गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

रिश्ता व परिवार का महत्व

आजकल की व्यस्त जिंदगी में लोगों के पास समय कम है। यह मेने स्वयं अनुभव किया है ! दिनभर अपने व्यवसाय मे व्यस्त रहना ! एक समाचार पत्र का प्रबंधन भी करना ओर फिर लेखन का शोक इतने कार्य करने के बाद कुछ देर फेसबूक व्हट्स अप भी देखना होता है ! अपने पत्नी बच्चो व माता पिता के लिए कहा समय निकाल पाते है ! कटु सत्य है की यह एक पारिवारिक अन्याय भी है पर क्या करे सत्य को झुठला नही सकता ! यह सिर्फ मेरा ही नही शायद मेरा अधिकतर पाठको ओर मित्रो का यही हाल है ! 
इसके कारण रिश्तों की गर्मजोशी भी कम होती जा रही है। लोग आजकल अपने आपमें इतने मशगूल रहते हैं कि उन्हें आसपास अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों तक का एहसास नहीं रहता ! अकसर हम व्यस्तता के कारण पारिवारिक जिंदगी को प्राथमिकता देना बंद कर देते हैं ! वेसे आजकल व्यस्तता कार्य से ज्यादा व्हट्स अप , फेसबूक पर ज्यादा रहती है ! जो कलह पैदा करती है। सच्ची व निश्चल  दोस्ती में हम जीवन का असीम सुख व शांति पा सकते हैं। जीवन संघर्ष में व्यस्त होने पर भी कुछ घड़ियाँ सब कुछ भूलकर हम मित्रों के साथ बिताकर ही जीवन का आनंद बटोर सकते हैं। यही मित्र जीवन पर्यंत हमारे लिए भावनात्मक सहारा व सुरक्षा का एहसास होते हैं। अतः हम सच्चे दोस्त बनाने   का प्रयास करे व स्वयं भी अच्छे व सच्चे दोस्त साबित हो तभी दोस्ती का दर्जा तमाम रिश्तों में ऊँचा कहा जा सकता है।
 तीन-चार वर्ष की उम्र में जब बच्चा माँ की गोद से उतर बाहरी दुनिया में प्रवेश करता है तब हमउम्र दोस्त ही उसके सुरक्षा-कवच होते हैं। उन्हीं में वह सुरक्षित अनुभव करते हुए सहज रूप से संसार में प्रवेश करता है। वह निश्चलदोस्त पड़ोसी हो सकता है या फिर विद्यालय का कोई साथी। बचपन की दोस्ती रबर, पेंसिल, चॉकलेट या खिलौने के आदान-प्रदान से प्रारंभ होती है व यहीं से व्यक्ति चीजों को 'शेयर' करने की, दूसरों के काम आ सकने की व दूसरों के लिए कुछ कर सकने की शिक्षा नैसर्गिक रूप से पाता है।मनुष्य सांसारिक जीवन मे जन्म के साथ ही अनेक रिश्तों के बंधन में बंध जाता है और माँ-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, नाना-नानी जैसे अनेक रिश्तों को जिवंत करता है। इन्ही रिश्तों के ताने-बाने से ही परिवार का निर्माण होता है। कई परिवार मिलकर समाज बनाते हैं और अनेक समाज सुमधुर रिश्तों की परंपरा को आगे बढाते हुए देश का आगाज करते हैं। सभी रिश्तों का आधार संवेदना होता है, अर्थात सम और वेदना का यानि की सुख-दुख का मिलाजुला रूप जो प्रत्येक मानव को धूप - छाँव की भावनाओं से सरोबार कर देते हैं।
 रक्त सम्बंधी रिश्ते तो जन्म लेते ही मनुष्य के साथ स्वतः ही जुङ जाते हैं। परन्तु कुछ रिश्ते समय के साथ अपने अस्तित्व का एहसास कराते हैं। दोस्त हो या पङौसी, सहपाठी हो या सहर्कमी तो कहीं गुरू-शिष्य का रिश्ता।रिश्तों की सरिता में सभी भावनाओं और आपसी प्रेम की धारा में बहते हैं। अपनेपन की यही धारा इंसान के जीवन को सबल और यथार्त बनाती है, वरना अकेले इंसान का जीवित रहना भी संभव नही है। सुमधुर रिश्ते ही इंसानियत के रिश्ते का शंखनाद करते है इंसानी दुनिया में एक दूसरे के साथ जुङाव का एहसास ही रिश्ता है, बस उसका नाम अलग-अलग होता है। समय के साथ एक वृक्ष की तरह रिश्तों को भी संयम, सहिष्णुता तथा आत्मियता रूपी खाद पानी की आवश्यकता होती है। परन्तु आज की आधुनिक शैली में तेज रफ्तार से दौङती जिंदगी में बहुमुल्य रिश्ते कहीं पीछे छुटते जा रहे हैं। स्वयं के अनुभव  की वकालत करने वाले लोगों के लिए रिश्तों की परिभाषा ही बदल गई है। उनके लिए तो सबसे बड़ा रुपया है किसी भी रिश्ते में धूप-छाँव का होना सहज प्रक्रिया है किन्तु कुछ रिश्ते तो बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, वो तभी तक आपसे रिश्ता रखते हैं जबतक उनको आपसे काम है या आपके पास पैसा है।  उनकी डिक्शनरी में भावनाओं और संवेदनाओं जैसा कोई शब्द नही होता। ऐसे रिश्ते मतलब निकल जाने पर इसतरह गायब हो जाते हैं, जैसे गधे के सर से सिंग। परन्तु कुछ लोग अनजाने में ही इस तरह के रिश्तों से इस तरह जुङ जाते हैं कि उसके टूटने पर अवसाद में भी चले जाते हैं। कुछ लोग रिश्तों की अनबन को अपने मन में ऐसे बसा लेते हैं जैसे बहुमुल्य पदार्थ हो। इंसानी प्रवृत्ति होती है कि मनुष्य, रिश्तों की खटास और पीढा को  अपने जेहन में रखता है और उसका पोषण करता है।
 जिसका मनुष्य के स्वास्थ पर बुरा असर पङता है। इस तरह की नकारात्मक यादें तनाव बढाती हैं। जो हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली की क्षमता को कम करता है। परिणाम स्वरूप मनुष्य कई बिमारियों से ग्रसित हो जाता है।  युवावर्ग को खासतौर से ऐसे रिश्तों से परहेज करना चाहिए जो अकेलेपन और स्वार्थ भावनाओं की बुनियाद पर बनते हैं क्योंकि ऐसे रिश्ते दुःख और तनाव के साथ कुंठा को भी जन्म देते है ! जीवन में ज्यादा रिश्ते होना जरूरी नही है,  पर जो रिश्ते हैं उनमे जीवन होना जरूरी है !रिश्तों का जिक्र हो और पति-पत्नी के रिश्तों की बात न हो ये संभव नही है क्योंकि ये रिश्ता तो पूरे परिवार की मधुरता का आधार होता है। इस रिश्ते की मिठास और खटास दोनो का ही असर बच्चों पर पङता है।  कई बार ऐसा होता है कि, छोटी-छोटी नासमझी  रिश्ते को कसैला बना देती है। जबकि पति-पत्नी का रिश्ता एक नाजुक पक्षी की तरह  अति संवेदनशील होता है। जिसे अगर जोर से पकङो तो मर जाता है, धीरे से पकङो अर्थात उपेक्षित करो तो दूर हो जाता है। लेकिन यदि प्यार और विश्वास से पकङो तो उम्रभर साथ रहता है।कई बार आपसी रिश्ते जरा सी अनबन और झुठे अंहकार की वजह से क्रोध की अग्नी में स्वाह हो जाते हैं।
 रिश्तों से ज्यादा उम्मीदें और नासमझी से हम में से कुछ लोग अपने रिश्तेदारों से बात करना बंद कर देते हैं। जिससे दूरियां इतनी बढ जाती है कि हमारे अपने हम सबसे इतनी दूर आसमानी सितारों में विलीन हो जाते हैं कि हम चाहकर भी उन्हे धरातल पर नही ला सकते किसी ने बहुत सही कहा हैः-  "यदि आपको किसी के साथ उम्रभर रिश्ता निभाना है तो, अपने दिल में एक कब्रिस्तान बना लेना चाहिए। जहाँ सामने वाले की गलतियों को दफनाया जा सके।" कोई भी रिश्ता आपसी समझदारी और निःस्वार्थ भावना के साथ परस्पर प्रेम से ही कामयाब होता है। यदि रिश्तों पसी सौहार्द न मिटने वाले एहसास की तरह होता है तो, छोटी सी जिंदगी भी लंबी हो जाती है। इंसानियत का रिश्ता यदि खुशहाल होगा तो देश में अमन-चैन तथा भाई-चारे की फिजा महकने लगेगी। विश्वास और अपनेपन की मिठास से रिश्तों के महत्व को आज भी जीवित रखा जा सकता है।


मजदूरों के अन्तर्राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है मजदूर दिवस

 1 मई  मजदूर दिवस के रूप मे मनाया जाता है !मजदूर वर्ग  अंतर्राष्ट्रीय इतिहास में मील का पत्थर है स कम्प्यूटर युग में मजदूर को मजदूरी के लाले पडे है।  मजदूरों से ज्यादा से ज्यादा  समय तक काम करवाना इनकी फितरत हो गई थी। मजदूरों से 16-16 घण्टे, 18-18 घण्टे तक काम करवाया जाता था। आराम नाम की चीज उन्हें हासिल नहीं थी। परिणामस्वरूप अधिकांश मजदूर बीमारी के शिकार होकर मृत्यु के शिकार हो जाते थे, परिवार की देखभाल के लिए भी समय नहीं मिलता था। आज मजदूर हर रोज सुबह शाम बढती महंगाई से परेशान है ऐसा नहीं की इस महगॅाई की मार सिर्फ  में सिर्फ मजदूर ही आया है इस महगॉई रूपी ज्वालामुखी की तपिश में हर कोई झुलस रहा है छटपटा रहा है खाद्यान्न, सब्जी , फल, व तेलो के दाम हर समय आसमान छूते है खाने पीने की चीजों के दाम बेतहाशा बढ रहे है ऐसे में अगर 1 मई को मजदूर दिवस मनाये तो शाम को मजदूर के घर चूल्हा कैसे जले। आज मजदूर दिवस मात्र औपचारिकता बन कर रह गया। कल तक बडी बडी मिले थी, कल कारखाने थे, कल कारखानो एंव औधोगिक इकाईयों में मशीनो का शोर मचा रहता था मजदूर इन मशीनों के शोर में मस्त मौला होकर कभी गीत गाता तो कभी छन्द दोहे गुनगुनाता था। पर आज ये सारी मिले कल कारखाने मजदूरों की सूनी ऑखो और बुझे चूल्हों की तरह वीरान पडे है। जिन यूनियने के लिये मजदूरो ने सडको पर अपना लहू पानी की तरह बहाया था उन सारी यूनियने के झन्डे मजदूरो के बच्चो के कपडों की तरह तार तार हो चूके है। फिर भी 1 मई को हम लोग अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर ‘‘मजदूर दिवस ’’ का आयोजन करते है। इस दिन केन्द्र और राज्य सरकारो द्वारा मजदूरो के कल्याणार्थ अनेक योजनाये शुरू की जाती है पर आजादी के 67 साल बाद भी ये सारी योजनाये गरीब मजदूर को एक वक्त पेट भर रोटी नहीं दे सकी।  आज इस कम्प्यूटर युग ने मशीनों की रफ्तार तो तेज कर दी परन्तु कल कारखानो और औधोगिक इकाईयो की रौनक छीन ली मजदूरो से भरी रहने वाली ये मिले कारखाने कम्प्यूटरीकृत होने से एक ओर जहॉ मजदूर बेरोजगार हो गया वही ये इकाईया बेरौनक हो गई। या यू कहा जाये की मजदूर के बगैर बिल्कुल विधवा सी लगती है। मजदूर आज भी मजदूर है चाहे कल उसने ताज महल बनाया हो ताज होटल बनाया हो या फिर संसद भवन,उसे आज भी सुबह उठने पर सब से पहले अपने बच्चो के लिये शाम की रोटी की फिक्र होती है

राजनेता दिशाहीन – जनता गमगीन

आज देश अराजकता, असुरक्षा तथा आर्थिक संकट की ओर उन्मुख है ! यह एक चिंतनीय विषय है ! आज राजनीतिक दल के अधिकांश नेता राष्ट्रिय हित तथा जनता के अधिकार की सुरक्षा के दायित्व से विमुख नजर आते हैं । नेताओं को समझना होगा कि उन्हें इतिहास ने जो जिम्मेदारी सौंपी है, उसे पूरा करना होगा उसमे मुख्य भूमिका सोशल मीडिया की है जिस पर राजनैतिक चर्चा और आलोचना का गिरता स्तर ही चिंतनीय विषय है। लोग चर्चा मे न केवल सिर्फ व सिर्फ सफ़ेद झूठ का सहारा ले रहे हैं बल्कि गाली गलौज व निम्न स्तर  पर उतर आते हैं।
 अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को समझाने और उन्हे सभ्य बात-चीत के लिए प्रोत्साहित करने का काम विभिन्न राजनैतिक पार्टियो का है। परंतु राजनैतिक पार्टियों के शीर्ष नेता स्वयं दूसरों पर कीचड़ उछालने मे व्यस्त हैं। सोशल मीडिया की बात छोड़ें तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया  पूरा बिक चुका है। साक्षात्कार लेने और प्रसारित करने के भाव तय हैं। पहले से सब  निश्चित होता हैं। नेता कितना भी झूठ बोले टोकने  नहीं जाएगा। डिबेट भी प्रायोजित होता है ! 
प्रजातन्त्र मे चर्चा, आलोचना समालोचना का अधिकार सबको है। सत्तारूढ़ पक्ष के कार्यों की उचित आलोचना, उसको आईना दिखाने का काम होना ही चाहिए। लेकिन ऐसा करते समय सफ़ेद झूठ का सहारा लेना , गाली और अपशब्दों का उपयोग करना बिलकुल उचित नहीं है। अगर ध्यान दिया जाए तो कोई दिन ऐसा नही होगा जिस दिन कोई नया झूठ न बोलते हो  सीधे-सीधे झूठ बोलने की कला को इन्होने नया विस्तार दिया है।  श्याम, दाम ,दंड ,भेद सभी नीति के गुणधारी आज के नेता सभी राजनीतिक पार्टी मे सहज सरलता उपलब्ध हो जाएंगे  आज विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के पुरोधाओं के लिए यह आत्म-चिंतन का समय है। कुछ राजनेता  राजनैतिक पक्ष गल हो सकते हैं तो कुछ सही भी  उनसे कुछ की गलतियाँ हो सकती हैं पर राजनेताओं के ओछे व्यवहार ने पूरी राजनैतिक बिरादरी को कटघरे मे खड़ा कर दिया है। मुझे यह लिखते हुए शर्म महसूस होती है !
महिला सक्षमीकरण की बात करने वाले छद्म राजनेताओं ने स्त्री को जितना अपमानित किया है यह इसके पहले कभी नहीं हुआ। स्त्री के शरीर को निशाना बना कर अपनी नपुंसकता को ढकने की राजनेताओं की कोशिश ने नेताओं को नंगा कर दिया है। हमारे सामाजिक व धार्मिक  प्रसंग मे हम इन राजनेताओ को बड़े  आदर भाव से आमंत्रित करते है ! क्या काम है इंनका कोई जबाव दे सकता है मुझे ? 
जिन्हे अपने कर्तव्य का भान नही ओर न ही देश के भविष्य की परवाह उनका हम ओर हमारा समाज  सन्मान  करते है व अग्रिम पंक्ति मे स्थान देते है ! आप स्वयं अपने वार्ड के पार्षद या नगरसेवक को जो हमारे साथ ही रहता है, हममे से ही एक है भ्रष्टाचार से नहीं रोक सकते तो फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ आपको बोलने का अधिकार भी नही है ! अगर हम भ्रष्ट राजनेताओ  का सिर्फ सम्मान करना बंद कर दे , उन्हे पूजा , शादियों, धार्मिक और सामाजिक समारोहों मे बुलाना बंद कर दें , उनका सामाजिक बहिष्कार शुरू कर दे , तो देखिये भ्रष्टाचार के इस राक्षस का विनाश शुरू होता है की नहीं। 

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

साहित्य का सर्जन

साहित्य शब्द संस्कृत के सहित शब्द से बना है जिसका अर्थ है साथ साथ ! साहित्य शब्द पहले चाहे जिस रूप मे रहा हो आज उसे बड़े व्यापक अर्थ मे लिया जाता है ! साहित्य का सृजन माँ सरस्वती देवी कि असीम अनुकम्पा से होता है। सार्थक सहित्य सृजन माँ सरस्वती कि भक्ति का परिचायक है. परिणाम स्वरूप विद्द्या प्राप्त होती है। विद्द्या से विनय। देखने में सर्वथा इसके विपरीत ही मिल रहा है। साहित्यिक क्षेत्र में मानसिक भ्रष्टाचार पराकाष्ठा पर है. एक दूसरे पर छीटा कशी , दोषारोपण। मिथ्या प्रचार रोज -रोज देखने को मिल रहा है। मानसिक भ्रष्टाचार मेरी नजर में राजनैतिक भ्रष्टाचार से अधिक गंभीर और घातक है. ! साहित्य मनुष्य के अंदर मनुष्यता लाता है। सत्य को समझाने के लिए साहित्य जरूरी है। यर्थायता को समझे बिना विसंगतियों दूर नहीं होगी। साधना से ही साहित्य का सृजन होता है। जीव उत्पत्ति का समय निर्मल होता है। जिस प्रकार बरसात से निकली जल की बूंदें धरती पर गिरते ही मैली हो जाती हैं, इसी प्रकार निर्मल जीव धरती पर आकर राग, द्वेष, मोह, माया में उलझ कर अपना स्वरूप खो बैठता है। उस समय साहित्य ही इसका बोध कराता है। सामाजिक सरोकार से ही साहित्य का सृजन होता है। सभ्यता सत्य के प्रकाशक साहित्यकारों को देश में संवेदनाशून्य को भरने का संकल्प लेना होगा। नैतिक पतन के कारणों को ढूंढ़ने और समाधान के लिए सृजन कार्य करना चाहिए। युवा पीढ़ी को भौतिकवादी प्रवृत्ति त्याग कर चारित्रिक उत्थान के लिए प्रेरित करना होगा। युवाओं का बड़ा वर्ग पेशेवर और व्यावहारिक जीवन के कारण साहित्य से कट गया है। इन्हें कंप्यूटरों और मशीनों से जुड़े रहने के बावजूद टेक्नालॉजी को भी साहित्य में लाना चाहिए। तभी एक अच्छे साहित्य का सर्जन होगा 

समाज को महिला के प्रति सोच बदलने की जरूरत


आधुनिक युग की महिलाएं समाज से अपने लिए देवी का संबोधन नहीं मांगती हैं। स्त्रियों को देवी समझा जाए या नहीं लेकिन कम से कम उन्हें मानव की श्रेणी से नीचे न गिराया जाए। हजारों साल पहले महिलाओं की स्थिति पुरुषों से कहीं कमतर नहीं थी। लेकिन कुछ ऐतिहासिक कारणों से वे नीचे धंसती चली गईं।
 आज यह पूरे समाज का दायित्व है कि वह नारी को बराबरी का स्थान दें। अब इसको कोई नारी मुक्ति का नाम दे या नारी शक्तिकरण का, उससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता। नारी और पुरुष एक दूसरे के शत्रु नहीं हैं बल्कि पूरक हैं। कहा भी गया है शिव शक्ति के बिना शव के समान हैं। राधा के बिना कृष्ण आधा हैं। नारियों की समस्या केवल उनकी समस्या नहीं है।
 यह पूरे समाज की समस्या है। या यूं कहिए सामाजिक समस्या का एक अंग है। साफ है कि नारी की स्थिति में बदलाव लाने के लिए पूरे सामाजिक ढांचे एवं सोच में बदलाव लाना जरूरी है। नारी को अग्रिम पंक्ति मे स्थान दे देने से या नारी समाज को हर जगह आरक्षण या कोटा दे देने से कर्तव्य से मुक्त नही हो सकते ! आज भी महिलायें उतनी सुरक्षित और सम्मानित नहीं दिखतीं, जितने अधिकार और अवसर उन्हें संविधान प्रदत हैं। वह पीड़ित, प्रताड़ित, भयभीत है और अपने अस्तित्व को लेकर आशंकित भी। हमारे देश की स्थिति स्त्री को लेकर एकदम उलट रही। 
भारतीय मानस का अतीत सिद्धांत, स्वीकार्यता और मान्यता तीनों दृष्टि से स्त्री को श्रेष्ठ और सम्माननीय स्थान देता आया है। यहां स्त्रियों को अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किसी संघर्ष आंदोलन की जरूरत ही नहीं पड़ी। दरअसल जो समस्या रही है,
वह व्यवहार की है। आज स्त्री की क्षमता को  कम अपितु उसके देहपिंड का आकर्षण अधिक हो गया है। स्थिति यह है कि वह घर, बाजार या कार्यस्थल सभी स्थानों पर मानसिक व शारीरिक हिंसा और प्रताड़ना झेलने को मजबूर है। हमे इस ओर ध्यान देना होगा 

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

पर्यावरण का करना ख्याल

एक वृक्ष दस पुत्रो के समान होता है, अतः अगर हम एक वृक्ष काटते है तो हमे दस मनुष्यों की हत्या का पाप लगता है। इसलिए हमने वायु प्रदान करने वाले वृक्ष को नही काटना चाहिए। जल, थल और आकाश मिलकर पर्यावरण को बनाते हैं। 
हमने अपनी सुविधा के लिए प्रकृति के इन वरदानों का दोहन किया, लेकिन भूल गए कि इसका क्या नतीजा होगा?
पर्यावरण विनाश के कुफलों से चिंतित  मनुष्य आज अपनी गलती सुधारने की कोशिश में है।  सृष्टि के निर्माण में प्रकृति की अहम भूमिका रही है। यहां हमने इतिहास के उन पन्नों को पलटने की कोशिश की है जिनके बारे में सुनने, पढ़ने या फिर सोचने के बाद शायद हमें समझ आ जाए। मे  आप का ध्यान उस दौर की और आकर्षित करना चाहता हु 
 जहां पर विशाल से विशाल जीवों ने प्रकृति के खिलाफ जाने की कोशिश की और अपना अश्तित्व ही खो दिया। देखा जाए तो सृष्टि का निर्माण प्रकृति के साथ ही हुआ है। इस दुनिया में सबसे पहले वनस्पितयां आई। जो जीवन का प्राथमिक भोजन बनी । उसके बाद अन्य जीवों ने अपनी जीवन प्रक्रिया शुरू की। माना जाता है कि मनुष्य की उत्पत्ति अन्य जानवरों के काफी समय बाद हुई है। 
अगर कहा जाए तो मनुष्य की उत्पत्ति के बाद से ही इस सृष्टि में आये दिन कोई न कोई बदलाव होते आ रहे हैं। मनुष्य ने अपने बुद्धी व विवेक के बल पर खुद को इतना विकसित कर लिया की और कोई भी जीव उससे ज्यादा विवेकशील नहीं है। यही कारण है कि दिन प्रतिदिन मनुष्य अपनी बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति की कुछ अनमोल धरोहरों को भेंट चढ़ाता जा रहा है। प्रकृति का वह आवरण जिससे हम घिरे हुए हैं, पर्यावरण कहलाता है। आज वही पर्यावरण प्रदूषण की चरम सीमा पर पहुंच चुका है। हर कोई किसी न किसी प्रकार से पर्यावरण को प्रदूषित करने का काम कर रहा है। 
जहां कल कारखानें लोगों को रोजगार दे रहे हैं। वहीं जलवायु प्रदूषण में अहम भूमिका भी निभा रहे हैं। कारखानों से निकलने वाला धुंआ हवा में कार्बनडाई आक्साइड की मात्रा को बढ़ा देता है जो कि एक प्राण घातक गैस है। इस गैस की वातावरण में अधिक मात्रा होने के कारण सांस लेने में घुटन महसूस होने लगती है। चीन और अमेरिका जैसे कई विकसित देशों के वातावरण में गैसिए संतुलन विगड़ने से लोगों को गैस मास्क लगाकर घूमना पड़ता है। 
अभी अपने देश में यह नौबत नहीं आयी है। लेकिन इस बात से भी मुंह नहीं फेरा जा सकता कि आने वाले भविष्य में हम भी उन्हीं देशों की तरह शुद्ध हवा के लिए गैस मास्क लगा कर घूमते नजर आएंगे।
          वृक्षों को कटने से रोको,और जीवन बन जाये वरदान।
                  वृक्षों का रोपण कर, बन जाओ तुम सबसे महान।। 
                                  

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

समाज मे फेली हुई बोझिल प्रथा

समाज में अनेक ऐसी सामाजिक कुरितियाँ प्रचलित हैं, जिनकी किसी भी दृष्टि से कुछ उपयोगिता नहीं है, फिर भी परंपरा और प्रचलन के कारण अनिवार्य आवश्यकता जैसी प्रतीत होती है। एक ओर विवेक कहता है, इन रूढि़यों को अपनाए रहने से हानि ही हानि है, दूसरी ओर हम उन्ही  मान्यताओ व उसी ढर्रे पर लुढ़कते रहने के लिए विवश   है। क्यू ? साहस हीन मनःस्थिति उसी पक्ष को स्वीकार करती है, जिस पर समाज के चंद लोग  समीपवर्ती लोग चल रहे  हैं। औचित्य की उपेक्षा करके इन  प्रचलनों को गले से बाँधे रहने में समय, श्रम, बुद्धि और धन का अपव्यय होता रहता है।  सुखी जीवन और प्रगति की ओर चलने में इस अभावग्रस्त स्थिति के कारण भारी बाधा पड़ती है। विवाह शादियों के अवसर पर किए जाने वाले उत्सवों को औचित्य की दृष्टि से देखा जाए तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि इनमें समय, चिंतन एवं धन लगता है, वह एक प्रकार निरर्थक ही चला जाता है। विवाह एक घरेलू छोटा उत्सव है
जिसे दोनों परिवारों के लोग मिल-जुलकर हँसी -खुशी के वातावरण में आसानी से पूरा कर सकते हैं। यह कोई ऐसी अनहोनी बात नहीं , जिसके लिए इतनी धूमधाम या फिजूलखर्ची की आवश्यकता पड़े। संसार भर में विवाह होते हैं। वयस्क लड़की-लड़के गठबंधन में बँध जाते हैं। यह सृष्टि का एक सामान्य क्रम है। सभी गरीब-अमीर इसे अपने ढंग से संपन्न करते हैं। जिस दिन शादी होती  है, उस दिन थोड़ी खुशी भी मना लेते हैं। ये खुशी की उमंगें थोड़े समय में और थोड़े खर्च में पूरी कर ली जा सकती  हैं। यही उचित है और यही स्वाभाविक। विश्व के समस्त देशों, धर्मों और जातियों के विवाहोत्सवों का पर्यवेक्षण करके देखा जाए, तो उन्हें मात्र एक घरेलू छोटे उत्सव के रूप में संपन्न होता पाया जाएगा। अति घनिष्ठ लोग आशीर्वाद-उपहार देने के लिए जमा होते हैं। थोड़ा  गीत, संगीत ,वाद्य चलता है,वेसे आजकल तो बार बालाओ को बुलाने का प्रचलन  भी चल रहा है  हँसी-खुशी के हल्के से अन्य प्रदर्शन होते हैं, चाय-पानी चलता है, बधाई शुभ कामनाएँ व्यक्त की जाती हैं, पंडित  मंगल मंत्र बोलते हैं !अग्नि के सात फेरे होते है और बात समाप्त हो जाती है। कुछ लोगों का, कुछ घंटे का समय, कुछ ही रूपयों का खर्च, इतने भर से उत्सव का रूप बन जाता है। वर-वधू अपने घर चले जाते हैं। 
हिंदू समाज में विवाह की विचित्र प्रथाएँ हैं। रीति-रस्मों की चिह्न पूजा अपने आप में एक शास्त्र बन जाती है। इन रीति-रिवाजों के लिए जो वस्तुएँ खरीदी जाती हैं, वे फिर पीछे किसी काम नहीं आतीं। लाखो करोड़ो की साज सज्जा सिर्फ दिखावे के लिए की जाती है ! जो समय नष्ट हुआ, भगदड़ मची और सिर दर्द हुआ, उसकी भी कोई उपयोगिता समझी या समझाई नहीं जा सकती। छुट-पुट दो पाँच रिवाजें हों, तो उनका कुछ कारण भी खोजा या समझा जाए, पर जहाँ पूरा जाल जंजाल ही खड़ा हो, तो वहाँ यह पता चलाना भी कठिन है कि इसका क्या भावनात्मक और क्या प्रत्यक्ष परिणाम निकलेगा। रिवाज  रस्म  इसका इतिहास, कारण, महत्व उपयोग आदि जानने की आवश्यकता ही नहीं समझी जाती  
अंधाधुंध अनावश्यक बेसिर-पैर की भगदड़ मचती रहती है। कोई यह नहीं पूछता है कि यह क्या किया जा रहा है और क्यों किया जा रहा है ? समय, श्रम, चिंतन एवं धन की इस बरबादी का आखिर कुछ उद्देश्य भी तो होना चाहिए। विवाह की शास्त्रीय परंपरा  पूरा करने में एक-दो घंटे पर्याप्त होने चाहिए मात्र रिवाजें ही नहीं, उन्मादियों की तरह उस अवसर पर जितना धन व्यय किया जता है, उससे तो घर का आर्थिक ढाँचा ही लड़खड़ा जाता है। लंबी दावतें, तरह-तरह के व्यंजन, बारात, गाजे-बाजे, आतिशबाजी, रोशनी,मेहमानदारी, भेंट-उपहार का खर्च सैकड़ों तक सीमित नहीं रहता, हजारों तक पहुँचता है। इसके बाद वर पक्ष की ओर से दहेज की माँग और कन्या पक्ष की ओर से लड़की के लिए कीमती जेवर, कपड़े की अपेक्षा का सिलसिला और भी मँहगा है। धूमधाम में जितना पैसा खर्च होता है, उससे कहीं अधिक एक ओर से दहेज और दूसरी ओर से जेवर की माँग में लगता है। बर्तन, कपड़े,फर्नीचर, शृंगार -प्रसाधन, मेवा-मिष्ठान आदि उपहारों का हिसाब जोड़ा जाए तो वे भी कम बोझिल नहीं होते वेसे अमीरों के लिए तो बोझ का कोई अर्थ नही इस सब में मध्यम वर्गी दोनों पक्षों की कमर टूटती है, लड़की वाला तो एक प्रकार से तबाह ही हो जाता है। उसकी लड़की के लिए जो जेवर,कपड़े आए थे वे देखने भर के लिए संतोष देते हैं। बाद में तो वर-पक्ष के घर ही चले जाते हैं। वे माँगकर समय की शोभा कर सकते हैं या पीछे उन्हें बेच सकते हैं। नकदी और उपहार भी उन्हीं के घर पहुँचता है। यों जितना नकदी मिलती है, उसमें कहीं अधिक लड़के वाला को भी खर्च करना पड़ता है और कमर उनकी भी टूटती है। उपहार सामग्री तो एक कोने में कूड़े-करकट की तरह पड़ी हुई जगह घेरती रहती है। उसे बेचकर पैसा खड़ा करना भी संभव नहीं होता। गरीब लोग जब अमीरी का स्वाँग बनाते हैं और उस तमाशें के लिए अपनी आर्थिक बरबादी करके पूरे परिवार का भविष्य अंधकारमय बनाते हैं, तो दुष्परिणामों को देखते हुए यह उत्सव नितांत पागलपन जैसा सिद्ध होता है। इतना धन-स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यवसाय या समाज सेवा  आदि में लगाया गया होता, तो उसका सत्परिणाम सामने आता। कम से कम गुजारे का जो सामान्य क्रम चल रहा था, वह तो चलाता ही रहता। घर की सारी पूँजी चुका देने से भी खर्चीली शादियों का पूरा नहीं पड़ता। कई बार तो उसके लिए खेत, घर, जेवर आदि बेचना पड़ता है ओर बाहर से कर्ज लेना पड़ता है,
जिसकी ब्याज चुकाते-चुकाते ही जिंदगी बीत जाती है और  अगली पीढि़यों तक को चुकाना पड़ता है। एक ही लड़की की शादी में इतना खर्च पड़ जाता है कि शेष बच्चों की शिक्षा और शादियाँ समस्या बन जाती हैं । किसी को बड़ी बीमारी लग जाए, कारोबार में घाटा पड़ जाए, कोई आकस्मिक खर्च आ जाए तो हाथ-पैर फूल जाते हैं और कुछ करते-धरते नहीं बनता। आर्थिक संतुलन बिगड़ जाने पर परिवार भर की कैसी दुर्दशा होती है, उसकी सुव्यवस्था और प्रगति में किस प्रकार संकट उत्पन्न होती है, इसे भुक्तभोगी ही जानते हैं। अपने देश की अर्थ-व्यवस्था बिगाड़ने में खर्चीली शादियाँ एक बहुत बड़ा कारण है। हर गृहस्थ को जीवन में औसतन तीन बार शादियाँ और इतने ही खर्चीले मृतक भोज करने पड़ते हैं। इनमें जितना पैसा लुट जाता है, उतना यदि परिवार की प्रगति में, उद्योग व्यवसाय बढ़ाने में लगाया गया होता तो स्थिति कुछ से कुछ बन गई होती। अर्थ-व्यवस्था को चोपट करने वाली दो भयंकर कुरीतियाँ अपने समाज में है, एक खर्चीली शादियाँ, दूसरे किसी के मर जाने पर आयेाजित किया जाने वाला मृतक  भोज। इनकी पूर्ति के लिए सीमित आमदनी से काम नहीं चलता और कर्ज मिलना तथा उसका चुकाना कठिन दीखता है, तो मनुष्य अपने कामों में बेईमानी का समावेश करके अनुचित रीति से भी धन कमाने की बात सोचता है। कुछ लोग तो आदतन बेईमानी करते हैं, पर कुछ को इन कुरीतियों का पेट भरने के लिए विवश होना पड़ता है। इन कुरीतियों का भार वहन करते हुए हमें चरित्रनिष्ठा, अर्थ संतुलन औेर सामाजिक व्यवस्था बुरी तरह बरबाद करनी पड़ती है। विवाहों में होने वाले अपव्यय को जुटाने के लिए जो तरीके अपनाने पड़ते हैं, वे प्रायः अनुचित ही होते हैं। कर्ज लेना और फिर उसे न चुका सकना, मकान, जमीन, जेवर, बर्तन आदि बेच देना, बेईमानी करके पैसा कमाना यही तो अतिरिक्त आमदनी के स्त्रोत हो सकते हैं। इनके कारण मनुष्य अपना लोक, परलोक, धर्म, ईमान, यश, सम्मान सभी कुछ खो बैठता है और अपराधी जैसी दुर्गति भोगते हुए निकृष्ट जीवन अपनाने के लिए विवश होता है।
जो लोग इस प्रकार भी इस समस्या को सुलझा नहीं पाते उन्हें अयोग्य वरों के हाथों अपनी सुयोग्य कन्याएँ सौंपनी पड़ती हैं, जिससे उन बच्चियों का सारा जीवन दुःखमय बीतता है। कम दहेज दे सकने पर कितने ही लड़के वाले बहुओं को बुरी तरह सताते हैं ताकि कितनी ही घटनाएँ ऐसी भी होती रहती है कि एक बहू को अत्याचारों द्वारा या विष देकर या जलाकर मार डाला जाता है और लड़के का दूसरा विवाह करके फिर दहेज कमाया जाता है। अभिभावकों को चिंताग्रस्त देखकर कई भावुक लड़कियाँ आत्महत्याएँ कर बैठती हैं, घर छोड़कर भाग खड़ी होती हैं या आजीवन कुँवारी रह जाती हैं। असफल अभिभावकों का भी कई बार ऐसा दुखद अंत देखा जाता है कि उसका स्मरण मात्र करने से आँसू भर आते हैं । लाखें, करोड़ों अभिभावकों और बच्चे-बच्चियों को, इन कुरीतियों के कारण घुट-घुट कर जो अप्रत्यक्ष आत्म हत्याएँ करनी पड़ती हैं, उनका करूण चित्र कोई चित्रकार यदि खींच सके तो पता चले कि हिंदू समाज को भीतर से कितनी घुटन और पीड़ा घुन की तरह खाए जा रही है। कन्या और पुत्र में अंतर इस विवाह में होने वाले अपव्यय ने ही प्रस्तुत किया है लड़की की शिक्षा, दीक्षा, पालन-पोषण एवं मान सम्मान में इसलिए अंतर किया जाता है, क्योंकि वह विवाह की खर्चीली प्रथा के कारण घर के लिए भार या कंटक सिद्ध होती है। लड़कियाँ जिस उपेक्षा से पलती और शिक्षा से बंचित रहती हैं, उसे देखते हुए उनकी आधी हत्या हो जाती है। सुयोग्य कन्याओं को सुयोग्य पति प्राप्त करने से इसलिए वंचित रह जाना पड़ता है कि उनके अभिभावक सुयोग्य लड़कों द्वारा की गई दहेज की माँग पूरी नहीं कर सकते। इसके विपरीत अयोग्य कन्याएँ सुयोग्य लड़कों के गले केवल पैसे के बल पर आसानी से मढ़ दी जाती हैं। हम अपने इस समाज को सभ्य कहे हें या असभ्य ? विवेकशील कहें या अविववेकी ? यह पाठक स्वयं निश्चित करे यह समझ में नहीं आता। इतनी भयंकर कुरीतियों को जो समाज अपने से चिपकाकर बैठा है,हमारे धर्मगुरु साधू संत भी हमे बार बार इस कुरुती के खिलाफ इंगित करते है फिर भी हम  इतना  सहकर भी जिसे सुधार एवं परित्याग का साहस न होता हो, उस समाज को मे क्या उपाधि दु ! सभ्य समाज  की प्रगति के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकेंगे और अपना पिछड़ापन दूर कर सकेंगे माफ करे पिछड़ापन आर्थिक नही मानसिक ! इसकी आशा नहीं बँधती। अपने धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वालों की संख्या अब दिन-दिन घट रही है। इन कुरीतियों का शोधन करना हमारे जातीय जीवन की जीवन-मरण समस्या है। इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा और यदि अपनी महान् संस्कृति को उपहासस्पद एवं घृणित होने से बचाना है, उसे मरणोन्मुख नहीं होने देना है तो हमें इसके लिए कुछ करना ही चाहिए। वैवाहिक अपव्यय जैसी सत्यानाशी कुरीतियों को काला मुँह करने के लिए तो बना एक क्षण भी प्रतीक्षा किए तत्काल कटिबद्ध होना चाहिए। कुरीतियों और अंध-विश्वासों के विरूद्ध हमें मोर्चा खड़ा करना चाहिए विशेष मेरे विचारो के अनुसार युवाओ को जागरूक होना जरूरी है  और जन-साधारण को समझाना चाहिए कि इन भ्रांतियों से ग्रसित होकर हमें कितनी नैतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षति उठानी पड़ रही है । लाभ कुछ नहीं, हानि अपार हैं ! अपनी दृष्टि में मूर्खता और दूसरों की दृष्टि में पिछड़ेपन की निशानी सिद्ध होने वाली इन अवांछनीयताओं से जितनी जल्दी पिंड छुड़ाया जा सके, उतना ही हितकर है। विवेकशीलता की माँग है कि इन मूढ़ मान्यताओं केा साहसपूर्वक पूरी तरह बहिष्कृत ही कर दिया जाए।