आत्मा और मन क्या है ? बिना रस्सी के ही शरीर से मन बंधा
है, और मन से आत्मा बंधी हुई है| शरीर है, मन है, आत्मा है| जानने
वालों ने इसलिए मन को, शरीर और आत्मा के मध्य का सेतु भी
कहा है| मन क्या है? शरीर और आत्मा के बीच के पुल का नाम मन है| पर उससे ज्यादा अच्छा तरीका है कहने का, ‘मात्र मन ही मन है,
जिसके दो सिरों का नाम शरीर और आत्मा है’|
इस सिरे से देखो तो शरीर है, और उस सिरे
से देखो तो आत्मा है| और अगर आत्मा के सिरे से देखो तो
कहोगे कि बीज है, जो मन के रूप में विस्तार पाता है,
सूक्ष्म विस्तार| और फिर शरीर के रूप में स्थूल
विस्तार पाता है तो संसार बन जाता है|
अपने सारे दिन की
बातचीत में मनुष्य प्रतिदिन न जाने कितनी बार ‘ मैं ’ शब्द का प्रयोग करता है | परन्तु यह एक
आश्चर्य की बात है कि प्रतिदिन ‘ मैं ’ और ‘ मेरा ’ शब्द का अनेकानेक
बार प्रयोग करने पर भी मनुष्य यथार्थ रूप में यह नहीं जानता कि ‘ मैं ’ कहने वाले सत्ता का स्वरूप क्या है, अर्थात ‘ मैं’ शब्द जिस वस्तु का
सूचक है, वह क्या है ? आज मनुष्य ने साइंस
द्वारा बड़ी-बड़ी शक्तिशाली चीजें तो बना डाली है, उसने संसार की अनेक
पहेलियों का उत्तर भी जान लिया है और वह अन्य अनेक जटिल समस्याओं का हल ढूंढ
निकलने में खूब लगा हुआ है, परन्तु ‘ मैं ’ कहने वाला कौन है, इसके बारे में वह
सत्यता को नहीं जानता अर्थात वह स्वयं को नहीं पहचानता | आज किसी मनुष्य से पूछा जाये कि- “आप कौन है ?” तो वह झट अपने शरीर
का नाम बता देगा अथवा जो धंधा वह करता है वह उसका नाम बता देगा |वास्तव में ‘मैं’ शब्द शरीर से भिन्न चेतन सत्ता ‘आत्मा’ का सूचक है मनुष्य (जीवात्मा) आत्मा और शरीर को मिला कर बनता है
| जैसे शरीर पाँच तत्वों (जल, वायु, अग्नि, आकाश, और पृथ्वी) से बना हुआ होता है वैसे ही आत्मा मन, बुद्धि और संस्कारमय होती है | आत्मा में ही विचार
करने और निर्णय करने की शक्ति होती है तथा वह जैसा कर्म करती है उसी के अनुसार
उसके संस्कार बनते है | आत्मा एक चेतन एवं अविनाशी ज्योति-बिन्दु है जो
कि मानव देह में भृकुटी में निवास करती है | जैसे रात्रि को आकाश
में जगमगाता हुआ तारा एक बिन्दु-सा दिखाई देता है, वैसे ही
दिव्य-दृष्टि द्वारा आत्मा भी एक तारे की तरह ही दिखाई देती है | इसीलिए एक प्रसिद्ध पद में कहा गया है- “भृकुटी में चमकता है एक अजब तारा, गरीबां नूं साहिबा
लगदा ए प्यारा |” आत्मा का वास भृकुटी में होने के कारण ही मनुष्य
गहराई से सोचते समय यही हाथ लगता है | जब वह यश कहता है कि
मेरे तो भाग्य खोटे है, तब भी वह यही हाथ लगता है | आत्मा का यहाँ वास होने के कारण ही भक्त-लोगों में यहाँ ही
बिन्दी अथवा तिलक लगाने की प्रथा है | यहाँ आत्मा का
सम्बन्ध मस्तिष्क से जुड़ा है और मस्तिष्क का सम्बन्ध सरे शरीर में फैले
ज्ञान-तन्तुओं से है | आत्मा ही में पहले संकल्प उठता है और फिर
मस्तिष्क तथा तन्तुओं द्वारा व्यक्त होता है | आत्मा ही शान्ति
अथवा दुःख का अनुभव करती तथा निर्णय करती है और उसी में संस्कार रहते है | अत: मन और बुद्धि आत्म से अलग नहीं है | परन्तु आज आत्मा स्वयं को भूलकर देह- स्त्री, पुरुष, बूढ़ा जवान इत्यादि मान बैठी है | यह देह-अभिमान ही दुःख का कारण है |उपरोक्त रहस्य को मोटर के ड्राईवर के उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट
किया गया है | शरीर मोटर के समान है तथा आत्मा इसका ड्राईवर है, अर्थात जैसे ड्राईवर मोटर का नियंत्रण करता है, उसी प्रकार आत्मा शरीर का नियंत्रण करती है | आत्मा के बिना शरीर निष्प्राण है, जैसे ड्राईवर के
बिना मोटर | अत: परमपिता परमात्मा कहते है कि अपने आपको
पहचानने से ही मनुष्य इस शरीर रूपी मोटर को चला सकता है और
अपने लक्ष्य (गन्तव्य स्थान) पर पहुंच सकता है | अन्यथा जैसे कि
ड्राईवर कार चलाने में निपुण न होने के कारण दुर्घटना का शिकार बन जाता है और कार
उसके यात्रियों को भी चोट लगती है, इसी प्रकार जिस
मनुष्य को अपनी पहचान नहीं है वह स्वयं तो दुखी और अशान्त होता ही है, साथ में अपने सम्पर्क में आने वाले मित्र-सम्बन्धियों को भी
दुखी व अशान्त बना देता है | अत: सच्चे सुख व सच्ची शान्ति के लिए स्वयं को
जानना अति आवश्यक है
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