मेरे विचारो का पुलिंदा ---- खरी बात
ज़ख्म पर नमक छिड़कते हुए तमाम राजनीतिक दल अपनी रोटियां सेंकने से बाज नहीं आते हैं.! हर जगह कोई घटना घटित हुई नही की उसको भुनाने के प्रयास तेजी से होने लगते है !, वगैर इस बात की परवाह किये कि ऐसे मुद्दों पर राजनीति करने से सामाजिक विभाजन का खतरा और बढ़ेगा ही, जो अंततः सबके लिए घातक साबित होगा! घटना के अपराधियों को हर हाल में कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए, चाहे वो हिन्दू हो मुस्लिम हो या किसी भी संप्रदाय का लेकिन उन लोगों का कृत्य कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता है, जिन्होंने किसी भी घटना को माध्यम बनाकर सामाजिक सदभावना को नफरत में बदलने का प्रयास करते है.! समाज में रंजिश की घटनाएं होती रही हैं, दबंग और अपराधिक प्रवृत्ति के लोग अपने से कमजोरों को सताते रहे हैं, सत्ता भी इसमें यदा कदा शामिल होती रही है, किन्तु इससे पूरे समाज पर प्रश्नचिन्ह किस प्रकार उठाया जा सकता है और अगर समाज पर प्रश्नचिन्ह उठता है तो तमाम सामाजिक संगठन क्या कर रहे हैं और उनकी क्या जवाबदेही है?कभी लोग मुझ पर टिप्पणी करते है उत्तम विद्रोही को लिखना ही विरोधाभाषी पर मे कहूँगा मेरे विचार विद्रोही जरूर है मगर सदभावना , सामनजस्य का पक्षधर हु ओर रहूँगा आज के नेता अपनी अपनी गोटियां बिछाकर राजनीतिक चालें जरूर चलते हैं. ! हालाँकि, राजनीति अपनी आदतों से बाज आएगी, इसकी आशा करना कोरी आदर्शवादिता ही होगी.! सामाजिक संगठनों की भूमिका पर जरूर बात होनी चाहिए. वैसे देखा जाय तो तमाम महासभाएं, जातीय संगठन अपने वर्ग को मजबूत करने के बजाय दूसरी जातियों से विभेद पैदा करने में लगी रहती हैं. यही नहीं, यह तमाम सामाजिक संगठन राजनीतिक पार्टियों के पिछलग्गू भी हैं, शहद के पास भिनभीनाती मधुमखी भी जिसके कारण जरूरत के समय इस प्रकार के संगठनों की भूमिका शून्य हो जाती है.!सामाजिक संगठनों का प्रभाव समाज पर क्यों शून्य है और क्यों राजनीतिक पार्टियां इनको मुट्ठी में बंद किये हुए हैं. भारत जैसे विविधता भरे समाज में अगर सामाजिक संगठन अपना रोल ठीक से निभाएं ओर समाज की सोच राजनीति से ऊपर आये और तब राजनीतिज्ञों को लोगों की लाश पर रोटियां सेंकने का मौका नहीं मिलेगा! इसके लिए सबसे जरूरी बात यही है कि सामाजिक संगठन, राजनीतिक संगठनों के पिछलग्गू होने की भूमिका से बाहर निकलें और अपने समाज को अनुशासित, विकसित और सक्षम करने की भूमिका का निर्वहन करें, लेकिन किसी एक घटना पर एक समाज दुसरे समाज से भिड़ने को तैयार हो जाता है. ऐसे में भेद पैदा करने वाली राजनीति से न्याय की उम्मीद कोई करे भी तो कैसे ! ....जरूरत है सामाजिक संगठनो व समाज के हर व्यक्ति को जागरूक होकर राजनीतिक मकडजाल से निकल सदभावना आपसी सामनजस्य के साथ समाज देश की सेवा तन मन धन से करनी चाहिए !
उत्तम जैन विद्रोही
सूरत
vidrohiawaz@gmail.com
ज़ख्म पर नमक छिड़कते हुए तमाम राजनीतिक दल अपनी रोटियां सेंकने से बाज नहीं आते हैं.! हर जगह कोई घटना घटित हुई नही की उसको भुनाने के प्रयास तेजी से होने लगते है !, वगैर इस बात की परवाह किये कि ऐसे मुद्दों पर राजनीति करने से सामाजिक विभाजन का खतरा और बढ़ेगा ही, जो अंततः सबके लिए घातक साबित होगा! घटना के अपराधियों को हर हाल में कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए, चाहे वो हिन्दू हो मुस्लिम हो या किसी भी संप्रदाय का लेकिन उन लोगों का कृत्य कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता है, जिन्होंने किसी भी घटना को माध्यम बनाकर सामाजिक सदभावना को नफरत में बदलने का प्रयास करते है.! समाज में रंजिश की घटनाएं होती रही हैं, दबंग और अपराधिक प्रवृत्ति के लोग अपने से कमजोरों को सताते रहे हैं, सत्ता भी इसमें यदा कदा शामिल होती रही है, किन्तु इससे पूरे समाज पर प्रश्नचिन्ह किस प्रकार उठाया जा सकता है और अगर समाज पर प्रश्नचिन्ह उठता है तो तमाम सामाजिक संगठन क्या कर रहे हैं और उनकी क्या जवाबदेही है?कभी लोग मुझ पर टिप्पणी करते है उत्तम विद्रोही को लिखना ही विरोधाभाषी पर मे कहूँगा मेरे विचार विद्रोही जरूर है मगर सदभावना , सामनजस्य का पक्षधर हु ओर रहूँगा आज के नेता अपनी अपनी गोटियां बिछाकर राजनीतिक चालें जरूर चलते हैं. ! हालाँकि, राजनीति अपनी आदतों से बाज आएगी, इसकी आशा करना कोरी आदर्शवादिता ही होगी.! सामाजिक संगठनों की भूमिका पर जरूर बात होनी चाहिए. वैसे देखा जाय तो तमाम महासभाएं, जातीय संगठन अपने वर्ग को मजबूत करने के बजाय दूसरी जातियों से विभेद पैदा करने में लगी रहती हैं. यही नहीं, यह तमाम सामाजिक संगठन राजनीतिक पार्टियों के पिछलग्गू भी हैं, शहद के पास भिनभीनाती मधुमखी भी जिसके कारण जरूरत के समय इस प्रकार के संगठनों की भूमिका शून्य हो जाती है.!सामाजिक संगठनों का प्रभाव समाज पर क्यों शून्य है और क्यों राजनीतिक पार्टियां इनको मुट्ठी में बंद किये हुए हैं. भारत जैसे विविधता भरे समाज में अगर सामाजिक संगठन अपना रोल ठीक से निभाएं ओर समाज की सोच राजनीति से ऊपर आये और तब राजनीतिज्ञों को लोगों की लाश पर रोटियां सेंकने का मौका नहीं मिलेगा! इसके लिए सबसे जरूरी बात यही है कि सामाजिक संगठन, राजनीतिक संगठनों के पिछलग्गू होने की भूमिका से बाहर निकलें और अपने समाज को अनुशासित, विकसित और सक्षम करने की भूमिका का निर्वहन करें, लेकिन किसी एक घटना पर एक समाज दुसरे समाज से भिड़ने को तैयार हो जाता है. ऐसे में भेद पैदा करने वाली राजनीति से न्याय की उम्मीद कोई करे भी तो कैसे ! ....जरूरत है सामाजिक संगठनो व समाज के हर व्यक्ति को जागरूक होकर राजनीतिक मकडजाल से निकल सदभावना आपसी सामनजस्य के साथ समाज देश की सेवा तन मन धन से करनी चाहिए !
उत्तम जैन विद्रोही
सूरत
vidrohiawaz@gmail.com
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