आत्मघात अथवा आत्महत्या
की प्रवृत्ति स्वयं को सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी कहने वाले मनुष्यों में ही पाई
जाती है। दुनिया का कोई जीव संभवतः आत्महत्या नहीं करता। बीमारी
की अवस्था मे व्याधि से परेशान होकर शरीर से छुटकारा पाना , प्यार
में धोखा, दाम्पत्य में बेवफ़ाई, रैंगिग से मिली टूटन, शैक्षिक रिज़ल्ट खराबहोना, आर्थिक तंगी, बीमारी
अथवा अन्य किन्हीं कारणों से जीवन व्यर्थ लगना आदि इस कायरता के कतिपय कारण हैं।
परिस्थिति कोई भी हों लेकिन असफलता को जीवन से अधिक कीमत क्यों? असफलताओं
से कहीं अधिक प्रभावशाली होती है ज़िंदगी। कोई भी नाकामयाबी इतनी बड़ी नहीं
हो सकती कि जीवन को अलविदा कह दिया जाए। हारकर
पलायन कर जाने का नहीं, हार के
बाद बुलंद हौसलों से उठकर जीने का नाम है जीवन।
|| परिवार का फ़र्ज़ ||
आत्महत्या का फ़ैसला कानून की नज़र में अपराध, आम-जनता की नज़र
में मूर्खता या बेचारापन हो सकता है लेकिन यह सिर्फ़ इतना ही नहीं है। यह एक गंभीर ‘मानसिक विकृति ’ भी है। इसलिए इसकी रोकथाम व उपचार का प्रयास भी
उतना ही जरूरी होना चाहिए जितना किसी अन्य
गंभीर बीमारी का। जिनमें इस प्रवृत्ति की संभावना सामान्यतया नज़र नहीं आती।
आत्महत्या की प्रवृत्ति वाले अपने लक्षणों-परिवर्तनों को मुखर होकर बता देते हैं, बाकी लोग नहीं बताते। अतः परिवार का भी यह
दायित्व बनता है कि अपने हर सदस्य के मानसिक और भावनात्मक बदलाव पर घोर
करे और संभावना दिखते ही
फ़ौरन वैकल्पिक मदद लेने से न चूकें।
|| आपका जीवन भी जरूरी है ||
आपकी उम्र कोई भी हो। आप कुछ भी न हों या किसी भी पद पर हों आपका
जीवन कीमती है। आप ना कुछ हैं तो भी आप में बहुत संभावनाएं हैं, जिनके
चलते आप अपने परिवार व मित्रों के लिए महत्वपूर्ण हैं।
परिवार ही क्यों, आप की
मदद से समाज का कोई भी सदस्य अपनी ज़रूरत के हिसाब से मदद आपसे ले सकता है। आपका पीछा कई जोड़ी आँखें करती हैं और
अत्यंत ही मार्मिक नज़रों से आपको
देखती हैं कि आप उनके लिए कुछ करेंगे। आप किसी के लिए आर्थिक विकल्प हैं तो किसी
के लिए भावनात्मक संबल। आप अपनी समस्याओं से इतने
प्रभावित कैसे हो सकते हैं कि जिन्हें आपकी ज़रूरत है उनका आपको अहसास ही नहीं रहे? अतः किसी भी हालात या अभाव को इतना बड़ा मत बना
दीजिए कि आपके बिना लोगों में अपूर्णनीय रिक्तता आ जाए।
|| अनचाहा सबके साथ होता है ||
अनचाहा सबके साथ होता है। सपनीले संसार से बाहर आकर यथार्थ के
व्यवहारिक संसार में स्थिर होकर देखिए। आप और खुशहाल व्यक्ति में सिर्फ़ इतना ही
अंतर है कि आप नकारात्मक बन जाते हैं और वह जो होता है उसको भी ‘चाहने’ लगता
है। इस तरह वह उस कुंठा से बचा रहता है जो आत्महत्या जैसे घातक क़दम के लिए विवश करती है।
ज़ाहिर-सी बात है कि व्यक्ति हमेशा वो नहीं पा सकता, जो वह चाहता है। कभी चाहत पूरी होगी तो कभी नहीं
भी आपका स्वयं के प्रति दायित्व है कि समय-समय पर अपनी क्षमताओं का आकलन करते रहकर
लक्ष्य परिवर्तन करते रहें। इस तरह मानसिक दबाव की स्थिति पनपने पर रोक लगेगी।
|| जीवन को जीएं, काटें
नहीं ||
‘‘सुबह से शाम होती है - ज़िन्दगी यूं ही तमाम होती है। बस
जैसे-तैसे ज़िन्दगी काट रहा हूँ। ठीक ही है . . .। यह जीना भी कोई जीना है...। अब
जीने की इच्छा नहीं रही। हे भगवान! मुझे उठा लो। अब क्या फ़ायदा...।’’ ऐसी निराशावादी मनोवृत्ति से बचें। मानसिक संतुलन
के लिए जीवन में सकारात्मक और नकारात्मक बदलाव आते रहने बहुत ज़रूरी
होते हैं। इन्हें सहजता से लें। एक ही रूटीन में ज़िन्दगी काटने की प्रवृत्ति से
तौबा करें। ‘न गलत न सही –
जो ज़िंदगी मिली है उसका मजा लो ’ की
तर्ज पर जीवन को जीएं। तब ही बसंत बनेगा जीवन।
|| असफल हुए तो सफल भी होंगे ||
असफलता व सफलता एक सिक्के के दो पहलू है !रात के
बाद दिन आता है। हारे हैं तो जीतेंगे भी। असफलता आपके जीवन का अंतिम और सदाबहार सच
नहीं हो सकती। आप असफल हुए हैं तो सफल भी होंगे। कभी जीतने वाले के जीवन में
देखिए। आप पायेंगे कि उसने लंबी दूरी तय की है जीवन के लिए। वह विजेता कई बार हारा
है। याद रखिए, कोई भी असफलता हौसले को थोड़ी देर के लिए कम
तो कर सकती है परन्तु समाप्त नहीं कर सकती। असली परीक्षा तो यही है कि असफल होने
के बाद दोगुने जोश और हिम्मत के साथ उठ खड़े होइए।वास्तव में हार का सकारात्मक
पहलू यह है कि वह जीत की ओर उठने वाला एक कदम है। परिवार को भी यह ध्यान रखना
चाहिए कि अपने सदस्य पर जीत का दबाव न बनाए। उसकी हार को सहज प्रयास के रूप में आंकलन कराये
। आत्महत्या की सोच वाले व्यक्ति के संदर्भ में परिवार का यह भी
दायित्व है कि उसकी दिनचर्या में ऐसे बदलाव लाए जिससे उसका जीने का उत्साह
बरकरार रहे। वह व्यतीत से मुक्त हो जाए।
|| शिकायतें फेंकें, मन
साफ़ करें ||
‘‘मेरे लिए पेरेन्ट्स ने क्या किया? भाइयों ने छला। प्रेम में भी धोखा खाया। बॉस
परेशान करता है। ढंग का काम नहीं मिलता।’’ इस
तरह की शिकायतों को फेंक दीजिए। जीवन की अपनी गति होती है। समझदारी इसमें है कि
जीवन और समय में तालमेल बिठाकर आगे बढ़ा जाए। जिस तरह शरीर को रोज़ साफ़ करते हैं
वैसे ही मन को भी करें। दूषित, बीमार, नकारात्मक सोच को मन में घर न बनाने दें। अब आपके
साथ अतीत नहीं या आप ऐसे ही हैं या आपकी क्षमताओं से वह सब परे है- इस तरह की
सीमाओं को जितनी जल्दी आप स्वीकार कर लेंगे, ख़ुशी
का मीटर चलना उतनी ही जल्दी शुरू
हो जायेगा। आपके लिए मंज़िल से अधिक सफ़र महत्वपूर्ण होना चाहिए। ज़रूरी नहीं कि
इतनी गंभीर एप्रोच लेकर चलें कि मंज़िल से काफ़ी पहले ही थक जाएं। सफ़र को खुशनुमा
बनाएं। मंज़िल से चूक जाएं तो भी मलाल न करें। ईमानदार प्रयास करें तो मानसिक
स्वास्थ्य का इंष्योरेंस सहज ही हो जायेगा।
|| प्यार को प्ररेणा बनाएं ||
‘‘तुम मेरी आस हो, विश्वास
हो । तुम मेरी धड़कन हो, जीवन हो। तुम्हारे बिना जीना? सोचकर भी डर लगता है। तुमसे मुझे जीवन का अर्थ
मिला है। हम जन्म-जन्मान्तर के साथी हैं।’’ इस
तरह की बातें हर प्रेम कहानी में होती हैं। प्रेमी-प्रेमिका किसी और की हो गई तो
इन बातों को सोच-सोचकर मरे नहीं। इन बातों और इनसे जुड़े दृश्यों में खोए
रहना समस्या पैदा करता है। प्रेम, जो प्रेरणा होना चाहिए वह परिवार पर ग्रहण बनकर
टूटता है। इसका शिकार व्यक्ति चंद पलों के रिलेशन के लिए अपना परिवार, पढ़ाई, केरियर, महत्वाकांक्षाएँ सब दांव पर लगा देता है।” जो चला गया, वह
आपके योग्य था ही नहीं। अच्छा हुआ कि आपकी और क्षति नहीं हुई।“ यह सत्य स्वीकारें और उस प्रेम से प्रेरणा लेकर
आगे का जीवन बेहतर ढंग से जीएं।
जहाँ तक आपके सच्चे प्यार का सवाल है, तो
आप उस प्यार को ऐसी प्रेरणा बनाएँ कि सफलता के शिखर पर पहुँच जाएँ। आपका अधिकार
प्यार करने में हो सकता है; उसे
हासिल करने-खो देने से खुद को नहीं जोड़ें। ज़रूरी नहीं कि प्यार हमेशा रिश्ते में
तबदील हो। प्यार आपका ऐसा लीडर, शासक न
बन जाए कि आपका सब कुछ चौपट कर दे। जो प्यार छूट गया उसे मीठी याद मात्र बना सकते
हैं। उसके पीछे न भागकर अपने मूल कर्त्तव्य पूरे कीजिए।
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