हम आए दिन लोग मीडिया व इलेक्ट्रोनिक मीडिया की विश्वश्नियता पर सवाल खड़ा करते है। कुछ मीडियाकर्मी काफी पैसेवाले हो गए। कुछ ने तो आपने चैनल खोल लिए। इस देश में केवल नेता और अधिकारी ही नहीं लोकतंत्र का कथित चौथा स्तम्भ भी भ्रष्टाचार से दूर नहीं है। मीडिया अथवा पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। लेकिन वर्त्तमान परिदृश्य में वह अपनी दिशा खोता जा रहा है। पत्रकारिता का मतलब केवल समाचार देना ही नहीं होता अपितु समाज को जाग्रत करना तथा मार्गदर्शन देना भी होता है। देश की मीडिया को इस बात से कोई मतलब नहीं है की महंगाई क्यों बढ़ रही है और कौन इसके लिए जिम्मेदार हैं। स्वास्थ्य के नाम पर जनता को लूटा जा रहा है। शिक्षा दुकानों में बदलती जा रही है। महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय भ्रष्टाचार के अड्डे बनाते जा रहें हैं। और तो और मीडिया संस्थानों में भी भूमाफिया, तस्कर, दलालों तथा अवैध धंधों में लिप्त लोग अपना दखल बढ़ाते जा रहें हैं।पत्रकारिता के नाम पर उगाही हो रही है। इस सबके पीछे एकमात्र कारण यह है कि पत्रकार ने लिखना और पढना छोड़ दिया है। उसे न तो सामाजिक सरोकारों सेमतलब है और न ही देश की भलाई से। क्या मीडिया को यह पता नहीं है कि एक भूमाफिया अचानक कैसे समाज का सम्मानित आदमी बन गया? एक अदना सा नेता कैसे करोड़ों से खेल रहा है? एक अदना सा नेता कैसे करोड़ों से खेल रहा है? कैसे सरकारी धन की लूट होरही है? किस प्रकार सरकारी ज़मीनों पर मंदिर और मजारों के नाम पर कब्जे हो गए? किस तरह शहर का माना हुआ गुंडा विधायक और संसद बन गया? गरीबों के राशन को पचा कर कैसे लोग समाज के प्रतिष्ठित आदमी बन गए? सरकारी धन से बनने वाली ईमारत और सड़क कैसे इतनी ज़ल्दी जर्जर हो जाती है? संसद और विधायक निधि का पैसा कैसे स्कूल और कालेज रुपी निजी दुकानों में मोटी रिश्वतदेकर पचाया जा रहा है? अफसोस तो इस बात का है कि मीडिया लोगों को जागरूक करने के स्थान पर अन्धविश्वासी बना रहा है। कीर्तन और भजन तथा भविष्य फलके नाम पर अज्ञानता की और धकेल रहा है। इसीलिए अभी भी समय है की मीडिया अपनी असली भूमिका के बारे में आत्मचिंतन करे, अपने दायित्व को पहचाने अन्यथा उसकी गिरती विश्वसनीयता उसे गर्त में पहुंचा देगी ! नही तो आज जनमानस के दबे मुह पर एक पत्रकारिता ओर वेश्या की तुलना की जाती है उसे झुठला भी नही सकते !बड़ा अटपटा लग रहो होगा आपको यह बात आप अपने मन में सोच रहे होंगे कि किसी वेश्यागामी अथवा वेश्या के बारे में यह प्रश्न किया जा रहा है। लेकिन आज की सच्चाई है कि हम कितने संवेदनशून्य हो गए हैं कि हमें हर आदमी कि पहचान कोठे से करने कि आदत पड़ गई है।यह हालत हैं देश के पत्रकारिता जगत की । कभी आपने उत्कर्ष पर इठलाता यह देश अब अपनी बेवशी पर आंसू बहाने के अतिरिक्त कुछ करने में अपने को असमर्थ पा रहा है। पहले जो लोग पत्रकार को उनको अपना आराध्य समझते थे। कहीं भी मिल जाएँ तो उनको प्रणाम करना अपना धर्म समझते थे। अख़बारों सेव पत्रकारिता धर्म से विरत होने पर गधे के सर से सींग कि तरह गायब हो गए हैं। अब लोग प्रयास करते हैं कि भूले-भटके भी उनसे इनका आमना-सामना न हो। आखिर बाजारवाद और भौतिकवाद का यही तो जहर समूचे समाज की शिरायों में प्रवाहित हो रहा है कि जो अनुपयोगी है। उसे लिफ्ट मत दो। यानी यूज एंड थ्रो ही तो आज कि कटु सच्चाई है। वह कहते हैं कि कभी अकस्मात ऐसे लोग मिल भी जाएँ तो इन लोगों का पहला प्रश्न होता है कि गुरु आजकल कहाँ हो ? अर्थात किस कोठे की वेश्या हो। क्या आपकी पत्रकारिता का व्यवसाय ठीक तो चल रहा है ! क्या पत्रकारिता एक व्यापार है ? ऐसे प्रश्न संवेदनशील लोगों को उद्वेलित कर देते हैं। ऐसे ही जिन पत्रकार जिनका इस क्षेत्र में दशकों का तजुर्बा रहा है। पहले उनके मोबाईल की घंटी हर समय निरंतर बजती रहती थी। अब लगता है कि वह घंटी उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई कि तरह मौन हो गई है। कई समाजसेवी तथा राजनैतिक लोगों के अपकर्ष व् उत्कर्ष के साक्षी रहे इस पत्रकार को भी यही शिकायत है। पहले जो लोग गर्मजोशी से मिलते थे लेकिन अब मिलने से कतराते हैं। क्या यही पत्रकारीता के साथ होता रहेगा
उत्तम जैन (विद्रोही )
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