बुधवार, 29 अप्रैल 2015

समाज को महिला के प्रति सोच बदलने की जरूरत


आधुनिक युग की महिलाएं समाज से अपने लिए देवी का संबोधन नहीं मांगती हैं। स्त्रियों को देवी समझा जाए या नहीं लेकिन कम से कम उन्हें मानव की श्रेणी से नीचे न गिराया जाए। हजारों साल पहले महिलाओं की स्थिति पुरुषों से कहीं कमतर नहीं थी। लेकिन कुछ ऐतिहासिक कारणों से वे नीचे धंसती चली गईं।
 आज यह पूरे समाज का दायित्व है कि वह नारी को बराबरी का स्थान दें। अब इसको कोई नारी मुक्ति का नाम दे या नारी शक्तिकरण का, उससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता। नारी और पुरुष एक दूसरे के शत्रु नहीं हैं बल्कि पूरक हैं। कहा भी गया है शिव शक्ति के बिना शव के समान हैं। राधा के बिना कृष्ण आधा हैं। नारियों की समस्या केवल उनकी समस्या नहीं है।
 यह पूरे समाज की समस्या है। या यूं कहिए सामाजिक समस्या का एक अंग है। साफ है कि नारी की स्थिति में बदलाव लाने के लिए पूरे सामाजिक ढांचे एवं सोच में बदलाव लाना जरूरी है। नारी को अग्रिम पंक्ति मे स्थान दे देने से या नारी समाज को हर जगह आरक्षण या कोटा दे देने से कर्तव्य से मुक्त नही हो सकते ! आज भी महिलायें उतनी सुरक्षित और सम्मानित नहीं दिखतीं, जितने अधिकार और अवसर उन्हें संविधान प्रदत हैं। वह पीड़ित, प्रताड़ित, भयभीत है और अपने अस्तित्व को लेकर आशंकित भी। हमारे देश की स्थिति स्त्री को लेकर एकदम उलट रही। 
भारतीय मानस का अतीत सिद्धांत, स्वीकार्यता और मान्यता तीनों दृष्टि से स्त्री को श्रेष्ठ और सम्माननीय स्थान देता आया है। यहां स्त्रियों को अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किसी संघर्ष आंदोलन की जरूरत ही नहीं पड़ी। दरअसल जो समस्या रही है,
वह व्यवहार की है। आज स्त्री की क्षमता को  कम अपितु उसके देहपिंड का आकर्षण अधिक हो गया है। स्थिति यह है कि वह घर, बाजार या कार्यस्थल सभी स्थानों पर मानसिक व शारीरिक हिंसा और प्रताड़ना झेलने को मजबूर है। हमे इस ओर ध्यान देना होगा 

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