मनुष्य का परम कर्तव्य है ऐसा कर्म करना जो समाज के अनुरूप हो एवं मन
तथा आत्मा को उन्नत बनाये। जिस कर्म से समाज की मर्यादा टूटे, मन और आत्मा का ह्रïस हो वह कर्म पापकर्म है। जिस कर्म से
जन, देश व
आत्मा का कल्याण हो वह सत्कर्म है। सत्कर्म में मनुष्य को संलग्न होना चाहिए।
सत्कर्म ही मनुष्य का कर्तव्य है। सत्कर्म से अंत:करण शुद्घ होता है सभी
प्रकार के विकार दूर होते है। परंतु यदि कर्तव्य की सीमाएं बांध दे तो कभी कभी कर्तव्य मार्ग इतना मधुर नहीं होता। इसलिए कर्तव्य चक्र को मधुर बनाने के लिए उसके
पहियों पर प्रेम और दया का तेल लगाना न भूलें। यदि प्रेम, उदारता और दया का भाव आयेगा तो कर्तव्य के मार्ग पर आने वाली सभी बाधाएं कट जायेंगी।कोई
भी कार्य जब दृढ़ आसक्ति से किया जाता है तो वह कर्तव्य बन जाता है। कर्तव्य में आसक्ति का आवेग होता है। जिस प्रकार भारतीय
संस्कृति कहती है कि पति पत्नी को विवाह के बाद धर्मानुकूल आचरण रखना चाहिए। अपने जीवनसाथी के
प्रति ईमानदार रहना चाहिए। संबंध में झूठ, छल व कपट नहीं होना चाहिए। विवाह को
प्रेम का सघन संबंध बनायें तो उस संबंध को पूर्णता से निभाने का कर्म कर्तव्य रूप में परिणित हो जाता है। उसी आसक्ति के आवेग के कारण पति
पत्नी जीवन पर्यन्त एक साथ रहते है।किसी भी कार्य को निष्ठïपूर्ण करना कर्तव्य कहलाता है। मनुष्य का परम कर्तव्य है सत्मार्ग पर चलें। झूठ व अनैतिकता
से बचें। आपका मानसिक और नैतिक दर्ष्टीकोण आपके व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करता है। अच्छे
व्यक्तित्व का निर्माण करना मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए। अच्छे व्यक्तित्व का
व्यक्ति समाज में उच्च पद को प्राप्त होता है। जिस समाज में हम रहते है उसके
आदर्शों का पालन करना मनुष्य का कर्तव्य है।प्रकृति ने जब हमें जहां भी जिस
स्वरूप में, जिस
परिस्थितियों में जन्म दिया उसके साथ-साथ दूसरों के साथ ताल-मेल बिठाने के लिए कुछ कर्तव्य विधान किये है। हमें उन कर्तव्य का विरोध नहीं करना चाहिए। जैसे
प्रकृति ने माता पिता के लिए
अपनी संतान के प्रति कुछ कर्तव्य विधान कियें है। एक शिक्षक का अपने शिष्य के प्रति, एक नेता का अपने रास्ट्र के प्रति इत्यादि इत्यादि। हमारा परम
कर्तव्य है प्रकृति के द्वारा विधान किये गये
कर्तव्यो
का निष्ठïपूर्ण पालन करें उनसे चूकें नहीं। कार्य चाहे छोटा हो या बड़ा।
मनुष्य की उच्चता और नीचता का अनुमान उसके कार्य के स्तर से न लगायें बल्कि इसे
महत्व दें कि वह अपना कर्म किस भाव से करता है।यदि मकान में ऊंची रखी ईंट उपयोगी
है तो नीचे रखी ईंट भी उपयोगी है। यदि सभी ईंटे ऊंची रख दी जायेंगी तो मकान खड़ा
नहीं हो पायेगा। इसलिए कोई भी किया गया कार्य ऊंचा हो या नीचा नहीं होता। प्रत्येक
कार्य उपयोगी होता है। यदि सभी ऊंच वर्ग के कार्य करेंगे, तो प्रकृति के स्वस्थ चक्र में रूकावट
आ जायेगी। वास्तव में, कार्यों
को छोटे और बड़े वर्ग में विभाजित करना ही एक गलत दृष्टिकोण है। कर्म जो भी करें
पर सही व सत्यपूर्ण दृष्टिकोण से करें। किसी भी व्यक्ति का अंकलन उसके द्वारा
संपादित किये गये कार्य से नहीं करें बल्कि उसक उस कार्य के प्रति भाव और समर्पण देखें। मनुष्य के अपने कार्य के प्रति भाव उसकी
आत्मा को व उसके व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करते है। इसलिए कार्य जो भी करें पर
उसे कर्तव्यबद्घ होकर करें तो स्वत: ही उच्च
श्रेणी का हो जाता है। छोटा कार्य भी नियमितता से किया गया है, आदर्शों के अनुकूल किया गया है, सबके हित में किया गया है तो वह भी
उच्च हो जाता है। यदि अच्छा कार्य भी आदर्शो के उल्लघंन करके किया जाये, नियमों को तोडक़र किया जाये तो निम्र
श्रेणी का हो जाता है। इसलिए मनुष्य का परम कर्तव्य है कोई भी कार्य करें उसे पूर्णता से
करे। पूर्ण कार्य वही है जो आदर्शबद्घ है, नियमित है, श्रद्घापूर्ण है, प्रेमपूर्ण है, हितपूर्ण है। पूर्ण कार्य ही सत्कर्म
बन जाता है। पूर्णता से किये गये कार्य में सात्विकता आ ही जाती है। सात्विक कर्म का
लक्षण ही प्रेम, निष्ठï और समर्पण है। यदि किसी भी कार्य को आसक्त होकर
नहीं किया तो वह न कर्तव्य में परिणत होता है न
पूर्णता में। कर्तव्य की बात हो रही है तो एक और बात की चर्चा करना
बहुत अनिवार्य है कि कर्तव्य ईश्वर के द्वारा विधान किये गये है आपके समीप के सभी व्यक्ति भी आप
ही के समान ईश्वर द्वारा विधान किये गये कर्तव्य का पालन कर रहें है। इसलिए किसी की
निंदा न करें, किसी से
ईष्र्या न करें, किसी को
हानि पहुंचाने की चेष्टï न करें।
यह केवल प्रत्येक संन्यासी का ही नहीं वरन्ï सभी नर व नारियों का कर्तव्य है। प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करना
आपके कर्तव्य को
पूजा बना देता है। जब कर्तव्य पूजा बन जाता है तो वह आत्म जागरण हो जाता है, वही परम कल्याण का मार्ग है। जिस
कार्य से किसी का अहित न हो तो वह कार्य ईश्वर की ओर बढ़ाता है। जो कार्य ईश्वर की
ओर मोड़े वह सत्कर्म बन जाता है। नेक कार्यों में संलग्न होना मनुष्य का परम कर्तव्य है। नेक सोच, नेक विचार ही मन को नेक कार्यों की ओर
प्रेरित करते है। नेक सोच, नेक
विचार पैदा होते है संतों की शरण लेने से , सत्संग सुनने से, नि:स्वार्थ सेवा करने से।मनुष्य जन्म तो
ले लेता है पर उसे स्वबोध नहीं होता, वह अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक नहीं होता। इससे बड़ा
मनुष्य का दुर्भाग्य कोई नहीं है। जो व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक है, उनका निष्ठïपूर्ण पालन करता है वही ईश्वर की पूजा
है। अपने कर्तव्य का
उल्लंघन करना ईश्वर का अपमान है।अब यह प्रश्न उठता है कि कार्य में जागरूकता, निष्ठï व प्रेम कैसे लाया जाये?जब आप पूर्ण रूप से स्वाधीन होंगें तो
कार्य में रूचि पैदा होगी, कार्य के
प्रति प्रेम आयेगा, कार्य कर्तव्य में परिणत हो जायेगा। यदि आप दास होकर
कार्य करेंगें तो कार्य के प्रति रूझान कम हो जायेगा। जिस भी कार्य में स्वार्थ, लालच आ जाता है वह कार्य दास कार्य बन
जाता है क्योंकि उसमें आत्मा की उन्नति नहीं होती। आत्मा की उन्नति होती है
ईश्वरीय गुणों का विकास होने से। सर्वप्रथम ईश्वरीय गुण है आप सबका भला करें। जो सबका
भला करता है ईश्वर उसका भला करता है। ईश्वरीय गुणों का विकास आत्मा में आनंद की
अनुभूति कराते है। नि:स्वार्थ व बिना किसी लालच के भाव से किया गया कार्य
स्वाधीनता के पंख लगा देता है। मनुष्य आनंद की ऊंचाईयां छूने लगता है। जिस कार्य
में स्वार्थ आ जाये, लालच आ
जाये वंहा
पराधीनता की बेडिय़ा घर जाती है। वहां आनंद की ऊंचाईयों तक पहुंचना संभव नहीं है। जिस
कार्य में समानता का भाव न आये वहां प्रेम पैदा हो ही नहीं सकता। स्वार्थ जीवन का
सबसे बड़ा विकार है जो आत्मा के विकास और उन्नति में बाधक है। इसलिए निष्पक्ष एवं
नि:स्वार्थ भाव से कार्य करें तो प्रेम बरसेगा। जहां प्रेम बरसता है वही आत्मा उत्तम
है, वहीं
ईश्वर का निवास है। जहां ईश्वर का निवास है वहां परमसुख ही परमसुख है। जो कार्य केवल उच्च पद, नाम और यश के लिए किया जाये वह भी कभी
आनंद की अनुभूति कराने में सहयोगी नहीं है। जो कर्म नाम व यश के लिए किये जाते है
वहां तनाव, निष्कारण
भय, ईष्र्या, छल व कपट का विकास होना शुरु हो जाता
है। ये सब दुर्गुण है और ईश्वर से दूरियों को बढ़ा देते है। दु:खों को जन्म देते
है।स्मरण रहे, समस्त
कर्मों का उदेश्य मन
के भीतर स्थित शक्ति को प्रकट व आत्मा को जाग्रत करना होना चाहिए। इसके साथ ही
मनुष्य का कर्तव्य बनता
है कि कर्म को करता चला जाये बिना किसी फल की इच्छा के, बिना कोई आशा किये। जगत में नाम
प्राप्ति की चेष्टï करना
व्यर्थ है जो जगत आज मान दे रहा है वही कल अपमानित भी कर सकता है। समाज का समर्थन
मिल जाये तो मूर्ख भी बहादुर हो जाता है और समाज का समर्थन न मिलें तो बुद्घिशील
और विद्वान भी मूर्ख हो जाता है। इसलिए जगत तो मिथ्या है। मिथ्या में भ्रमित हो
राह नहीं भूलनी है। अपने आस पास के लोगो से मिली प्रशंसा या निंदा की बिना परवाह
किये अपने कत्र्तव्यों का पालन करते हुए कर्मों को संपादित करते जायें। समाज में
यश मिले या अपयश, आप एक
समान रहे, न चिंतित
हो, न व्यथित
हो, न
प्रसन्न हो। जो मनुष्य बिना मान अपमान की इच्छा करते ते हुए अपने कर्मों को संपादित करता
चला जाता है वह त्याग की मूर्ति है, वह संत चरित्र का परिचय है। संत होने
के लिए संसार को त्यागना
जरूरी नहीं है। जो नि:स्वार्थ होकर, बिना अहं से कार्य करता चला जाता है
वही संत है। जो कर्म को त्याग बना दे, पूजा बना दे, भोग से मुक्त हो जाये वही संत है। जो
कर्म भोग विलासिता से पूर्ण है वह दुष्कर्म है। जो कर्म आप अपनी आत्मा, अपने देश और जन कल्याण के लिए करते है
वही सत्कर्म कर्म है। कर्मयोग के इस नियम का जो पालन करता है वही सच्चा संत है।
जहां भोग नहीं है वहीं आत्म शक्ति का विकास होता है, वहीं आत्म जागरूकता पैदा होती है।मनुष्य
का परम लक्ष्य ही यही है कि वह अपने सम्मुख ईश्वर प्राप्ति का ध्येय रखे। ईश्वर का
मार्ग ही कल्याण का मार्ग है। जरूरी नहीं कि तपस्या करके, संसार त्याग कर आप ईश्वर को प्राप्त
कर सकते है। पुण्य कर्म करके भी आप ईश्वर मार्ग में संलग्न हो सकते है। कर्म कभी
नष्ट नहीं
होता। कर्मो के फल भोगने के लिए ही मनुष्य संसार में बार बार जन्म लेता है और मरता
है। पर यदि आप अपने कर्मों को नि:स्वार्थ भाव से संपादित करें तो जन्म मरण के
चक्रव्यूह से मुक्ति पा सकते है। इसी में मनुष्य का परम कल्याण निहित है।कर्म आत्म
शक्ति की अभिव्यक्ति होता है। बिना विचार और चिंतन के कर्म संपादित नहीं होता।
इसलिए आत्म शक्ति का जागरण करना आवश्यक है। जागरण होगा जब आदर्श जुड़ेंगे,
नेक सोच व विचार उत्पन्न होंगें
तभी मन सत्कर्मों के लिए प्ररित होगा। आत्म शक्ति के जागरण के लिए विचारों का
शुद्घिकरण करना होगा। जीवन की सार्थकता इसी में है मन में सात्विक विचारों का वास
रहे, सदा
लक्ष्य आदर्शों से जुड़ा रहे।मनुष्य का परम लक्ष्य है आत्म जागरण और ईश्वर को
ध्येय बनाते हुए आदर्श को अपनाते हुए, अपने कर्मों को संपादित करें
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