भारतीय संस्कृति, मूल्यों की रक्षा करना हिंदी पत्रकारिता की सीरत है। हिंदी पत्रकारिता अपने शुरूआती समय से ही स्वतंत्रता के महान लक्ष्य को समर्पित रही। स्वतंत्रता संग्राम के लिए जनमानस को तैयार करने में हिंदी पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान था। लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे लोगों ने स्वतंत्रता की देवी की आराधना के लिए पत्रकारिता को माध्यम बनाया। आजादी के पश्चात हिंदी पत्रकारिता के सामने अपनी दिशा को एक बार फिर से निर्धारित करने की चुनौती थी।उस दौर में संपादक की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी और मालिकों की भूमिका संसाधन उपलब्ध कराने तक ही सीमित थी। बाजार का दबाव कम होने के कारण पत्रकारीय मूल्यों से समझौता करने की तो कोई बात ही नहीं थी। बाजार का दबाव कम होने के कारण प्रतिस्पर्धा भी नहीं थी और प्रतिस्पर्धा की स्थिति थी भी तो बेहतर सामग्री उपलब्ध कराने को लेकर थी। उस दौर की पत्रकारिता में एक विशेषता यह भी थी कि पत्रकारिता और साहित्य में अधिक दूरी नहीं थी। साहित्य के लोग ही प्रायः पत्रकारिता के क्षेत्र में भी सक्रिय थे और पत्र-पत्रिकाओं में भी साहित्यिक रचनाओं को प्रमुखता दी जाती थी। देश में उदारवाद की लहर चलने के बाद सभी पत्र एवं पत्रिकाओं की प्रकृति व्यावसायिक होती गई।समाचार-पत्रों के लिए सबसे अधिक संकट की घड़ी आपातकाल की थी जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन किया गया और सृजन पर रोक लगा दी गई। यह पत्रकारों के लिए अंधेरी सुरंग में से गुज़रने जैसा कठोर यातनादायक अनुभव था। धीरे-धीरे पत्रों पर भी व्यावसायिकता हावी होने लगी। पत्रों को स्थापित होने के लिए अर्थ की आवश्यकता हुई और अर्थ की सत्ता उद्योगपतियों के हाथों में होने के कारण इनके द्वारा ही पत्रों को प्रश्रय प्राप्त हुआ। इस दौर में आदर्शों की आधारशिला के बजाय पत्रकारिता ने बाजार के सहारे खड़े रहने का प्रयत्न किया। अखबार अब जनजागरण के लिए नहीं मुनाफे के लिए भी निकाले जाने लगे है ! ऐसे में उद्योगपतियों के हितों को ध्यान में रखना पत्रों का कर्त्तव्य हो गया। पूंजीपतियों के हाथ में होने वाले पत्रों में बौद्धिकता का स्तर गिरने लगा अब पत्रकारिता स्पष्टतः एक व्यापार बन गई है जो पाठकों को सही जानकारी देने तथा जनता की आवाज बनने के बजाय लाभ-हानि को ज्यादा महत्त्व देती है। जिस तरह दूसरे व्यापारों में लागत और लाभांश का महत्त्व और हिसाब होता है। उसी तरह पत्रकारिता में भी होने लगा है जिससे यह स्वाभाविक है कि अलग-अलग स्तरों के दबाव से बहुत से समझौते करने पड़ते हैं जो प्रायः पाठक को सही खोजपूर्ण जानकारी देने के उद्देश्य को पूरा करने नहीं देते।इसके बावजूद पत्र-पत्रिकाएँ आज भी किसी सीमा तक अपने दायित्व को पूर्ण कर रही हैं। पत्र-पत्रिकाएँ मानव समाज की दिशा-निर्देशिका मानी जाती हैं। समाज के भीतर घटती घटनाओं से लेकर परिवेश की समझ उत्पन्न करने का कार्य पत्रकारिता का प्रथम व महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है। राजनीतिक-सामाजिकचिंतन की समझ पैदा करने के साथ विचार की सामर्थ्य पत्रकारिता के माध्यम से ही उत्पन्न होती है। समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं का मूल उद्देश्य सदैव जनता की जागृति और जनता तक विचारों का सही संप्रेषण करना रहा है। समाचार पत्र का पहला उद्देश्य जनता की इच्छाओं, विचारों को समझना और उन्हें व्यक्त करना है। दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना है। तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करना है।
उत्तम जैन (विद्रोही )
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