एक
लोकतान्त्रिक देश में लोकतंत्र के चार प्रमुख स्तम्भ कहे गए हैं, जो इस तरह हैं- कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका तथा “मीडिया.” यदि लोकतंत्र की
चारो शक्तियां एक ही राग अलापने लगें तो राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता, इसीलिए “शक्तियों के पृथीकरण
के सिद्धान्त” को राज्य की
व्यवस्था को सुचारू रूप से चलने के लिए तथा शक्तियों के परस्पर समन्वय के लिए
प्रायः व्याख्यायित किया जाता है. इस सिद्धांत के अनुसार राज्य की तीनो शक्तियों
को अलग-अलग तथा समान स्वतंत्रता प्रदान की जाती हैं जिससे कि यदि शासक भी निरंकुश
होना चाहे तो उस पर लगाम कसा जा सके. दुर्भाग्य से भारत के सभी स्तम्भ सरकार के
गुणगान में व्यस्त है, ऑर
अपने धर्म पालन से दूर नजर आ रहे है ! व्यक्तिवादी मीडिया का होना गणतंत्र के हित
में नहीं होता है, एक
कुशल शासक को अपने गुणगान सुन कर निरंकुश होने में देर नहीं लगती, मीडिया का काम सरकार
की नीतियों पे खुल कर बहस करने का है, क्या गलत है क्या सही है इस पर मंथन करने का काम
है न कि राजनीतिक नेताओ के गुणगान का ! लोकतन्त्र से पहले
चाटूत्कारिता के लिए पहले राजा-महाराजा लोग दरबारी कवि रखते थे, रखें भी भला क्यों न
भारत का विनाश जो करना था पर आज मामला उल्टा है. दरबारी कवि का काम मीडिया कर रही
है. सिर्फ मीडिया ही नहीं इंटरनेट, ब्लॉग. फेसबुक, ट्विटर के महारथियों
ने अकेले जिम्मेदारी उठाई है वाह मेरे भारतीय वीरों. साहित्यकारों को क्या कहा जाए
उनका तो धर्म ही है, “जिसका
खाना-उसका गाना”. निस्पक्ष
पत्रकारिता की कमी खलती है. ऐसे पत्रकार हाशिये पर क्यों हैं जिनकी कलम सच्चाई की
जुबान बोलती है. कोई युग द्रष्टा पत्रकार या साहित्यकार मिलता क्यों नहीं, कलम वही है जो
यथार्थ लिखे, किसी
की प्रशंसा करे तो अनुशंसा भी करे. किसी की कमियां देखकर आँख मूँद लेना तो पक्षपात
है व एक पत्रकारिता के साथ अन्याय भी ! भारत जैसे
लोकतान्त्रिक देश में देश की प्रगति और विकास के लिए राज्य के सभी स्तम्भों का
समन्वयन जरूरी है, ईमानदारी
जरूरी है. यदि ईमानदारी नहीं तो विकास नहीं. सरकार की उपलब्धियों की प्रशंसा न
करके यदि मीडिया सरकार का ध्यान उन क्षेत्रों की तरफ ले जाए जहाँ आज भी
गरीबी-भुखमरी और लाचारी है किस्मत को कोसें, सरकार को या अपने
पूर्वजों को जिनकी वजह से आज भी गरीबी से उबार नहीं पा रहे. गरीब, गरीब क्यों है?
कहीं न कहीं
वजह ये भी है की उसे अमीर होने का मौका ही नहीं मिला. एक गरीब अपना पेट भर ले वही
बहुत है हसीन सपने देखने की उसकी औकात कहाँ? या तो सरकार अंधी है
या निचले तबके को देश का हिस्सा नहीं मानती. वोट लेने का काम बस नेताओं का है पर
इनके उत्थान के लिए किसी को फुर्सत नहीं है. हो भी भला क्यों न गरीबी की कुछ तो
सजा भुगतनी पड़ती है.एक निवेदन आप सबसे है कि निष्पक्ष लिखें, मीडिया से अनुरोध है
की आप बेशक सरकार की उपलब्धियों को जनता तक पहुचाएं पर जनता को ना भूल जाएँ. एक
तबका आज भी है जो न हिन्दू है न मुसलमान है, न सिख है और न ईसाई
है वो बस गरीब है, हाँ
यही उसकी एक मात्र जाति है. स्वतन्त्रता से लेकर अब तक देश ने लम्बा सफर तय किया है पर
इस सफर में हमारे कुछ साथी हमसे बहुत पीछे छूट गए हैं, उन्हें समाज की
मुख्य धारा में लाने की कोशिश तो कीजिये. जिन्होंने अपना सब कुछ इस देश के लिए
कुर्बान किया, भारतीयता
के लिए लड़े उनके स्वप्न में आज का गरीब भारत तो नहीं था उनके शहादत को बेकार जाने न दिया जाए तो बेहतर
होगा अन्यथा कृतघ्नता का बोझ हमे जीने नहीं देगा.निष्पक्ष व निडर रूप
से मीडिया को कर्तव्य का निर्वहन करना होगा !
10/04/2015
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