जब देश के बुद्धिजीवी किसी समस्या को
लेकर आवाज उठाते हैं तब उसे हम समस्या नहीं बल्कि समस्याओं या सामाजिक विकारों का
परिणाम मानते हैं। लड़कियों के विरुद्ध अपराधों की बाढ़ आ गयी है और कुछ बुद्धिजीवी इसे समस्या मानकर इसे रोकने
के लिये सरकार की नाकामी मानते हैं। क्योंकि मे तो इसे कन्या भ्रुण हत्या के फैशन के चलते समाज
में लिंग असंतुलन की समस्या से उपजा परिणाम मानता है। लड़की की एकतरफ प्यार में हत्या हो या
बलात्कार कर उसे तबाह करने की घटना, समाज में लड़कियों की खतरनाक होती जा रही हैं। इस पर चिंता
करने वाले कन्या भ्रूण हत्या के परिणामों को अनदेखा करते हैं।
इस देश में गर्भ में कन्या की हत्या
करने का सिलसिला आज का नही काफी पुराना हो गया है। यह शुरुआत तब प्रारंभ हुई जब देश के गर्भ में भ्रुण की पहचान कर सकने वाली
‘अल्ट्रासाउंड मशीन’ का चिकित्सकीय उपयोग प्रारंभ हुआ। दरअसल
पश्चिम के वैज्ञानिकों ने इसका अविष्कार गर्भ में पल रहे बच्चे तथा अन्य लोगों पेट
के दोषों की पहचान कर उसका इलाज करने की नीयत से किया था। भारत के भी निजी
चिकित्सकालयों में भी यही उद्देश्य कहते हुए इस मशीन की स्थापना की गयी। यह बुरा
नहीं था पर जिस तरह इसका दुरुपयोग गर्भ में बच्चे का लिंग परीक्षण कराकर कन्या
भ्रुण हत्या का फैशन प्रारंभ हुआ उसने समाज में लिंग अनुपात की स्थिति को बहुत बिगाड़
दिया। फैशन शब्द से शायद कुछ लोगों को आपत्ति हो पर सच यह है कि हम अपने धर्म और
संस्कृति में माता, पिता तथा संतानों के मधुर रिश्तों की बात भले ही करें पर कहीं न कहीं
भौतिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं की वजह से उनमें जो कृत्रिमता है उसे भी देखा जाना
चाहिए। अनेक ज्ञानी लोग तो अपने समाज के बारे में साफ कहते हैं कि लोग अपने बच्चों
को हथियार की तरह उपयोग करना चाहते हैं जैसे कि स्वयं अपने माता पिता के हाथों
हुए। मतलब दैहिक रिश्तों में धर्म या संस्कृति का तत्व देखना अपने आपको धोखा देना
है। कहीं न कहीं अपने समाज के लेकर हम आत्ममुग्धता की स्थिति में जी रहे हैं।
जब कन्या भ्रुण हत्या का फैशन की शुरुआत
हुई तब से समाज में लड़कियों की संख्या कम हो रही है तो उनके दावेदार लड़कों की संख्या अधिक होगी
नतीजे में न केवल लड़कियों के प्रति बल्कि लड़कों में आपसी विवाद में हिंसा होगी। ।
दरअसल हमारे देश में व्याप्त दहेज प्रथा की वजह से लोग परेशान रहे हैं। कुछ आम लोग
तो बड़े आशावादी ढंग से कह रहे थे कि ‘लड़कियों की संख्या कम होगी तो दहेज
प्रथा स्वतः समाप्त हो जायेगी।’
कुछ लोगों के यहां पहले लड़की हुई तो वह
यह सोचकर बेफिक्र हो गये कि कोई बात नहीं तब तक कन्या भ्रुण हत्या की वजह से दहेज
प्रथा कम हो जायेगी। अलबत्ता वही दूसरे गर्भ में परीक्षण के दौरान लड़की होने का
पता चलता तो उसे नष्ट करा देते थे। कथित सभ्य तथा मध्यम वर्गीय समाज में कितनी
कन्या भ्रुण हत्यायें हुईं इसकी कोई जानकारी नहीं दे सकता। सब दंपतियों के बारे में तो यह बात नहीं कहा जाना
चाहिए पर जिनको पहली संतान के रूप में लड़की है और दूसरी के रूप में लड़का और दोनों
के जन्म के बीच ज्यादा अंतर अधिक है तो यह शक
जरूर पूस्ता होता है कहीं न कंही कन्या भ्रुण हत्या हुई है !अब तो कई लड़किया जवान भी हो गयी होंगी जो पहली संतान के रूप में उस
दौर में जन्मी थी जब कन्या भ्रुण हत्या के चलते दहेज प्रथा कम होने की आशा की जा
रही थी। मतलब यह कि यह पच्चीस से तीस साल पूर्व से प्रारंभ सिलसिला है और दहेज
प्रथा खत्म होने का नाम नहीं ले रही। हम दहेज प्रथा समाप्ति की आशा भी कुछ इस तरह
कर रहे थे कि शादी का संस्कार बाज़ार के नियम पर आधारित है यानि धर्म और संस्कार की
बात एक दिखावे के लिये करते हैं। अगर लड़कियां कम होंगी तो अपने आप यह प्रथा कम हो
जायेगी, पर यह हुआ है ओर न
होगा यह मेरा सोचना है जो सत्य भी है ।
इसका कारण यह है कि देश में आर्थिक
असमानता तेजी से बढ़ी है। मध्यम वर्ग के लोग अब निम्न मध्यम वर्ग में और निम्न
मध्यम वर्ग के गरीब वर्ग में आ गये हैं पर सच कोई स्वीकार नहीं कर रहा। इस कारण
लड़कों से रोजगार के अवसरों में भी आकर्षण शब्द गायब हो गया है। लड़कियों के लिये वर
ढूंढना इसलिये भी कठिन है क्योंकि रोजगार के आकर्षक स्तर में कमी आई है। अपनी बेटी
के लिये आकर्षक जीवन साथी की तलाश करते पिता को अब भी
भारी दहेज प्रथा में कोई राहत नहीं है। उल्टे शराब, अश्लील नृत्य, महंगे केटर्स, बरातों के स्वागत मे फिजूल खर्ची , महंगे रिसोर्ट मे शादी का आयोजन तथा विवाहों में बिना मतलब
के व्यय ने लड़कियों की शादी कराना एक मुसीबत बना दिया है। इसलिये योग्य वर और वधु
का मेल कराना मुश्किल हो रहा है।
फिर पहले किसी क्षेत्र में लड़कियां अधिक
होती थी तो दीवाने लड़के एक नहीं तो दूसरी को देखकर दिल बहला लेते थे।
दूसरी नहीं तो तीसरी भी चल जाती। अब स्थिति यह है कि एक लड़की है तो दूसरी दिखती
नहीं, सो मनचले और दीवाने लड़कों की नज़र उस पर लगी रहती है और कभी न कभी
सब्र का बांध टूट जाता है और पुरुषत्व का अहंकार उनको हिंसक बना देता है। लड़कियों
के प्रति बढ़ते अपराध कानून व्यवस्था या सरकार की नाकामी मानना एक सुविधाजनक स्थिति
है और समाज के अपराध को दरकिनार करना एक गंभीर बहस से बचने का सरल उपाय भी है। समाज के कुछ अग्रणी जो बेईमानी या ईमानदारी चाहे केसे
भी कमाकर सिर्फ
समाज मे अपना स्तर ऊंचा बताने के लिए फिजूल व्यय करते है ! जिससे समाज की नजरों मे वाह वाही हो ! उन्हे मे समाज कंटक की उपाधि दे सकु तो कोई गलत नही होगा !
हम जब स्त्री को अपने परिवार के पुरुष
सदस्य से संरक्षित होकर राह पर चलने की बात करते हैं तो स्त्री को खुद की तोहीन लगती है उनको लगता है कि अकेली घूमना नारी का जन्मसिद्ध अधिकार है या स्वयं स्त्री को यह लगता है की हम पर यकीन नही । हकीकत यह है कि समाज अब नारियों के मामले में किस गर्त की स्थिति में पहुंच रहा है। हम भी चुप नहीं बैठ सकते क्योंकि जब नारियों के प्रति
अपराध होता है तो मन द्रवित हो उठता है और लगता है कि समाज अपना अस्तित्व खोने को
आतुर है।
समाज में स्त्री को यथोचित स्थान दिलाने के लिए स्वयं महिलाओं को ऐसी बातों पर ध्यान
देना होगा और वस्तुस्थिति को समझने का प्रयास करना होगा !www.vidrohiawaz.com
उत्तम जैन
(विद्रोही )
06/04/2015
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