हिंदी को लेकर जितनी उछलकूल दिखती है
उतनी वास्तविकता जमीन पर नहीं है।कुछ ही दिनो पूर्व मुझे मेरे आदर्श व मेरे प्रेरणा स्त्रोत
गणपत भंसाली जी के कारण मुझे वेदप्रताप वेदिही जी से मिलने का मोका मिला ! वे हिन्दी के कट्टर समर्थक
है ! उनके वक्तव्य से हिन्दी भाषा का
महत्व सुना ! मुझे स्वयं हिन्दी मे लिखना,पढ़ना अच्छा लगता है ! पर मेरे बच्चे इसके अपवाद है जिन्हे हिन्दी का ज्ञान नही के बराबर है
! इंटरनेट पर लोगों का हिन्दी मे रुझान बढ़ गया है, लोग हिन्दी विषय पर लिखने या
बोलने के लिये किताबों से अधिक इंटरनेट पर सामग्री ढूंढने में अधिक सुविधाजनक
स्थिति अनुभव करने लगे हैं। मूलतः
पहले विद्वान तथा युवा वर्ग किसी विषय पर बोलने या लिखने के लिये किताब ढूंढते थे।
इसके लिये लाइब्रेरी या फिर किसी किताब की दुकान पर जाने के अलावा उनके पास अन्य
कोई चारा नहीं था। इंटरनेट
के आने के बाद बहुत समय तक लोगों का हिन्दी
के विषय को लेकर यह भ्रम था कि यहां हिन्दी पर लिखा हुआ मिल ही नहीं सकता। अब जब लोगों को हिन्दी विषय पर लिखा सहजता से
मिलने लगा है तो वह किताबों से अधिक यहां अपने विषय से संबंधित सामग्री ढूंढने लगे हैं। कम
से कम एक बात तय है कि हिन्दी अब इंटरनेट
पर अपने पांव फैलाने लगी है।हिन्दी के महत्व को जानने की जरूरत उस व्यक्ति को कतई नहीं है जिसका
वर्तमान तथा भावी सरोकार इस देश से रहने वाला है।
जिनकी आंखें यहां है पर दृष्टि
अमेरिका की तरफ है, जिसका दिमाग यहां है पर सोचता कनाडा के
बारे में है और जिसका दिल यहा है परं धड़कता इंग्लैंड के लिये है, उसे हिन्दी का महत्व जानने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस भाषा
से उसे वहां कोई सम्मान या प्रेम नहीं मिलने वाला।
जिनकी आवश्यकतायें देशी हैं
उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह जानते हैं कि इस देश में रहने के
लिये हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान होना आवश्यक है।
भाषा का संबंध भूमि और भावना से
होता है। भूमि और भावना का संबंध भूगोल से होता है। भाषाओं का निर्माण मनुष्य से
नहीं वरन् भूमि और भावना से होता है। मनुष्य तो अपनी आवश्यकता के लिये भाषा का
उपयोग करता है जिससे वह प्रचलन में बढ़ती है।
जिन लोगों
में मन में हिन्दी और इंग्लिश का संयुक्त मोह है वह अँग्रेजी का विस्तार करने के आधिकारिक प्रयासों
में लगे हैं। इसमें दो प्रकार के लोग हैं। एक तो वह युवा वर्ग तथा उसके पालक जो
चाहते हैं कि उनके बच्चे विदेश में जाकर रोजगार करें। दूसरे वह लोग जिनके
पास आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्तियां हैं तथा
वह इधर तथा उधर दोनों तरफ अपना वर्चस्व स्थापित करने की दृष्टि से भारत में स्थित मानव श्रम का उपयोग अपने लिये करना चाहता है। एक तीसरा वर्ग भी है जो किराये पर बौद्धिक चिंत्तन करता है और वह
चाहता है कि भारत से कुछ मनुष्य विदेश जाते रहें ताकि देश का बोझ हल्का हो और उनके
बौद्धिक कौशल का विदेश में सम्मान हो। हिन्दी रोजगार की भाषा नहीं बन पायी न बनेगी। हिन्दी लेखकों को दोयम दर्जे का माना जाता है और इसमें कोई सुधार
होना संभव भी नही लगता। एक बेकार धारावाहिक या फिल्म देखने से अच्छा यह लगता है कि उतने समय
कोई लेख लिखा जाये। हिन्दी हमारे जैसे योग तथा ज्ञान साधकों
के लिये अध्यात्म की भाषा है। हम यहां लिखने का पूरा आनंद लेते हैं। पाठक उसका
कितना आनंद उठाते हैं यह उनकी समस्या है।
ऐसे फोकटिया लेखक है जो अपना साढ़े सात सौ रुपया इंटरनेट पर केवल इसलिये
खर्च करता है कि उसके पास मनोरंजन का का दूसरा साधन नहीं है। यह हमारी निराशा नहीं बल्कि अनुभव से निकला निष्कर्ष है। सीधी बात
कहें तो हिन्दी का रोजगार की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है अलबत्ता अध्यात्मिक
दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसी भाषा का ही महत्व रहने वाला है। सच
कहें तो कभी कभी तो लगता है कि हम हिंदी में इसलिये लिख पढ़े रहे हैं क्योंकि
अंग्रेजी हमारे समझ में नहीं आती। हम हिंदी में लिख पढ़ते भी इसलिये भी है ताकि
जैसा लेखक ने लिखा है वैसा ही समझ में आये। इनमें तो कई ऐसे हैं जिनकी हिंदी तो गड़बड़ है साथ ही इंग्लिश भी कोई बहुत अच्छी नहीं है।
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