शनिवार, 23 जनवरी 2016

जैन धर्म ओर अल्पसंख्यकवाद की राजनीति

मेरे विचारो का पुलिंदा ---- खरी बात
जैन समाज अल्पसंख्यक घोषित हो गए ! जैन समाज को अल्पसंख्यक घोषित करना न केवल हिंदू समाज को बांटने का अक्षम्य अपराध है अपितु भारत के सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना भी है ! अंग्रेज  १९४७ में भारत का विभाजन करते समय भारत की जमीन का विभाजन ही कर सके थे । वे हिन्दू समाज के दिलों को कभी नहीं बांट सके थे । मेरे अध्ययन के मुताबिक मा. सर्वोच्च न्यायालय नें २००५ में स्पष्ट रूप से कहा था कि अल्पसंख्यकवाद देश के हित में नहीं है  तथा इसको शीघ्र ही समाप्त करना चाहिए । उन्होंने यह दायित्व केंद्र सरकार के साथ-साथ अल्पसंख्यक आयोग पर भी डाला था और यह अपेक्षा की थी कि वे देश में इस घातक विष को फैलने से रोकेंगे । जस्टिस लाहोटी की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पीठ ने यह स्पष्ट निर्णय दिया था कि  इन दोनों को” ऐसी सामाजिक परिस्थतियों को विकसित  करना चाहिए जिससे अल्पसंख्यक वर्ग की सूची में से धीरे -धीरे विविध धर्मावलम्बियों का नाम हटाया जा सके और अंततः इस सूची को ही समाप्त किया जा सके । ” किसी भी अन्य पंथ को उन्होनें केन्द्रीय सूची में डालने से स्पष्ट मना कर दिया था । यह ध्यान रखना चाहिए कि यह निर्णय जैन समाज के ही कुछ कथित नेताओं की अपील पर ही दिया गया था । परन्तु यह देश का दुर्भाग्य है कि देश की एकता को मजबूत करने का जिनका दायित्व था वे ही देश व् समाज को विघटन की ओर ले जा रहे हैं  । संविधान में अल्प्संख्यकों के लिये कुछ सुविधाएं दी गई हैं। इन सुविधाओं की सूची सुरसा के मूंह की तरह बढती जा रही हैं। लक्ष्य मुस्लिम वोट बैंक है, परन्तु इन सुविधाओं को कुछ  अन्य समाजों के कुछ लोग अपने   निहित स्वार्थों की पूर्ती के लिये अपने समाज के लोगों को बरगला कर अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त करने की होड में लग गये  । जैन समाज से पहले आर्य  समाज, राम कृष्ण मिशन, गोरक्ष सम्प्रदाय आदि भी इस दौड में शामिल हुए थे। इनमें से कुछ पक्ष तो ऐसे हैं जिनकी स्थापना का लक्ष्य हिंदू समाज की रक्षा करना ही था। ये सुविधाएं भारत को छोड कर किसी भी समाज में नहीं हैं। विश्व में सब जगह अल्पसंख्यकों को समान अधिकारों का संघर्ष तो चलता है, विशेषाधिकार तो केवल भारत में ही दिये जाते हैं। इसी का दुष्परिणाम है कि  हिंदू कहलाने में जिनको गर्व होना चाहिये था , अब वे उससे अलग होने के लिये छटपटा रहे हैं। यदि यही चलता रहा तो कौन अपने को हिंदू कहेगा? शायद यही इन समाजतोडक राजनीति करने वालों का लक्ष्य भी है। बात यहीं तक नहीं रुकेगी। इसके  बाद देश से अलग होने में भी कुछ लोगों को अगर फायदा मिला तो इसमें भी वे संकोच नहीं करेंगे। शायद जस्टिस लाहोटी की चेतावनी साकार रूप ले लेगी। अब तो सरकार को इस समाज तोडक नीति से तौबा करनी चाहिये और जो सुविधाएं वे केवल अल्पसंख्यकों को दे रही है वे सबके लिये दे, यही देशहित में है।जैन समाज को अल्पसंख्यक घोषित करने पर मिलने  वाले लाभों की जो मृगमरीचिका दिखाई जा रही है , उस पर भी विचार करना होगा । जैन समाज के मंदिरो और शिक्षण संस्थाओं में सरकार का हस्तक्षेप नहीं होगा यह कहा जा रहा है । क्या इस पर विचार किया गया है कि अभी तक कितना हस्तक्षेप होता है या कितने जैन मंदिरों का अधिग्रहण हुआ हैं? जैन विद्यार्थियों को जैन संस्थाओं में आरक्षण या छात्रवृत्तियों की बात की जा रही है । क्या इतने मात्र के लिए भारत का सबसे समृद्ध समाज अपनी जड़ों से कटकर अपने ही देश में अल्पसंख्यक बनना पसंद करेगा ? यह एक स्थापित तथ्य है कि अपने शैक्षणिक और धार्मिक संस्थानों की सुरक्षा और संवर्धन के लिए जैन समाज को अल्पसंख्यक दर्जा नहीं समस्त हिंदू समाज की सदभावना व् विश्वास   ही चाहिए जो उसके पास पहले से है । मेरे विचार शायद जैन समाज के किसी भाई को बुरा लगे पर सत्य को झुठलाया नही जा सकता ! क्षमायाचना
उत्तम जैन विद्रोही
प्रधान संपादक
विद्रोही आवाज सूरत 

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