शुक्रवार, 22 मई 2015

पति और पत्नी के बीच कलह

अकसर छोटी.छोटी बातों को लेकर पति.पत्नी इस हद तक झगड़ पड़ते हैं कि उनकी जिंदगी में सिर्फ तनाव ही रह जाता है जो उन पर इस हद तक हावी हो जाता है कि दोनों का एक छत के नीचे जीवन बसर करना मुश्किल हो जाता है और नौबत तलाक तक पहुंच जाती है। आम जिंदगी में यदि पति.पत्नी कुछ बातों को ध्यान में रखें तो तनाव से बच कर अपने घरेलू जीवन को खुशियों से भर सकते हैं। यदि पति.पत्नी के बीच कभी झगड़ा हो तो दोनों में से एक को शांत हो जाना चाहिए जिससे बात आगे न बढ़े और फिर पति.पत्नी का झगड़ा तो पानी के बुलबुलों की तरह होता है जो पल भर में ही खत्म हो जाता है। युगो  से नर-नारी समानता का एक मूल तथ्य परिचालित किया जाता रहा है कि पुरूष स्त्री की अपेक्षा साधारणतया ज्यादा बड़ा और शक्तिशाली होते हैं और सामान्यतः भौतिक हिंसा में जीत उन्हीं की होती है । मानव सभ्यता के शुरू से ही स्त्रियों को पुरूषों के भौतिक हमलों से स्वयं की रक्षा करनी पडी है । यहां तक कि जब वह क्रोधित नर के सामने अपने आप को असहाय महसूस करती है कई पत्नियां अपनी पति की बातों को लेकर काफी कंफ्यूज रहती है कि आखिर उनके पति अपने मन की बात उनसे शेयर क्यों नहीं करते और उनके पति मन ही मन परेशान क्यों रहते है और खुद ही अपनी सारी मुश्किलों को सुलझाने के लिए प्रयत्न करते रहते है और उनसे कोई भी बात शेयर क्यों नहीं करते । इन्ही कारणों से कभी-कभी पति-पत्नी के बीच में मन मुटाव पैदा हो जाता है और कई पत्नियां जो अपने पति के मन की बातों को समझ लेती है उनके पति उनसे खुश हो जाते है परंतु कई बार पत्नी कंफ्यूज हो जाती है कि आखिर उनके पति की खुशी किस बात में है । इन टिप्स की मदद से आप जान सकती है कि एक पति अपनी पत्नी से क्या चाहता है । 
कुछ टिप्स –
   हर पति अपनी पत्नी से यह अपेक्षा करता है कि उसकी पत्नी उसके अच्छे कार्य करने पर उसकी तारीफ करें    और एसा करने से आपके पति आपसे खुश हो जाएंगे।  पति को ये बात सबसे ज्यादा अच्छी लगती है कि जब वो घर पर रहे तो उसकी पत्नी उसके साथ ज्यादा से  ज्यादा समय व्यतीत करें और जितना भी समय उसके साथ व्यतीत करें वो लम्हें हंसी मजाक से भरे होने चाहिए और लड़ाई झगड़े न हो जिससे रिश्तों में तनाव पैदा हो सकता है ।पति को ये बात सबसे अच्छी लगती है जब उसकी पत्नी घर के छोटे- छोटे कामों में अपने पति की मदद मांगे और काम करने के साथ- साथ आपस में ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत हो सकता है । हर पति यही चाहता है कि उसकी पत्नी सिर्फ उसी से प्यार करें और किसी और उसी को अपनी लाइफ का हीरो मानें 

गुरुवार, 21 मई 2015

विद्रोही आवाज़: आत्मा और मन

विद्रोही आवाज़: आत्मा और मन:   आत्मा  और मन क्या है ?  बिना रस्सी के ही शरीर से मन बंधा है , और मन से आत्मा बंधी हुई है | शरीर है , मन है , आत्मा है | जानने वालों ने इ...

आत्मा और मन

 आत्मा  और मन क्या है बिना रस्सी के ही शरीर से मन बंधा है, और मन से आत्मा बंधी हुई है| शरीर है, मन है, आत्मा है| जानने वालों ने इसलिए मन को, शरीर और आत्मा के मध्य का सेतु भी कहा है| मन क्या है? शरीर और आत्मा के बीच के पुल का नाम मन है| पर उससे ज्यादा अच्छा तरीका है कहने का, ‘मात्र मन ही मन है, जिसके दो सिरों का नाम शरीर और आत्मा है’| इस सिरे से देखो तो शरीर है, और उस सिरे से देखो तो आत्मा है| और अगर आत्मा के सिरे से देखो तो कहोगे कि बीज है, जो मन के रूप में विस्तार पाता  है, सूक्ष्म विस्तार| और फिर शरीर के रूप में स्थूल विस्तार पाता है तो संसार बन जाता है|  अपने सारे दिन की बातचीत में मनुष्य प्रतिदिन न जाने कितनी बार मैं शब्द का प्रयोग करता है | परन्तु यह एक आश्चर्य की बात है कि प्रतिदिन मैं और मेरा शब्द का अनेकानेक बार प्रयोग करने पर भी मनुष्य यथार्थ रूप में यह नहीं जानता कि मैं कहने वाले सत्ता का स्वरूप क्या है, अर्थात मैंशब्द जिस वस्तु का सूचक है, वह क्या है ? आज मनुष्य ने साइंस द्वारा बड़ी-बड़ी शक्तिशाली चीजें तो बना डाली है, उसने संसार की अनेक पहेलियों का उत्तर भी जान लिया है और वह अन्य अनेक जटिल समस्याओं का हल ढूंढ निकलने में खूब लगा हुआ है, परन्तु मैं कहने वाला कौन है, इसके बारे में वह सत्यता को नहीं जानता अर्थात वह स्वयं को नहीं पहचानता | आज किसी मनुष्य से पूछा जाये कि- आप कौन है ?” तो वह झट अपने शरीर का नाम बता देगा अथवा जो धंधा वह करता है वह उसका नाम बता देगा |वास्तव में मैंशब्द शरीर से भिन्न चेतन सत्ता आत्माका सूचक है मनुष्य (जीवात्मा) आत्मा और शरीर को मिला कर बनता है | जैसे शरीर पाँच तत्वों (जल, वायु, अग्नि, आकाश, और पृथ्वी) से बना हुआ होता है वैसे ही आत्मा मन, बुद्धि और संस्कारमय होती है | आत्मा में ही विचार करने और निर्णय करने की शक्ति होती है तथा वह जैसा कर्म करती है उसी के अनुसार उसके संस्कार बनते है | आत्मा एक चेतन एवं अविनाशी ज्योति-बिन्दु है जो कि मानव देह में भृकुटी में निवास करती है | जैसे रात्रि को आकाश में जगमगाता हुआ तारा एक बिन्दु-सा दिखाई देता है, वैसे ही दिव्य-दृष्टि द्वारा आत्मा भी एक तारे की तरह ही दिखाई देती है | इसीलिए एक प्रसिद्ध पद में कहा गया है- भृकुटी में चमकता है एक अजब तारा, गरीबां नूं साहिबा लगदा ए प्यारा |” आत्मा का वास भृकुटी में होने के कारण ही मनुष्य गहराई से सोचते समय यही हाथ लगता है | जब वह यश कहता है कि मेरे तो भाग्य खोटे है, तब भी वह यही हाथ लगता है | आत्मा का यहाँ वास होने के कारण ही भक्त-लोगों में यहाँ ही बिन्दी अथवा तिलक लगाने की प्रथा है | यहाँ आत्मा का सम्बन्ध मस्तिष्क से जुड़ा है और मस्तिष्क का सम्बन्ध सरे शरीर में फैले ज्ञान-तन्तुओं से है | आत्मा ही में पहले संकल्प उठता है और फिर मस्तिष्क तथा तन्तुओं द्वारा व्यक्त होता है | आत्मा ही शान्ति अथवा दुःख का अनुभव करती तथा निर्णय करती है और उसी में संस्कार रहते है | अत: मन और बुद्धि आत्म से अलग नहीं है | परन्तु आज आत्मा स्वयं को भूलकर देह- स्त्री, पुरुष, बूढ़ा जवान इत्यादि मान बैठी है | यह देह-अभिमान ही दुःख का कारण है |उपरोक्त रहस्य को मोटर के ड्राईवर के उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट किया गया है | शरीर मोटर के समान है तथा आत्मा इसका ड्राईवर है, अर्थात जैसे ड्राईवर मोटर का नियंत्रण करता है, उसी प्रकार आत्मा शरीर का नियंत्रण करती है | आत्मा के बिना शरीर निष्प्राण है, जैसे ड्राईवर के बिना मोटर | अत: परमपिता परमात्मा कहते है कि अपने आपको पहचानने से ही मनुष्य इस शरीर रूपी मोटर  को चला सकता है और अपने लक्ष्य (गन्तव्य स्थान) पर पहुंच सकता है | अन्यथा जैसे कि ड्राईवर कार चलाने में निपुण न होने के कारण दुर्घटना का शिकार बन जाता है और कार उसके यात्रियों को भी चोट लगती है, इसी प्रकार जिस मनुष्य को अपनी पहचान नहीं है वह स्वयं तो दुखी और अशान्त होता ही है, साथ में अपने सम्पर्क में आने वाले मित्र-सम्बन्धियों को भी दुखी व अशान्त बना देता है | अत: सच्चे सुख व सच्ची शान्ति के लिए स्वयं को जानना अति आवश्यक है   

बुधवार, 20 मई 2015

कन्या भ्रूण हत्या ..

दोस्तों नारी समाज का जिक्र हर युग में पुरुष से पहले आया है ! चाहे सतयुग हो या कलयुग
महाभारत हो , गीता हो या रामायण ...
नारी व् नर एक सिक्के के दो पहलु है ....एक नारी जब से जन्म लेती है बलिदान करती आई है ...फिर क्यों जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है ...एक पिता एक माँ जब अपने बिटिया का माँ की कोख में खून करवा देते है ! क्या उन्हें दर्द नही होता ! आज पुरुष के व् स्त्री अनुपात में तिस प्रतिशत का फर्क है एक दिन वो आएगा बेटे के लिए बहु लाना दुर्लभ हो जायेगा ! आज हर इन्सान एक बेटी के बाद दूसरी बेटी का जन्म अभिशाप समझता है ! दोस्तों याद रखना बेटा जब तक बेटा है जब तक बहु न आ जाये पर बेटी जब तक आपकी है जब तक आपमें जान है ....सभी दोस्तों से अनुरोध आप खुद शपथ ले कभी भ्रूण हत्या नही करोगे और न ही किसी को भ्रूण हत्या करने दोगे ! ..यह एक भारतीय दंड संहिता में दंडनीय है ...जब भी जान पड़े की कोई कन्या भ्रूण हत्या कर रहा है आप पास के पोलिस स्टेशन में जाकर रिपोर्ट करे ..........यही मेरा आपसे अनुरोध ...शायद मेरा पोस्ट पढ़ कर किसी बहन बेटी की जान बच जाए विशेष कर मेरी महिला मित्रो से गुजारिश की आप पुरजोर से विरोध करे ....

उत्तम जैन (विद्रोही )

मंगलवार, 19 मई 2015

उफ्, ऐसा भी हो सकता है... अरुणा शानबाग की व्यथा

अरुणा शानबाग के साथ जब यह हादसा हुआ तब मेरी उम्र तो महज 2 वर्ष थी ! कुछ वर्षो पहले उनकी दोस्त पिंकी वीरानी ने उनके लिए सुप्रीम कोर्ट से इच्छा मृत्यु की भी मांग की थी, पर इसे खारिज कर दिया गया था.खेर सुप्रीम कोर्ट के फेसले पर मे नही बोल सकता मगर क्या इन 42 वर्ष मे यानि जवानी से इस उम्र तक   उफ्, ऐसा भी हो सकता है... अरुणा शानबाग की व्यथा दरिंदगी की हदों के पार की है।  18 मई उनकी जिंदगी का आखिरी दिन रहा। उन्हें एक सिरफिरे ने सिर्फ प्रतिशोध की सनक में 27 नवंबर 1973 को बयालीस वर्षों के लिए मुंबई के केईएम अस्पताल के बिस्तर पर सुला दिया था।    उस समय वह ट्रेनी नर्स थीं। केईएम अस्पताल की डॉग रिसर्च लेबोरेटरी में कार्यरत अरूणा ने कुत्तों के लिए लाए जाने वाले मटन की चोरी करने वाले वार्ड बॉय सोहनलाल की अस्पताल प्रशासन से शिकायत कर दी थी। सोहनलाल ने अरुणा पर जानलेवा हमला करते हुए कुत्ते बांधने की चेन से उनका गला घोटकर मारने की कोशिश की थी। इससे उनके दिमाग में ऑक्सीजन संचरण रुक गया और शरीर बेजान हो गया।इसके बाद सोहनलाल ने उन पर यौन हमला किया था। इसके बाद अरुणा के रिश्तेदारों ने नाता तोड़ लिया था। उनकी तय शादी भी टूट गई। अस्पताल की नर्सों और स्टॉफ ने उन्हें 42 वर्षों तक संभाला। उस घटना से उनको इतना गहरा सदमा लगा कि वह किसी पुरुष की आवाज से भी घबराने लगी थीं। अरुणा जिस अस्पताल में सेवा करने के लिए आयीं थीं, वहीं वह रोगी बन गयीं. केइएम अस्पताल में 42 साल से नर्सें उनकी सेवा कर रही थीं. नर्सो ने अपना पूरा फर्ज निभाया ! आज सवाल है अरुणा शानबाग के साथ जो हुआ आगे ओर किसी के साथ नही होगा ! क्या गारंटी ?  अदालत सबूतो व धाराओ व वकील की दलीलों के आधार पर न्याय करती है ! यह एक संविधान है मेरा विरोध करना भी जायज नही क्यू की मे न्यायप्रणाली पर अंगुली नही उठा सकता ! मगर एक सोचनीय प्रश्न है क्या ओर कब तक अरुणा शानबाग जी के साथ जो हुआ ओर आगे होता रहेगा ! क्या आज की महिला इतनी असक्षम है ! की महिला के साथ हुए अत्याचार के विरुद्ध सिर्फ दो चार शब्द या अपना चंद शब्दो मे आक्रोश जता कर चुप ही रहेगी ! मेरी शिकायत  सिर्फ महिला से  नही उन मर्दो से भी है जो एक बहन बेटी को न्याय नही दिला पाया ! उन्हे मर्द कहलाने का हक नही ! उफ़्फ़ .......... उफ्, ऐसा भी हो सकता है   .........उत्तम विद्रोही 

सोमवार, 18 मई 2015

हालात कहां बदले हैं…. महिला सशक्तिकरण

भारतीय समाज की सबसे बडी विशेषता उसकी अनेकता में एकता की भावना है. यहाँ विभिन्न प्रकार वर्गों के लोग निवास करते है. इनमे विभिन्न प्रकार की परंपराएँ प्रचलित है. वैदिक धर्म यहाँ के अधिकांश भाग का धर्म है. जो विदेशी आये वे इस समाज में मिलते चले गए. कुछ हद तक उन्होंने अपनी मौलिकता भी बनाये रखी. ऐसे बहुविधि समाज में स्त्रियों का अपना विशेष स्थान रहा है. शास्त्रों में लिखा हुआ है कि पत्नी पुरुष का आधा भाग है. वह एक श्रेष्ट मित्र भी है. यह भी कहा जाता है कि जहाँ नारी कि पूजा होती है वहीँ देवता रमण करते है. प्राचीन युग में नारी हर प्रकार से सम्मानित थी. पर आज उसकी स्थिति बिलकुल भिन्न है. उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों कि दशा ठीक नहीं थी. बाल-विवाह प्रचलित हो गया था. वैवाहिक स्वतंत्रता समाप्त हो चुकी थी. बहु-विवाह प्रथा जोरों पर थी. भारतीय समाज शुरू से ही पुरुष  प्रधान रहा है। यहां महिलाओं को हमेशा से दूसरे दर्जे का माना जाता है। पहले महिलाओं के पास अपने मन से कुछ करने की सख्त मनाही थी। परिवार और समाज के लिए वे एक आश्रित से ज्यादा कुछ नहीं समझी जाती थीं। ऐसा माना जाता था कि उसे हर कदम पर पुरुष के सहारे की जरूरत पड़ेगी ही।  लेकिन अब महिला उत्थान को महत्व का विषय मानते हुए कई प्रयास किए जा रहे हैं और पिछले कुछ वर्षों में महिला सशक्तिकरण के कार्यों में तेजी भी आई है। इन्हीं प्रयासों के कारण महिलाएं खुद को अब दकियानूसी जंजीरों से मुक्त करने की हिम्मत करने लगी हैं। सरकार महिला उत्थान के लिए नई-नई योजनाएं बना रही हैं, कई एनजीओ भी महिलाओं के अधिकारों के लिए अपनी आवाज बुलंद करने लगे हैं जिससे औरतें बिना किसी सहारे के हर चुनौती का सामना कर सकने के लिए तैयार हो सकती हैं।  आज की महिलाओं का काम केवल घर-गृहस्थी संभालने तक ही सीमित नहीं है, वे अपनी उपस्थिति हर क्षेत्र में दर्ज करा रही हैं। बिजनेस हो या पारिवार महिलाओं ने साबित कर दिया है कि वे हर वह काम करके दिखा सकती हैं जो पुरुष समझते हैं कि वहां केवल उनका ही वर्चस्व है, अधिकार है।  जैसे ही उन्हें शिक्षा मिली, उनकी समझ में वृद्धि हुई। खुद को आत्मनिर्भर बनाने की सोच और इच्छा उत्पन्न हुई। शिक्षा मिल जाने से महिलाओं ने अपने पर विश्वास करना सीखा और घर के बाहर की दुनिया को जीत लेने का सपना बुन लिया और किसी भी हद तक पूरा भी कर लिया है !लेकिन पुरुष अपने पुरुषत्व को कायम रख महिलाओं को हमेशा अपने से कम होने का अहसास दिलाता आया है। वह कभी उसके सम्मान के साथ खिलवाड़ करता है तो कभी उस पर हाथ उठाता है। समय बदल जाने के बाद भी पुरुष आज भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना पसंद नहीं करते, उनकी मानसिकता आज भी पहले जैसी ही है। विवाह के बाद उन्हे ऐसा लगता है कि सिर्फ मांग मे सिंदूर भरने के साथ ही  अब अधिकारिक तौर पर उन्हें अपनी पत्नी के साथ मारपीट करने का लाइसेंस मिल गया है। शादी के बाद अगर बेटी हो गई तो वे सोचते हैं कि उसे शादी के बाद दूसरे घर जाना है तो उसे पढ़ा-लिखा कर खर्चा क्यों करना। लेकिन जब सरकार उन्हें लाड़ली लक्ष्मी जैसी योजनाओं लालच देती है, तो वह उसे पढ़ाने के लिए भी तैयार हो जाते हैं और हम यह समझने लगते है कि परिवारों की मानसिकता बदल रही है। दुर्भाग्य की बात है की बातें और योजनाएं केवल शहरों तक ही सिमटकर रह गई हैं। एक ओर बड़े शहरों और मेट्रो सिटी में रहने वाली महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रुप से स्वतंत्र, नई सोच वाली, ऊंचे पदों पर काम करने वाली महिलाएं हैं, जो पुरुषों के अत्याचारों को किसी भी रूप में सहन नहीं करना चाहतीं। वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाली महिलाएं हैं जो ना तो अपने अधिकारों को जानती हैं और ना ही उन्हें अपनाती हैं। वे अत्याचारों और सामाजिक बंधनों की इतनी आदी हो चुकी हैं की अब उन्हें वहां से निकलने में डर लगता है। वे उसी को अपनी नियति समझकर बैठ गई हैं।  हम खुद को आधुनिक कहने लगे हैं, लेकिन सच यह है कि आधुनिकता सिर्फ हमारे पहनावे में आया है लेकिन विचारों से हमारा समाज आज भी पिछड़ा हुआ है। आज महिलाएं एक कुशल गृहणी से लेकर एक सफल व्यावसायी की भूमिका बेहतर तरीके से निभा रही हैं। नई पीढ़ी की महिलाएं तो स्वयं को पुरुषों से बेहतर साबित करने का एक भी मौका गंवाना नहीं चाहती। लेकिन गांव और शहर की इस दूरी को मिटाना जरूरी है।
 उत्तम जैन (विद्रोही )



चंद लाइन स्वर्गस्थ हमसफर के लिए

आज से ठीक 5 वर्ष पूर्व 18/05/2010 को मेरी  सड़क दुर्घटना मे देहांत हो गया था ! मे स्वयं तो उस आडंबर रूपी भगवान मे उतना विश्वास नही करता पर शायद उसे यह मंजूर था ! हमारे जीवन के सिर्फ 19 वर्ष के अल्प समय के साथ ही शायद हमारा प्यार उसे बर्दाश्त नही हुआ ! ओर हम दोनों को अगले जन्म तक के लिए सदा सदा के लिए दूर कर दिया ! हमारे जीवन मे इस अल्प साथ मे मेरी हमसफर हर अच्छे बुरे वक़्त मे कंधा से कंधा मिलाकर खड़ी रही ! मेरे हर बुरे वक़्त मे होंसला बढ़ाया ! मेरे हर गलत राह का विरोध भी किया तो हर अच्छे कार्य के लिए प्रशंसा भी ! एक नेक विचारो की , मेहनती , पूर्ण समर्पित भाव से आदर करने वाली मेरी हमसफर अल्पवय मे ही दुर्घटना मे शिकार हुई ! तब मे उसके साथ नही था ! जब दुर्घटना मे अपने नश्वर शरीर को छोड़ा ठीक उसी वक़्त 18/05/2010 को प्रात 4.50 को मुझे स्वप्न मे एक बड़ा झटके का अहसास हुआ ! करीब 30 मिनिट तक मे स्वयं विचलित हो रहा था ! ओर 30 मिनिट बाद मेरे नाबालिग पुत्र व पुलिस से मोब पर दुर्घटना के दुखद समाचार दिये ! आज 5 वर्ष की इन दूरियो का वर्णन करते हुए आंखो से आँसू छलक रहे है ! तो अब ज्यादा नही लिख सकता ! अगर कोई परमपिता परमेश्वर है तो उससे मेरी यही प्रार्थना की मेरी हमसफर जिस योनी मे विचरण कर रही हो ! उसे शांति प्रदान करे .... ॐ शांति ॐ शांति ..... भावभीनी अश्रुपूरित श्र्दा सुमन अर्पित करता हु !!
दिल का दर्द कई बार आँखों में नजर आता है ।। कई बार यह उफन उफन कर आँखों से बरस जाता है।।। सोचा कई बार दर्द को न उकेरुँ कलम से।। लेकिन ये खुद ब खुद कागज पर उतर जाता है।।।
मेरी कलम से ----------चंद लाइन स्वर्गस्थ हमसफर के लिए

तुम्हारे बिछडने से बाद
सोचा करता था !
अकसर यही
कैसे कटेगी मुझसे
जुदाई की वो लंबी राते
कैसे कटेगे तुम्हारे बीना
वो पल वो लम्हा
कैसे बितेगी ना जाने
तन्हाई की वो घडियाँ
पल पल मुझे
याद आओगी तुम।।
तुमसे बिछडने के बाद
आज भी मै
तन्हा नहि हूँ।।
पल भर भी में
तुमसे दूर नहि ।।
कयोकि आज भी साथ मेरे
तुम्हारे प्यार की वो हसीन यादें हैं।
लेकिन
किससे कहूँ दिल के राज को
किससे बाँटु अपने गम
अकेले बस यूँ ही
तुम्हारे साथ बिताए पलों को
पिरोता रहता हूँ तुम्हारी
यादों के धागों से
आंखो की बूँदे समेट कर
तेरी यादों मे जल जल कर
मैने ये पल काँटे हैं।।।।
उत्तम जैन (विद्रोही )

शनिवार, 16 मई 2015

जैन संतो पर सुनियोजित आक्रमण उस पत्रकार का बहिष्कार हो

भारत वर्ष में भगवान महावीर के काल से साधू संतो का अपना एक विशेष महत्व रहा है. अपने जीवन का सर्वस्व ,समाज को अर्पित करने वाला यह वर्ग भारत के महान इतिहास का कारण भी रहा है. जिसने ,त्याग तपस्या , अध्यात्म, धृति क्षमा,विवेक,सयम अपरिग्रह आदि गुणों को समाज के उत्कृष्टता के लिए समाज में रहने वाले व्यक्तियों के अन्दर डालने का कार्य किया. जिससे हमारा एक गौरवपूर्ण अतीत प्राप्त हुआ और भारत के अन्दर रहने वाले हर एक व्यक्ति के मन मष्तिष्क में इन साधू संतो सन्यासियों के प्रति सदैव से एक आदर का भाव रहा है. ! पर वर्तमान के सन्दर्भ में हम बात करे तो यह पता चलता है की आज हम एक दुसरे स्थिति में खड़े है जहां पर साधू संतो व आचार्यो को बदनाम करने के लिए अनेकानेक लोग इसका दुरुपयोग करने के लिए दिखाई देते हैं. संत मुनियों की वैज्ञानिक , तार्किक , शाश्त्रसम्मत बातो को आगे बढाने वाले संत समाज में भारत के गुलामी के समय में आरोपित किये तमाम बुराई के चिन्ह आज उन पर दिखाई पड़ते है.पर फिर भी अनेकानेक साधू संत , राष्ट्रपुरुष भारत में हैं जो की सदैव राष्ट्र के चरमोत्कर्ष के बारे में न केवल सोचते है बल्कि कार्य भी करते हैं. ! आज के समय में सत्ताधीश से लेकर न्यायाधीश तक , समाचार पत्र से लेकर आम आदमी तक जब मुद्रा के मुल्य के महत्व को नैतिकता और सामाजिक मुल्य से ज्यादा आंक रहा है तब की परिस्थिति में राष्ट्रीय चिंता से युक्त व धर्म के अनुरूप भगवान महावीर का अहिंसा का संदेश साधू संत जन जन तक पहुंचा रहे है ! इस बीच कुछ स्वयंभू कलम के सिपाही खुद को लेखक कवि मानने वाले दुष्प्रचार कर साधू संतो को आरोपित कर समाज मे मुश्किल बड़ा रहे है . न कोई सत्ताधीश गाली देने वाला न ही आम जनता आरोप प्रत्यारोप करने वाली न कोई मीडिया उनके पीछे पड़ने वाली, पर ऐसे लोग जो कुछ भी जैन समाज के जागरण और राष्ट्र के उत्थान के लिए कार्य कर रहे उन्हें आज के समय में भारत के लोकतंत्र पर कब्जा कर चुकी तीन शक्तियां सताधीश , तथाकथित बुद्धिजीवी , और मीडिया तीनो मिलकर तरह तरह से बदनाम करने की साज़िश रचती हैं और न्यायालयों के निर्णय आने से पहले ही इस तरह का दुष्प्रचार का एक क्रम शुरू करते हैं मानो न्यायालय की कोई आवश्यकता ही नहीं. धीरे धीरे मुझे तो ऐसा लगाने लगा है की जिस जिस साधू संत के ऊपर ये नेता , तथाकथित बुद्धिजीवी और मीडिया एक साथ मिलकर आक्रमण करे तो यह समझ जाना चाहिए की उस संत ने जरुर कोई राष्ट्र एवं धर्म जागरण का वास्तिवक लक्ष्य पूर्ति का काम किया है. वरन इन तीनो के समेकित आक्रमण का कोई और कारण ही नहीं. समाज को ऐसे पत्रकार का बहिष्कार करना चाहिए
उत्तम जैन (विद्रोही )

जीवन मे पैसा ही सब कुछ है

आजकल रोज़ अखबार मे चोरी और धोखाधड़ी मे शातिर दिमाग वालों द्वारा किये गये नये नये अविष्कारों के बारे मे पढने को मिलता है.! कोई मैकनिक नौकरी को छोड़ कार चोरों का गिरोह बना लेता है तो कोई इंजिनियर लोगों के खातों से पैसे उढ़ा लेता है. प्रतिभाशाली व्यक्तियों का भी अपराध की दुनिया से जुड़ना खतरे की घंटी है. जीवन मे पैसा ही सब कुछ है की भावना के चलन के कारण ही यह बुराई बढ रही है. !देश में कभी ईमानदारी और सच्चाई पर चलने वालों को आदर की दृष्टि से देखा जाता था. परन्तु आजकल के माहौल में ईमानदारी और सच्चाई पर चलना काँटों पर चलने से भी अधिक कठिन हो गया है. इस का प्रमुख कारण बाजार का बढ़ता प्रभाव ही है. आज धनी व्यक्ति को अनेक दुर्गुणों के होते हुए भी केवल धन के बल पर समाज मे आदर मिलता है. वहीं गरीब को हर कोई बेवकूफ समझता है और उसे शक़ की नज़र से देखता है.  आसाराम और सलमान जैसे कई मामलों मे सच बोलने वाले गवाहों की दुर्दशा इस बात का सबूत हैं.  आज हर कोई अपने अमीर रिश्तेदार, दोस्त या पड़ोसी के पास उपलब्ध सुख सुविधा के साधन को देख  हीन भावना का शिकार हो रहा है या उन साधनो को पाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है. रही सही कसर टीवी पर अमीरी का भोंडा प्रदर्शन करने वाले सीरियल और फिल्मे पूरी कर रहीं हैं. परिणाम स्वरूप लोग अपनी हैसियत को भूल अपनी चादर से बाहर पैर फैला क़र्ज़ लेकर  कार, टीवी या फ्रिज़ जैसे सामान खरीद लेतें है और बाद में क़र्ज़ चुकाने के चक्कर में हर समय परेशान रहतें है. इन सुविधाओं को प्राप्त करने के लिये नौकरीपेशा लोग रिश्वत ले अपनी कमाई को बढाने लगते है और दुकानदार होने पर मिलावट और समान की अधिक कीमत वसूल कर अधिक लाभ कमाने का प्रयास करते है. ऐसे मे जब तक किस्मत साथ देती है तो यह लोग मज़े करते है. परंतु पकड़े जाने पर उनके परिवार को पहले से भी अधिक गरीबी का सामना करना पड़ता है. जितना अधिक जोखिम उतनी अधिक कमाई व्यापार का सिद्दांत है. परंतु आजकल बहुत से गुमराह युवा जवानी के ज़ोश मे इस सिद्दांत का गलत कामों मे इस्तेमाल कर रहे है, जिसका दुष्परिणाम देर सवेर उन्हें भुगतना  भुगतना पड़ता है. कम पढ़े लिखे लोग जल्दी अमीर बनने के चक्कर में मेहनत न कर चोरी, जेबकतरी, सेंधमारी और झपटमारी के कुख्यात धन्धों को अपनाते हैं वहीँ अधिक पढ़े लिखे साइबर क्राइम को ही अपनी जीवका बना लेते हैं. दबंग और पैसे वाले छोटे मोटे नेता बन जाते हैं या चिटफंड और  भूमाफिया के धंधे में आ जाते हैं. लेकिन इनमे से अधिकतर का अंत में अंजाम बहुत बुरा होता है और इन्हें काफी समय बड़े घर में रहना पड़ता है.  इनकी करनी की सज़ा उनके घर वाले भी भुगतते हैं. सादगी का जीवन  ही  सुख का आधार होता है. परन्तु आज हम सब इस ग़लतफ़हमी का शिकार बन चुके हैं की भौतिक सुख से प्रसन्नता मिलती है. यदि ऐसा होता तो जीवन में सब सुख की सुविधाएं होने पर भी अवसाद में रहने वाले लोगों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी क्यों होती. मज़दूर और मेहनतकश इंसान कम पैसे होते हुए भी अपने जीवन से संतुष्ट और सुखी हैं. परन्तु खाते पीते लोग अपनी मूलभूत जरुरूतों के पूरा हो जाने पर भी अपनी असीमित इच्छाओं के पूरा न होने के कारण हरदम दुखी ही रहते हैं. अमीर बनने की चाहत रखना कोई बुरी बात नहीं है. परंतु  जल्दी से जल्दी धन कमाने के  लालच में अपनी जिंदगी को दाव पर लगाना और भिखारियों से भी नीच काम करना कहाँ की समझदारी है.  


गुरुवार, 14 मई 2015

पशुओं के स्वास्थ्य की, उनके लिये पोषक व स्वास्थ्यकर भोजन की चिन्ता कौन करेगा?

. मैने विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते पढ़ा है कि ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत सूर्य है। पेड़-पौधे फोटो-सिंथेसिस के माध्यम से अपना भोजन बना सकते हैं पर जीव-जंतु नहीं बना सकते। ऐसे में वनस्पति से भोजन प्राप्त कर के हम प्रथम श्रेणी की ऊर्जा प्राप्त कर लेते हैं। दुनिया के जिन हिस्सों में वनस्पति कठिनाई से उत्पन्न होती है - विशेषकर रेगिस्तानी इलाकों में, वहां मांसाहार का प्रचलन अधिक होना स्वाभाविक ही है। आयुर्वेद जो मॉडर्न मॅडिसिन की तुलना में कई हज़ार वर्ष पुराना आयुर्विज्ञान है - कहता है कि विद्यार्थी जीवन में सात्विक भोजन करना चाहिये। सात्विक भोजन में रोटी, दाल, सब्ज़ी, दूध, दही आदि आते हैं। गृहस्थ जीवन में राजसिक भोजन उचित है। इसमें गरिष्ठ पदार्थ - पूड़ी, कचौड़ी, मिष्ठान्न, छप्पन भोग आदि आते हैं। सैनिकों के लिये तामसिक भोजन की अनुमति दी गई है। मांसाहार को तामसिक भोजन में शामिल किया गया है। राजसिक भोजन यदि बासी हो गया हो तो वह भी तामसिक प्रभाव वाला हो जाता है, ऐसा आयुर्वेद का कथन है।भोजन के इस वर्गीकरण का आधार यह बताया गया है कि हर प्रकार के भोजन से हमारे भीतर अलग - अलग प्रकार की मनोवृत्ति जन्म लेती है। जिस व्यक्ति को मुख्यतः बौद्धिक कार्य करना है, उसके लिये सात्विक भोजन सर्वश्रेष्ठ है। सैनिक को मुख्यतः कठोर जीवन जीना है और बॉस के आदेशों का पालन करना होता है। यदि 'फायर' कह दिया तो फयर करना है, अपनी विवेक बुद्धि से, उचित अनुचित के फेर में नहीं पड़ना है। ऐसी मनोवृत्ति तामसिक भोजन से पनपती है, ऐसा आयुर्वेद का मत है।यदि आप कहना चाहें कि इस वर्गीकरण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है तो मैं यही कह सकता हूं कि बेचारी मॉडर्न मॅडिसिन अभी प्रोटीन - कार्बोहाइड्रेट - वसा से आगे नहीं बढ़ी है। जिस दिन भोजन व मानसिकता का अन्तर्सम्बन्ध जानने का प्रयास करेगी, इस तथ्य को ऐसे ही समझ जायेगी जैसे आयुर्वेद व योग के अन्य सिद्धान्तों को समझती जा रही है। तब तक आप चाहे तो प्रतीक्षा कर लें, चाहे तो आयुर्वेद के सिद्धान्तों की खिल्ली भी उड़ा सकते हैं।जब हम मांसाहार लेते हैं तो वास्तव में पशुओं में कंसंट्रेटेड फॉर्म में मौजूद वानस्पतिक ऊर्जा को ही प्राप्त करते हैं क्योंकि इन पशुओं में भी तो भोजन वनस्पतियों से ही आया है। हां, इतना अवश्य है कि पशुओं के शरीर से प्राप्त होने वाली वानस्पतिक ऊर्जा सेकेंड हैंड ऊर्जा है।यदि आप मांसाहारी पशुओं को खाकर ऊर्जा प्राप्त करते हैं तो आप थर्ड हैंड ऊर्जा पाने की चेष्टा करते हैं। वनस्पति से शाकाहारी पशु में, शाकाहारी पशु से मांसाहारी पशु में और फिर मांसाहारी पशु से आप में ऊर्जा पहुंचती है। हो सकता है कि कुछ लोग गिद्ध, बाज, गरुड़ आदि को खाकर ऊर्जा प्राप्त करना चाहें। जैसी उनकी इच्छा ! वे पूर्ण स्वतंत्र हैं।एक तर्क यह दिया गया है कि पेड़-पौधों को भी कष्ट होता है। ऐसे में पशुओं को कष्ट पहुंचाने की बात स्वयमेव निरस्त हो जाती है। इस बारे में विनम्र निवेदन है कि हम पेड़ से फल तोड़ते हैं तो पेड़ की हत्या नहीं कर देते। फल तोड़ने के बाद भी पेड़ स्वस्थ है, प्राणवान है, और फल देता रहेगा। आप गाय, भैंस, बकरी का दूध दुहते हैं तो ये पशु न तो मर जाते हैं और न ही दूध दुहने से बीमार हो जाते हैं। दूध को तो प्रकृति ने बनाया ही भोजन के रूप में है। पर अगर हम किसी पशु के जीवन का अन्त कर देते हैं तो अनेकों धर्मों में इसको बुरा माना गया है। आप इससे सहमत हों या न हों, आपकी मर्ज़ी।
चिकित्सा वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि प्रत्येक शरीर जीवित कोशिकाओं से मिल कर बनता है और शरीर में जब भोजन पहुंचता है तो ये सब कोशिकायें अपना-अपना भोजन प्राप्त करती हैं व मल त्याग करती हैं। यह मल एक निश्चित अंतराल पर शरीर बाहर फेंकता रहता है। यदि किसी जीव की हत्या कर दी जाये तो उसके शरीर की कोशिकायें मृत शरीर में मौजूद नौरिश्मेंट को प्राप्त करके यथासंभव जीवित रहने का प्रयास करती रहती हैं। यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे किसी बंद कमरे में पांच-सात व्यक्ति ऑक्सीजन न मिल पाने के कारण मर जायें तो उस कमरे में ऑक्सीजन का प्रतिशत शून्य मिलेगा। जितनी भी ऑक्सीजन कमरे में थी, उस सब का उपभोग हो जाने के बाद ही, एक-एक व्यक्ति मरना शुरु होगा। इसी प्रकार शरीर से काट कर अलग कर दिये गये अंग में जितना भी नौरिश्मेंट मौजूद होगा, वह सब कोशिकायें प्राप्त करती रहेंगि और जब सिर्फ मल ही शेष बच रहेगा तो कोशिकायें धीरे धीरे मरती चली जायेंगी। ऐसे में कहा जा सकता है कि मृत पशु से नौरिश्मेंट पाने के प्रयास में हम वास्तव में मल खा रहे होते हैं। पर जो बायोलोजिकल तथ्य हैं, वही बयान कर रहा हूं।
भारत जैसे देश में, जहां मानव के लिये भी स्वास्थ्य-सेवायें व स्वास्थ्यकर, पोषक भोजन दुर्लभ हैं, पशुओं के स्वास्थ्य की, उनके लिये पोषक व स्वास्थ्यकर भोजन की चिन्ता कौन करेगा?

धर्म -सुखी जीवन का एक मात्र आधार

धर्म क्या है ? जीवन क्या है ? जीवन मे संघर्ष क्यू होते है ? व सुख केसे प्राप्त किया जा सकता है ! बहुत खूब सोचा व समझा ! ओर जिस निष्कर्ष पर पहुंचा अपने विचारो को आप तक प्रेषित कर रहा हु !  

जीवन का अर्थ है संघर्ष, परिस्थितियों का आरोह  जिसे परिवर्तन भी कहा जा सकता है। अर्थात् परिवर्तन ही जीवन है और जीवन ही परिवर्तन। जीवन में दैत्यता, कुटिलता के आकस्मिक एवं अप्रत्याशित आक्रमणों को सहन करना अस्वाभाविक नहीं। परेशानियों, कष्टों और आपदाओं की बाँधी आती है तो मानव शक्ति को कुण्ठित कर देती है, फलस्वरूप बुद्धि निष्क्रिय हो जाती है, नैराश्य पूर्ण मानसिकता मनुष्य को किंकर्तव्यविमूढ़ बना देती है, ऐसी विषय परिस्थिति में असहाय, निस्सहाय व्यक्ति यह चिन्तन करता है कि हमारा सहायक कौन हो सकता है? हमारी रक्षा कौन कर सकता है? हमारा उद्धार कौन कर सकता है? साथ ही सत्पथ ज्ञान कोन करा सकता है? उत्तर एक ही है-धर्म। सुख-शान्ति की परिस्थितियों का जनक भी धर्म की समाप्ति हो जाएगी उस दिन सर्वनाश को कोई न रोक सकेगा। धर्म को परिभाषित करते हुए कहना ठीक होगा  कि सम्पूर्ण विश्व मेरा देश, सम्पूर्ण मानवता मेरा बन्धु है और सम्पूर्ण भलाई ही मेरा धर्म है।

वर्तमान युग में धर्म के प्रति लोगों की अनास्था बढ़ रही है जिसका परिणाम यह हो रहा है कि नैतिक एवं साँस्कृतिक मूल्यों, मान्यताओं में भी अवमूल्यन निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इसी के कारण मनुष्य की सुख-शान्ति भंग होती जा रही है, सर्वत्र असन्तोष का वातावरण व्याप्त है।मेरी  दृष्टि में एक ही उपाय परिकरण में सहायक सिद्ध हो सकता है- धर्म। वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण आदि धर्मशास्त्रों में इसी तथ्य का निरूपण हुआ है। धर्म प्रधान युग अर्थात् सत्प्रवृत्तियों की बहुलता वाला युग सतयुगकहलाता है, सतयुग में सुख और सम्पन्नता का आधार धर्म होता है। भगवान् राज जब वन-गमन के लिए तत्पर हुए तो जीवन रक्षा की कामना से उन्होंने माता कौशल्या से आशीर्वाद की आकांक्षा व्यक्त की। विदुषी माता ने उस समय यह कहा कि-हे राम ! तुमने जिस धर्म की प्रीति और नियम का पालन किया है, जिसके अनुसरण से तुम बन जाने को तत्पर हुए हो, वही धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।”“घृयते इति धर्मःअर्थात् जो धारण किया जाये वही धर्म है। धर्मशब्द ध्वैधातु से बना है जिसका अर्थ है-धारण करनाअर्थात् जो मनुष्य को धारण करे, शुद्ध और पवित्र बनाकर उसकी रक्षा करे, वही धर्म है। वास्तविक धर्म में व्यक्ति जिन तत्त्व की साधना करता है वह है परोपकार, दूसरों की सेवा, सत्य, संयम और कर्तव्य-पालन आदि। धर्मचरका अभिप्राय भी तो यही है कि सदाचरण, धर्माचरण, सत्याचरण आदि मानव जीवन में व्यावहारिक रूप पा सकें।जो व्यक्ति धर्म का पालक, पोषक होता है वही सच्चा धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी है। धर्म-निष्ठ व्यक्ति के अन्तःकरण में वह शक्ति होती है जो असंख्य विघ्न−बाधाओं, प्रतिगामी शक्तियों को पराजित कर देती है। धार्मिक मनुष्य के जीवन में एक विशेष प्रकार का विलक्षण आह्लाद भरा रहता है, वह सर्वत्र सौरभ बिखेरता चलता है, उसकी उमंग एवं उल्लास से आस-पास का वातावरण भी प्रभावित होता है। धर्म की प्रणवता निर्जीव को भी सजीव बनाने में समर्थ होती है। धर्म मनुष्य का वह अग्नि तेज है जो प्रकाश उत्पन्न करता है उसमें क्रियाशीलता एवं जिजीविषा जागृत रखता है। धर्मशील व्यक्ति विभिन्न विपदाओं, विघ्न−बाधाओं में भी हिमालय के समान अटल एवं समुद्र के सदृश धीर गम्भीर रहता है। संक्षेप में कहा जाय तो धर्म जीवन का प्राण और मानवीय गरिमा का पर्याय है उससे ही मानव जाति की सुख-शान्ति और व्यवस्था अक्षुण्ण रह सकती है।