. मैने विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते पढ़ा है कि ऊर्जा का
प्राथमिक स्रोत सूर्य है। पेड़-पौधे फोटो-सिंथेसिस के माध्यम से अपना भोजन
बना सकते हैं पर जीव-जंतु नहीं बना सकते। ऐसे में वनस्पति से भोजन प्राप्त
कर के हम प्रथम श्रेणी की ऊर्जा प्राप्त कर लेते हैं। दुनिया के
जिन हिस्सों में वनस्पति कठिनाई से उत्पन्न होती है - विशेषकर रेगिस्तानी
इलाकों में, वहां मांसाहार का प्रचलन अधिक होना स्वाभाविक ही है। आयुर्वेद जो मॉडर्न मॅडिसिन की तुलना में कई हज़ार वर्ष पुराना
आयुर्विज्ञान है - कहता है कि विद्यार्थी जीवन में सात्विक भोजन करना
चाहिये। सात्विक भोजन में रोटी, दाल, सब्ज़ी, दूध, दही आदि आते हैं। गृहस्थ
जीवन में राजसिक भोजन उचित है। इसमें गरिष्ठ पदार्थ - पूड़ी, कचौड़ी,
मिष्ठान्न, छप्पन भोग आदि आते हैं। सैनिकों के लिये तामसिक भोजन की अनुमति
दी गई है। मांसाहार को तामसिक भोजन में शामिल किया गया है। राजसिक भोजन यदि
बासी हो गया हो तो वह भी तामसिक प्रभाव वाला हो जाता है, ऐसा आयुर्वेद का
कथन है।भोजन के इस वर्गीकरण का आधार यह बताया गया है कि हर प्रकार
के भोजन से हमारे भीतर अलग - अलग प्रकार की मनोवृत्ति जन्म लेती है। जिस
व्यक्ति को मुख्यतः बौद्धिक कार्य करना है, उसके लिये सात्विक भोजन
सर्वश्रेष्ठ है। सैनिक को मुख्यतः कठोर जीवन जीना है और बॉस के आदेशों का
पालन करना होता है। यदि 'फायर' कह दिया तो फयर करना है, अपनी विवेक बुद्धि
से, उचित अनुचित के फेर में नहीं पड़ना है। ऐसी मनोवृत्ति तामसिक भोजन से
पनपती है, ऐसा आयुर्वेद का मत है।यदि आप कहना चाहें कि इस वर्गीकरण
का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है तो मैं यही कह सकता हूं कि बेचारी मॉडर्न
मॅडिसिन अभी प्रोटीन - कार्बोहाइड्रेट - वसा से आगे नहीं बढ़ी है। जिस दिन
भोजन व मानसिकता का अन्तर्सम्बन्ध जानने का प्रयास करेगी, इस तथ्य को ऐसे
ही समझ जायेगी जैसे आयुर्वेद व योग के अन्य सिद्धान्तों को समझती जा रही
है। तब तक आप चाहे तो प्रतीक्षा कर लें, चाहे तो आयुर्वेद के सिद्धान्तों
की खिल्ली भी उड़ा सकते हैं।जब हम मांसाहार लेते हैं तो वास्तव में
पशुओं में कंसंट्रेटेड फॉर्म में मौजूद वानस्पतिक ऊर्जा को ही प्राप्त
करते हैं क्योंकि इन पशुओं में भी तो भोजन वनस्पतियों से ही आया है। हां,
इतना अवश्य है कि पशुओं के शरीर से प्राप्त होने वाली वानस्पतिक ऊर्जा
सेकेंड हैंड ऊर्जा है।यदि आप मांसाहारी पशुओं को खाकर ऊर्जा
प्राप्त करते हैं तो आप थर्ड हैंड ऊर्जा पाने की चेष्टा करते हैं। वनस्पति
से शाकाहारी पशु में, शाकाहारी पशु से मांसाहारी पशु में और फिर मांसाहारी
पशु से आप में ऊर्जा पहुंचती है। हो सकता है कि कुछ लोग गिद्ध, बाज, गरुड़
आदि को खाकर ऊर्जा प्राप्त करना चाहें। जैसी उनकी इच्छा ! वे पूर्ण
स्वतंत्र हैं।एक तर्क यह दिया गया है कि पेड़-पौधों को भी कष्ट
होता है। ऐसे में पशुओं को कष्ट पहुंचाने की बात स्वयमेव निरस्त हो जाती
है। इस बारे में विनम्र निवेदन है कि हम पेड़ से फल तोड़ते हैं तो पेड़ की
हत्या नहीं कर देते। फल तोड़ने के बाद भी पेड़ स्वस्थ है, प्राणवान है, और
फल देता रहेगा। आप गाय, भैंस, बकरी का दूध दुहते हैं तो ये पशु न तो मर
जाते हैं और न ही दूध दुहने से बीमार हो जाते हैं। दूध को तो प्रकृति ने
बनाया ही भोजन के रूप में है। पर अगर हम किसी पशु के जीवन का अन्त कर देते
हैं तो अनेकों धर्मों में इसको बुरा माना गया है। आप इससे सहमत हों या न
हों, आपकी मर्ज़ी।
चिकित्सा वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि प्रत्येक शरीर जीवित कोशिकाओं से मिल कर बनता है और शरीर में जब भोजन पहुंचता है तो ये सब कोशिकायें अपना-अपना भोजन प्राप्त करती हैं व मल त्याग करती हैं। यह मल एक निश्चित अंतराल पर शरीर बाहर फेंकता रहता है। यदि किसी जीव की हत्या कर दी जाये तो उसके शरीर की कोशिकायें मृत शरीर में मौजूद नौरिश्मेंट को प्राप्त करके यथासंभव जीवित रहने का प्रयास करती रहती हैं। यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे किसी बंद कमरे में पांच-सात व्यक्ति ऑक्सीजन न मिल पाने के कारण मर जायें तो उस कमरे में ऑक्सीजन का प्रतिशत शून्य मिलेगा। जितनी भी ऑक्सीजन कमरे में थी, उस सब का उपभोग हो जाने के बाद ही, एक-एक व्यक्ति मरना शुरु होगा। इसी प्रकार शरीर से काट कर अलग कर दिये गये अंग में जितना भी नौरिश्मेंट मौजूद होगा, वह सब कोशिकायें प्राप्त करती रहेंगि और जब सिर्फ मल ही शेष बच रहेगा तो कोशिकायें धीरे धीरे मरती चली जायेंगी। ऐसे में कहा जा सकता है कि मृत पशु से नौरिश्मेंट पाने के प्रयास में हम वास्तव में मल खा रहे होते हैं। पर जो बायोलोजिकल तथ्य हैं, वही बयान कर रहा हूं।
भारत जैसे देश में, जहां मानव के लिये भी स्वास्थ्य-सेवायें व स्वास्थ्यकर, पोषक भोजन दुर्लभ हैं, पशुओं के स्वास्थ्य की, उनके लिये पोषक व स्वास्थ्यकर भोजन की चिन्ता कौन करेगा?
चिकित्सा वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि प्रत्येक शरीर जीवित कोशिकाओं से मिल कर बनता है और शरीर में जब भोजन पहुंचता है तो ये सब कोशिकायें अपना-अपना भोजन प्राप्त करती हैं व मल त्याग करती हैं। यह मल एक निश्चित अंतराल पर शरीर बाहर फेंकता रहता है। यदि किसी जीव की हत्या कर दी जाये तो उसके शरीर की कोशिकायें मृत शरीर में मौजूद नौरिश्मेंट को प्राप्त करके यथासंभव जीवित रहने का प्रयास करती रहती हैं। यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे किसी बंद कमरे में पांच-सात व्यक्ति ऑक्सीजन न मिल पाने के कारण मर जायें तो उस कमरे में ऑक्सीजन का प्रतिशत शून्य मिलेगा। जितनी भी ऑक्सीजन कमरे में थी, उस सब का उपभोग हो जाने के बाद ही, एक-एक व्यक्ति मरना शुरु होगा। इसी प्रकार शरीर से काट कर अलग कर दिये गये अंग में जितना भी नौरिश्मेंट मौजूद होगा, वह सब कोशिकायें प्राप्त करती रहेंगि और जब सिर्फ मल ही शेष बच रहेगा तो कोशिकायें धीरे धीरे मरती चली जायेंगी। ऐसे में कहा जा सकता है कि मृत पशु से नौरिश्मेंट पाने के प्रयास में हम वास्तव में मल खा रहे होते हैं। पर जो बायोलोजिकल तथ्य हैं, वही बयान कर रहा हूं।
भारत जैसे देश में, जहां मानव के लिये भी स्वास्थ्य-सेवायें व स्वास्थ्यकर, पोषक भोजन दुर्लभ हैं, पशुओं के स्वास्थ्य की, उनके लिये पोषक व स्वास्थ्यकर भोजन की चिन्ता कौन करेगा?
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