शनिवार, 2 मई 2015

गाव का कल का मेरा सफर ......

कल राजस्थान गया वेशाख महिना है ! राती जगे,देवी देवता के पुजा पाठ की धूम मची है !दो दिन रहा गाव मे सुबह शाम दोनों समय जीमण (भोज ) दाल बाटी चूरमा की धूम मची हुई है ! जन्मभूमि गाव मे तो साल भर मे एक दो बार जाना होता है ! वह भी अल्प समय एक दो दिन के लिए वेसे जन्मभूमि पर जाकर जो शुकुन मिलता है उसका कोई वर्णन तो नही कर सकता एक सुखद अहसास की अनुभूति होती है ! 43 की उम्र मे बचपन की यादे जहा संयुक्त परिवार मे दादा दादी के सानिध्य मे 35 जन का परिवार एक ही मकान मे रहते थे ! चचेरे चाचा हो या सगे चाचा , चाची , ताऊ, या ताई उनका बचपन मे जो प्यार मिलता था !उस अपनत्व का वर्णन नही कर सकता ! एक चोके पर करीब 35 परिवार के सदस्यो का खाना बनाता था ! शायद कोई दिन ऐसा नही होता जिस दिन कोई रिश्तेदार घर पर नही आया हुआ हो ! क्यूकी बड़ा परिवार आखिर कोई न कोई आता रहता पर पूरा परिवार मान मनुहार मे लगा रहता ! मुझे याद है माँ , चाचीया, ताई सब मिलकर घर मे करीब 12 महिला थी ! पर न कोई खटपट सब सुबह 5 बजे उठ जाती ! सब पर अनुशासन था दादी जी का ! कोई सुबह उठकर गट्टी मे गेंहू पीस रहा है तो कोई पानी भर रहे है कोई साफ सफाई फिर खाने की तेयारी मे लगे ! पर अब सब कुछ बदल गया ! सभी लोग व्यापार के लिए बाहर चले गए है ! घर सुनसान यदा कदा आते है ! कामवाली को बुलाया थोड़ी साफ सफाई की ! एक दो दिन रुके फिर कर्म भूमि की ओर प्रस्थान ! मेरा भी जाना हुआ कल दो दिन रुका  दिन तो गुज़र जाता है पर पडोस में दो- दिनों से फिल्मी धुनों पर 'सीताराम-सीताराम' या फिर देवरो (मंदिरो ) मे रात्रि जागरण  की लाउडस्पीकर के द्वारा कर्णभेदी कर्कश ध्वनि से रात को मन खासा अशांत हो गया . निद्रा-देवी के मान-मनौवल में खासी मशक्कत करनी पड़ी . मालूम करने पर पता चला कि यह शोर-गुल अभी कई दिनों तक झेलना बांकी है. इस तरह के आयोजन के विचार की उपज अक्सर फुरसत के क्षणों में स्थानीय लोगों के बीच सामान्य वार्तालाप के दौरान ही होता है. वैसे इससे एक फ़ायदा तो नज़र आता है कि ढोलक-हार्मोनियम के संगीतमय धुन कहें या पूजा के बहाने लोग एक-जुट तो ज़रूर होते हैं जिस दौरान सभी एक-दूसरे का हाल-चाल जान लेते हैं. इसके अलावा ना तो कोई फल मिलता है और ना ही शांति. सामाजिकता व भाईचारा की खातिर चिल्लाहट रहित तमाम रास्ते हैं जो अपनाये जा सकते हैं. यहाँ तो सवाल 'पूण्य' की कमाई का है. इस बारे में लोगों की धारणा है कि देवी देवता व पूर्वजो या 'राम-नाम' में वो शक्ति है जिसे चाहे बोलो,सुनो या सुनवाओ(भले ही जबड़न ठूँस कर), बडा ही पूण्य मिलता है.   अब भला किसकी हिम्मत कि सदियों से चली आ रही इस सर्वमान्य सोच पर सवाल उठाए. लोग मानते आ रहे हैं तो बात ठीक ही होगी... बस सम्मिलित हो जाते हैं एक अंधी-दौड़ में. अब तीव्र आवाज़ से भले ही किसी छोटे बच्चे की नींद के लिये माँ की लोरी भी नाकाम हो जाये, मध्य रात्रि में भले ही बुज़ुर्गों की उचट चुकी नींद उनका रक्त-चाप बढा दे, भले ही किसी छात्र की परीक्षा की तैयारी का सत्यानाश ही क्यों न हो जाए. इन्हें तो बस पूण्य-प्राप्ति के आगे कुछ सूझता ही नहीं. पूण्य मतलब लौकिक(व पारलौकिक) कामनाओं की पूर्ति का मिथ्या आश्वासन! ऐसे लोगों को ज्ञान,ध्यान अथवा सन्तोष जैसे शब्दों से भला क्या वास्ता. ये सारे अज्ञानतावश असन्तुष्ट लोगों के उपक्रम हैं. इस सबके बावज़ूद ऐसे लोग जीवन के आखिरी छोर तक अशांत और प्यासे ही रह जाते हैं. धार्मिक होने भ्रम में जी रहे ऐसे लोग परमात्मा का वास्तविक मर्म जाने बिना ही संसार से कूच कर जाते हैं.  

उत्तम जैन (विद्रोही )

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