऊर्जाओं को संतुलित कर पायेंगे, अपनी इच्छाओं एवं महत्वाकांक्षाओं को व्यवस्थित कर पायेंगे, अपने ऊपर थोड़ा संयम का अंकुश रख पायेंगे.
इसीलिए योग की सभी शाखाओं में यम और नियम की चर्चा होती है. लोग व्याख्यान तो बहुत देते हैं कि योग का मतलब होता है, चित्तवृत्ति-निरोध, लेकिन जब अभ्यास की बारी आती है, तो गठिया के लिए केवल तीन-चार आसन कर लिये, दमा के लिए एक प्राणायाम का अभ्यास कर लिया, अनिद्रा की शिकायत के लिए योगनिद्रा का अभ्यास कर लिया और मन को संतुष्ट करने के लिए पांच मिनट अजपा-जप या अंतरमौन का अभ्यास कर लिया. राजयोग में ने पांच यम और पांच नियम बताये हैं, लेकिन उनका अभ्यास कोई नहीं करता. हठयोग-प्रदीपिका में दस यमों और दस नियमों की चर्चा की गयी है, लेकिन उनके बारे में कोई बात नहीं करता. मतलब हर व्यक्ति पहली और दूसरी कक्षा को छोड़ कर सीधे तीसरी कक्षा में प्रवेश करना चाहता है. इसी वजह से योग हमलोगों के जीवन में सिद्ध नहीं हो पाया है ! .......

 विश्व योग दिवस पर शुभकामना
योग करो .... निरोगी रहो
उत्तम जैन विद्रोही (प्राकृतिक चिकित्सक )

रविवार, 19 जून 2016

पिता दिवस पर .....

पिता दिवस पर .....वेसे मे इस दिवस मनाने मे कोई विशेष रुचि नही रखता क्यूकी पिता का कर्ज इतना है की इसे एक दिवस के रूप मे मना कर इतिश्री कर लेना मेरी समझ से ठीक नही ! पिता तो परमेश्वर का वह रूप है जो कण कण मे बसे हुए है !मेरे पिता तो मेरे लिए मेरे गुरु भी है पिता भी है ओर मेरे परमेश्वर भी जिनका आज भी मुझे आशीर्वाद प्राप्त है ! जन्मदेने के साथ ही मुझे पाला पोश कर बड़ा किया ! मेरी हर जिद्ध पूरी की ! क्लास 1 से 5 तक मेरे अध्यापक भी रहे ! प्यार से पुचकारा भी तो नही पढ़ने पर छड़ी से बहुत मारा भी ! यानि पिता के रूप मे हर धर्म निभाया सदेव आशीर्वाद भी दिया ! मेरे बुरे दिनो मे मेरे सहारा भी बने ! शायद मे यह कर्ज इस जन्म मे तो क्या 7 जन्मो मे पूरा नही कर सकता ! कोई भी देश हो, संस्कृति हो माता-पिता का रिश्ता सबसे बड़ा माना गया है। भारत में तो इन्हें ईश्वर का रूप माना गया है। यदि हम हिन्दी कविता जगत व साहित्य को देखें तो माँ के ऊपर जितना लिखा गया है उतना पिता के ऊपर नहीं। कोई पिता कहता है, कोई पापा, अब्बा, बाबा, तो कोई बाबूजी, बाऊजी, डैडी। कितने ही नाम हैं इस रिश्ते के पर भाव सब का एक। प्यार सबमें एक। समर्पण एक। चार पंक्तिया....
पिता ने हमको योग्य बनाया, कमा कमा कर अन्न खिलाया
पढ़ा लिखा गुणवान बनाया, जीवन पथ पर चलना सिखाया
जोड़ जोड़ अपनी सम्पत्ति का बना दिया हक़दार...
हम पर किया बड़ा उपकार....दंडवत बारम्बार...
परन्तु आज के दयनीय हालात पर कुछ समय पहले मैंने कहीं एक बूढ़े पिता की व्यथा में ये पंक्ति पढ़ी थी। बचपन में मैंने अपने चार बेटों को एक कमरे में पाला पोसा, अब इन चार बेटों के पास मेरे लिये एक कमरा भी नहीं है!!
न जाने क्यों हम इतने कठोर हो जाते हैं। वास्तविक रूप से पितृ दिवस तो आज  उनके लिए है की इस दिन पर संकल्प करे कि पिता के अवदानों का स्मरण कर उन्हे जो सन्मान का कर्तव्य अदा करे !
पिता के सन्मान मे चंद पंक्तिया ----
चेहरा भले गंभीर है
अंदर से वे धीर हैं ।
कहते कम हैं सुनते सब
ऐसी कुछ तासीर है ।।
ना आये ऐसे बादल कभी
छिप ना जाए ये पितृछाया
सालों साल तक
साथ रहे ये वरदहस्त आपका
हर घड़ी सोचूँ मैं दिल में
बनी रहे यह शीतल आपकी पितृ-छाया!.......... 
उत्तम जैन विद्रोही