सोमवार, 27 अप्रैल 2015

समाज मे फेली हुई बोझिल प्रथा

समाज में अनेक ऐसी सामाजिक कुरितियाँ प्रचलित हैं, जिनकी किसी भी दृष्टि से कुछ उपयोगिता नहीं है, फिर भी परंपरा और प्रचलन के कारण अनिवार्य आवश्यकता जैसी प्रतीत होती है। एक ओर विवेक कहता है, इन रूढि़यों को अपनाए रहने से हानि ही हानि है, दूसरी ओर हम उन्ही  मान्यताओ व उसी ढर्रे पर लुढ़कते रहने के लिए विवश   है। क्यू ? साहस हीन मनःस्थिति उसी पक्ष को स्वीकार करती है, जिस पर समाज के चंद लोग  समीपवर्ती लोग चल रहे  हैं। औचित्य की उपेक्षा करके इन  प्रचलनों को गले से बाँधे रहने में समय, श्रम, बुद्धि और धन का अपव्यय होता रहता है।  सुखी जीवन और प्रगति की ओर चलने में इस अभावग्रस्त स्थिति के कारण भारी बाधा पड़ती है। विवाह शादियों के अवसर पर किए जाने वाले उत्सवों को औचित्य की दृष्टि से देखा जाए तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि इनमें समय, चिंतन एवं धन लगता है, वह एक प्रकार निरर्थक ही चला जाता है। विवाह एक घरेलू छोटा उत्सव है
जिसे दोनों परिवारों के लोग मिल-जुलकर हँसी -खुशी के वातावरण में आसानी से पूरा कर सकते हैं। यह कोई ऐसी अनहोनी बात नहीं , जिसके लिए इतनी धूमधाम या फिजूलखर्ची की आवश्यकता पड़े। संसार भर में विवाह होते हैं। वयस्क लड़की-लड़के गठबंधन में बँध जाते हैं। यह सृष्टि का एक सामान्य क्रम है। सभी गरीब-अमीर इसे अपने ढंग से संपन्न करते हैं। जिस दिन शादी होती  है, उस दिन थोड़ी खुशी भी मना लेते हैं। ये खुशी की उमंगें थोड़े समय में और थोड़े खर्च में पूरी कर ली जा सकती  हैं। यही उचित है और यही स्वाभाविक। विश्व के समस्त देशों, धर्मों और जातियों के विवाहोत्सवों का पर्यवेक्षण करके देखा जाए, तो उन्हें मात्र एक घरेलू छोटे उत्सव के रूप में संपन्न होता पाया जाएगा। अति घनिष्ठ लोग आशीर्वाद-उपहार देने के लिए जमा होते हैं। थोड़ा  गीत, संगीत ,वाद्य चलता है,वेसे आजकल तो बार बालाओ को बुलाने का प्रचलन  भी चल रहा है  हँसी-खुशी के हल्के से अन्य प्रदर्शन होते हैं, चाय-पानी चलता है, बधाई शुभ कामनाएँ व्यक्त की जाती हैं, पंडित  मंगल मंत्र बोलते हैं !अग्नि के सात फेरे होते है और बात समाप्त हो जाती है। कुछ लोगों का, कुछ घंटे का समय, कुछ ही रूपयों का खर्च, इतने भर से उत्सव का रूप बन जाता है। वर-वधू अपने घर चले जाते हैं। 
हिंदू समाज में विवाह की विचित्र प्रथाएँ हैं। रीति-रस्मों की चिह्न पूजा अपने आप में एक शास्त्र बन जाती है। इन रीति-रिवाजों के लिए जो वस्तुएँ खरीदी जाती हैं, वे फिर पीछे किसी काम नहीं आतीं। लाखो करोड़ो की साज सज्जा सिर्फ दिखावे के लिए की जाती है ! जो समय नष्ट हुआ, भगदड़ मची और सिर दर्द हुआ, उसकी भी कोई उपयोगिता समझी या समझाई नहीं जा सकती। छुट-पुट दो पाँच रिवाजें हों, तो उनका कुछ कारण भी खोजा या समझा जाए, पर जहाँ पूरा जाल जंजाल ही खड़ा हो, तो वहाँ यह पता चलाना भी कठिन है कि इसका क्या भावनात्मक और क्या प्रत्यक्ष परिणाम निकलेगा। रिवाज  रस्म  इसका इतिहास, कारण, महत्व उपयोग आदि जानने की आवश्यकता ही नहीं समझी जाती  
अंधाधुंध अनावश्यक बेसिर-पैर की भगदड़ मचती रहती है। कोई यह नहीं पूछता है कि यह क्या किया जा रहा है और क्यों किया जा रहा है ? समय, श्रम, चिंतन एवं धन की इस बरबादी का आखिर कुछ उद्देश्य भी तो होना चाहिए। विवाह की शास्त्रीय परंपरा  पूरा करने में एक-दो घंटे पर्याप्त होने चाहिए मात्र रिवाजें ही नहीं, उन्मादियों की तरह उस अवसर पर जितना धन व्यय किया जता है, उससे तो घर का आर्थिक ढाँचा ही लड़खड़ा जाता है। लंबी दावतें, तरह-तरह के व्यंजन, बारात, गाजे-बाजे, आतिशबाजी, रोशनी,मेहमानदारी, भेंट-उपहार का खर्च सैकड़ों तक सीमित नहीं रहता, हजारों तक पहुँचता है। इसके बाद वर पक्ष की ओर से दहेज की माँग और कन्या पक्ष की ओर से लड़की के लिए कीमती जेवर, कपड़े की अपेक्षा का सिलसिला और भी मँहगा है। धूमधाम में जितना पैसा खर्च होता है, उससे कहीं अधिक एक ओर से दहेज और दूसरी ओर से जेवर की माँग में लगता है। बर्तन, कपड़े,फर्नीचर, शृंगार -प्रसाधन, मेवा-मिष्ठान आदि उपहारों का हिसाब जोड़ा जाए तो वे भी कम बोझिल नहीं होते वेसे अमीरों के लिए तो बोझ का कोई अर्थ नही इस सब में मध्यम वर्गी दोनों पक्षों की कमर टूटती है, लड़की वाला तो एक प्रकार से तबाह ही हो जाता है। उसकी लड़की के लिए जो जेवर,कपड़े आए थे वे देखने भर के लिए संतोष देते हैं। बाद में तो वर-पक्ष के घर ही चले जाते हैं। वे माँगकर समय की शोभा कर सकते हैं या पीछे उन्हें बेच सकते हैं। नकदी और उपहार भी उन्हीं के घर पहुँचता है। यों जितना नकदी मिलती है, उसमें कहीं अधिक लड़के वाला को भी खर्च करना पड़ता है और कमर उनकी भी टूटती है। उपहार सामग्री तो एक कोने में कूड़े-करकट की तरह पड़ी हुई जगह घेरती रहती है। उसे बेचकर पैसा खड़ा करना भी संभव नहीं होता। गरीब लोग जब अमीरी का स्वाँग बनाते हैं और उस तमाशें के लिए अपनी आर्थिक बरबादी करके पूरे परिवार का भविष्य अंधकारमय बनाते हैं, तो दुष्परिणामों को देखते हुए यह उत्सव नितांत पागलपन जैसा सिद्ध होता है। इतना धन-स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यवसाय या समाज सेवा  आदि में लगाया गया होता, तो उसका सत्परिणाम सामने आता। कम से कम गुजारे का जो सामान्य क्रम चल रहा था, वह तो चलाता ही रहता। घर की सारी पूँजी चुका देने से भी खर्चीली शादियों का पूरा नहीं पड़ता। कई बार तो उसके लिए खेत, घर, जेवर आदि बेचना पड़ता है ओर बाहर से कर्ज लेना पड़ता है,
जिसकी ब्याज चुकाते-चुकाते ही जिंदगी बीत जाती है और  अगली पीढि़यों तक को चुकाना पड़ता है। एक ही लड़की की शादी में इतना खर्च पड़ जाता है कि शेष बच्चों की शिक्षा और शादियाँ समस्या बन जाती हैं । किसी को बड़ी बीमारी लग जाए, कारोबार में घाटा पड़ जाए, कोई आकस्मिक खर्च आ जाए तो हाथ-पैर फूल जाते हैं और कुछ करते-धरते नहीं बनता। आर्थिक संतुलन बिगड़ जाने पर परिवार भर की कैसी दुर्दशा होती है, उसकी सुव्यवस्था और प्रगति में किस प्रकार संकट उत्पन्न होती है, इसे भुक्तभोगी ही जानते हैं। अपने देश की अर्थ-व्यवस्था बिगाड़ने में खर्चीली शादियाँ एक बहुत बड़ा कारण है। हर गृहस्थ को जीवन में औसतन तीन बार शादियाँ और इतने ही खर्चीले मृतक भोज करने पड़ते हैं। इनमें जितना पैसा लुट जाता है, उतना यदि परिवार की प्रगति में, उद्योग व्यवसाय बढ़ाने में लगाया गया होता तो स्थिति कुछ से कुछ बन गई होती। अर्थ-व्यवस्था को चोपट करने वाली दो भयंकर कुरीतियाँ अपने समाज में है, एक खर्चीली शादियाँ, दूसरे किसी के मर जाने पर आयेाजित किया जाने वाला मृतक  भोज। इनकी पूर्ति के लिए सीमित आमदनी से काम नहीं चलता और कर्ज मिलना तथा उसका चुकाना कठिन दीखता है, तो मनुष्य अपने कामों में बेईमानी का समावेश करके अनुचित रीति से भी धन कमाने की बात सोचता है। कुछ लोग तो आदतन बेईमानी करते हैं, पर कुछ को इन कुरीतियों का पेट भरने के लिए विवश होना पड़ता है। इन कुरीतियों का भार वहन करते हुए हमें चरित्रनिष्ठा, अर्थ संतुलन औेर सामाजिक व्यवस्था बुरी तरह बरबाद करनी पड़ती है। विवाहों में होने वाले अपव्यय को जुटाने के लिए जो तरीके अपनाने पड़ते हैं, वे प्रायः अनुचित ही होते हैं। कर्ज लेना और फिर उसे न चुका सकना, मकान, जमीन, जेवर, बर्तन आदि बेच देना, बेईमानी करके पैसा कमाना यही तो अतिरिक्त आमदनी के स्त्रोत हो सकते हैं। इनके कारण मनुष्य अपना लोक, परलोक, धर्म, ईमान, यश, सम्मान सभी कुछ खो बैठता है और अपराधी जैसी दुर्गति भोगते हुए निकृष्ट जीवन अपनाने के लिए विवश होता है।
जो लोग इस प्रकार भी इस समस्या को सुलझा नहीं पाते उन्हें अयोग्य वरों के हाथों अपनी सुयोग्य कन्याएँ सौंपनी पड़ती हैं, जिससे उन बच्चियों का सारा जीवन दुःखमय बीतता है। कम दहेज दे सकने पर कितने ही लड़के वाले बहुओं को बुरी तरह सताते हैं ताकि कितनी ही घटनाएँ ऐसी भी होती रहती है कि एक बहू को अत्याचारों द्वारा या विष देकर या जलाकर मार डाला जाता है और लड़के का दूसरा विवाह करके फिर दहेज कमाया जाता है। अभिभावकों को चिंताग्रस्त देखकर कई भावुक लड़कियाँ आत्महत्याएँ कर बैठती हैं, घर छोड़कर भाग खड़ी होती हैं या आजीवन कुँवारी रह जाती हैं। असफल अभिभावकों का भी कई बार ऐसा दुखद अंत देखा जाता है कि उसका स्मरण मात्र करने से आँसू भर आते हैं । लाखें, करोड़ों अभिभावकों और बच्चे-बच्चियों को, इन कुरीतियों के कारण घुट-घुट कर जो अप्रत्यक्ष आत्म हत्याएँ करनी पड़ती हैं, उनका करूण चित्र कोई चित्रकार यदि खींच सके तो पता चले कि हिंदू समाज को भीतर से कितनी घुटन और पीड़ा घुन की तरह खाए जा रही है। कन्या और पुत्र में अंतर इस विवाह में होने वाले अपव्यय ने ही प्रस्तुत किया है लड़की की शिक्षा, दीक्षा, पालन-पोषण एवं मान सम्मान में इसलिए अंतर किया जाता है, क्योंकि वह विवाह की खर्चीली प्रथा के कारण घर के लिए भार या कंटक सिद्ध होती है। लड़कियाँ जिस उपेक्षा से पलती और शिक्षा से बंचित रहती हैं, उसे देखते हुए उनकी आधी हत्या हो जाती है। सुयोग्य कन्याओं को सुयोग्य पति प्राप्त करने से इसलिए वंचित रह जाना पड़ता है कि उनके अभिभावक सुयोग्य लड़कों द्वारा की गई दहेज की माँग पूरी नहीं कर सकते। इसके विपरीत अयोग्य कन्याएँ सुयोग्य लड़कों के गले केवल पैसे के बल पर आसानी से मढ़ दी जाती हैं। हम अपने इस समाज को सभ्य कहे हें या असभ्य ? विवेकशील कहें या अविववेकी ? यह पाठक स्वयं निश्चित करे यह समझ में नहीं आता। इतनी भयंकर कुरीतियों को जो समाज अपने से चिपकाकर बैठा है,हमारे धर्मगुरु साधू संत भी हमे बार बार इस कुरुती के खिलाफ इंगित करते है फिर भी हम  इतना  सहकर भी जिसे सुधार एवं परित्याग का साहस न होता हो, उस समाज को मे क्या उपाधि दु ! सभ्य समाज  की प्रगति के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकेंगे और अपना पिछड़ापन दूर कर सकेंगे माफ करे पिछड़ापन आर्थिक नही मानसिक ! इसकी आशा नहीं बँधती। अपने धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वालों की संख्या अब दिन-दिन घट रही है। इन कुरीतियों का शोधन करना हमारे जातीय जीवन की जीवन-मरण समस्या है। इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा और यदि अपनी महान् संस्कृति को उपहासस्पद एवं घृणित होने से बचाना है, उसे मरणोन्मुख नहीं होने देना है तो हमें इसके लिए कुछ करना ही चाहिए। वैवाहिक अपव्यय जैसी सत्यानाशी कुरीतियों को काला मुँह करने के लिए तो बना एक क्षण भी प्रतीक्षा किए तत्काल कटिबद्ध होना चाहिए। कुरीतियों और अंध-विश्वासों के विरूद्ध हमें मोर्चा खड़ा करना चाहिए विशेष मेरे विचारो के अनुसार युवाओ को जागरूक होना जरूरी है  और जन-साधारण को समझाना चाहिए कि इन भ्रांतियों से ग्रसित होकर हमें कितनी नैतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षति उठानी पड़ रही है । लाभ कुछ नहीं, हानि अपार हैं ! अपनी दृष्टि में मूर्खता और दूसरों की दृष्टि में पिछड़ेपन की निशानी सिद्ध होने वाली इन अवांछनीयताओं से जितनी जल्दी पिंड छुड़ाया जा सके, उतना ही हितकर है। विवेकशीलता की माँग है कि इन मूढ़ मान्यताओं केा साहसपूर्वक पूरी तरह बहिष्कृत ही कर दिया जाए। 



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