मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

नारी विमर्श: दशा-दिशा और समाज

प्रत्येक देश की आधी आबादी महिलाओं पर आधारित होती है।  महिलाओं के बारे में विभिन्न प्रकार के दृष्टिकोण पाए जाते हैं। महिला, परिवार का आधार है।  स्पष्ट सी बात है कि परिवार की केन्द्रीय परिधि के रूप में महिला की भूमिका, समाज में एकता उत्पन्न करने में बहुत अधिक प्रभावी रही है।  यदि माताएं अपनी संतान के प्रशिक्षण में बंधुत्व, भाईचारे और समानता को दृष्टिगत रखे तो आगामी पीढ़ियों में एकता को बनाए रखा जा सकता है।   वर्तमान की  विचारधारा के अनुसार यद्यपि महिला और पुरूष, शारीरिक बनावट की दृष्टि से भिन्न हैं और उनमें असमानता पाई जाती है किंतु मानव अधिकारों की दृष्टि से वे समान अधिकार के स्वामी हैं।   नारी विषय पर केवल चर्चा ही नहीं, वरन् ठोस एवं सार्थक कार्यक्रम भी क्रियान्वित हो रहे हैं। निर्विवाद रूप में नारी की यह विशेषता है कि वह जन्मदात्री है, सृष्टि सृजन करती है, जीवन की समूची रस-धार उसी पर आधारित है, लेकिन पाश्चात्य परम्परा एवं संस्कृति का प्रभाव, नारी संदर्भ में भारतीय समाज में भी, अब दूर से ही पहचाना जा सकता है। इक्कीसवीं शताब्दी में भारतीय नारी अपनी वर्जनाओं को तोड़/लक्ष्मण रेखाओं को छोड़ अबलापन की भावना को तिलांजलि देकर विकास के सोपान चढ़ रही है। वर्तमान समाज में नैतिकता के मापदंड बेहद लचर हो गये हैं। नारी में भी नैतिकता का भारतीय परम्परागत भाव तिरोहित हो रहा है। समय और स्थान के अनुरूप मान्यताओं में शीर्षासन होता रहा है, लेकिन प्रदर्शन/विज्ञापन की होड़ में, वर्तमान नारी स्वयं चीरहरण में लगी है। सात्विक रूचि और कलात्मकता, उदारीकरण की बयान में बह गई है। संबंधों के बीच से प्रेम और स्नेह गायब हो रहा है।  पश्चिमी सभ्यता के संक्रमण के कारण जहां नारी-जीवन में विविध बदलाव आये हैं, वहां यौन शुचिता भी संक्रमित हुई है। यथार्थ के नाम पर नग्नता को अपनाया जा रहा है। विज्ञापन में नारी-देह का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। नारी का नंगापन, उसकी स्वतंत्रता का सूचक नहीं है। विज्ञापित नारी अकेली उत्तरदायी नहीं है, यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाये तो वर्तमान समय में भी समाज में नारी का स्थान कुछ वैसा ही है, जैसा-किसी दुकान, मकान, आभूषण अथवा चल-अचल सम्पत्ति हो। वर्तमान प्रधान समाज को अपनी सामंती सोच एवं संकीर्ण मानसिकता, सड़ी-गली व्यवस्था, रूढि़गत कुप्रथा को नारी-उत्कर्ष हेतु तिलांजलि देनी ही होगी। पुरुषों को इस प्रकार का वातावरण तैयार करना होग, जिससे नारी को एक जीवंत-मानुषी, जन्मदात्री एवं राष्ट्र की सृजनहार समझा जाये, कि मात्र भोग्य।  वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया, ममता, त्याग, बलिदान जैसे आधार पर ही सृष्टि खड़ी है। और ये सभी गुण-एक साथ नारी में समाहित हैं। नारी-प्रेम त्याग का प्रतिबिंब है। नारी के अभाव में मानव जीवन शुष्क है और समाज अपूर्ण। नारी, संसार की जननी है। मातृत्व, उसकी सबसे बड़ी साधना है। भारतीय नारी की हैसियत भी परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रही है। वह अपनी अस्मिता के प्रति पहले से सतर्क है। आज, नारी दोहरी भूमिका निभा रही है-गृहलक्ष्मी और राजलक्ष्मी के रूप में उसका गौरव महत्वपूर्ण है। शिक्षा एवं आर्थिक स्वतंत्रता ने नारी को नवीन चेतना दी है। पुरुष नियंत्रित समाज में नारी, आज आत्मविश्वास से लबरेज है। यदि नारी में निर्भीकता और स्पष्टवादिता है, तो वह कहीं पर भी और कभी भी कुंठाग्रस्त नहीं होती। वर्तमान समय में नारी जागरण को अत्यधिक गति मिली है। विशेषतः, नगरों में सुशिक्षित नारी में इसकी गतिविधि, अधिक दिखाई देती हैं।  सामाजिक/राजनीतिक/शैक्षिक/व्यवसायिक आदि तथा कला एवं साहित्य के क्षेत्र में नारी सम्मानित हुई है। समाजवादी नारी भावना का निरंतर विकास हो रहा है। वर्तमान सामाजिक संदर्भ में, नारी की दशा और दिशा में, क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है, लेकिन समूचे प्रकरण में देश/काल और परम्पराओं का सम्मान बनाये रखना आवश्यक है। तभी नारी की सनातन गरिमा सुरक्षित रह सकती है।www.vidrohiawaz.com

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