कवि युगराज जी सा की एक कविता सुनी एक कविता मे उन्होने समाज को बहुत बड़ी नसीहत दे दी कुछ लाइन मे समाज में मांसाहार , शराब पर अपनी पीड़ा व्यक्त की उनसे प्रेरित होकर चंद लाइन-
समाज में मांसाहार
, शराब का बढ़ता ग्राफ लगातार ये कह रहा है कि आदमी मन
के तल पर बीमार है। उपचार भी मन के तल पर ही करना होगा। प्राण-शक्ति की कमी या तो
उसे भरमा कर , भटका कर आहार विकृति
अपराध की दुनिया में सुकून या कहो मजा तलाशने धकेल देती है या अवसाद
की तरफ धकेल देती है। लगातार बदलती हुई इस दुनिया में मन भी लगातार ऊपर नीचे हुए
जा रहा है , इसीलिये बेचैन
है , उद्विग्न है , असहज है। कुछ है जो इस सब को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा
है , कभी लड़ना चाहता
है , कभी सामना करना
चाहता है तो कभी भागना चाहता है। गहरी परतों में कुछ ऐसा भी है जो बदला नहीं
है , सब कुछ देख रहा
है पर उसका जोर कोई नहीं चलता। सुखी और सन्तुलित मन का मूल-मन्त्र है आत्मीयता का
दायरा बढ़ा कर रखना। जैसा आहार होगा वैसा ही मन होगा और वैसी
ही मानसिक स्थिति बन जायेगी। जिस तरह आप अपने साथ सहज-सरल हैं वैसे ही
रहना है। कहा जाता
है कि आप बिना प्यार के भी किसी को कुछ भी दे सकते हैं मगर जिसे आप प्यार करते हैं उसे बिना कुछ दिये रह नहीं
पाते हैं । प्यार का
रास्ता इकतरफा होता है , हमें सिर्फ
अपना पता होना चाहिये कि हमें क्या करना है। इस दुर्लभ चीज का अभ्यास
अगर हम सुलभ कर लेते हैं तो एक दूसरी ही बत्ती जल उठेगी ; जिसके प्रकाश में हम सारी दुनिया को एक छत के नीचे एक
समग्र दृष्टिकोण से देख सकेंगे। सबको अपना मान चलने वाला व्यक्ति , समाज सभ्यता नैतिकता के नियम
नहीं तोड़ता। हालाँकि एक बारीक लाइन ही होती है मन
को इधर या उधर ले जाने वाली , फिर भी मन अगर
सजग है तो ऐड़ी चोटी का जोर लगा कर भी सन्तुलित रहने वाली बाउण्ड्री लाइन क्रॉस
नहीं करेगा। ये बिल्कुल तीसरी आँख खुलने जैसा है। जितने भी पहुँचे हुये पीर
पैगम्बर संत हुये हैं सबके
पास ये जादू की छड़ी थी। और व्यक्ति की
प्राण-शक्ति असीम होने लगती है। प्राण-शक्ति बढ़ते ही मन तनाव रहित व निर्मल
हो जाता है। रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति
बढ़ जाती है। उस चेतना से जब तक परिचय नहीं हो जाता , हम सन्तुलित रह ही नहीं सकते। वही चेतनता हमें नश्वरता
के बीच भी स्थिर और अटूट रख सकती है।जब भी मन विध्वंस की तरफ जाता है या भागना
चाहता है ,रुक कर जरा सोचें कि हालात बदलते रहेंगे
तो क्या आप झूले की तरह हिलते हुये अपने आपको इतना
कष्ट देते रहेंगे। सोचें कि रोज ऐसा नहीं होगा , बुरा आपके अहम को लगता है , वो भी इसलिये क्योंकि आप सिर्फ अपने बारे में सोचते
हैं , कारणों को नहीं
देख पाते। अवसाद है तो क्यूँ है , मन के कपड़े
बदलवा दीजिये , इसे कोई और सोच
दीजिये , रोज वही कमीज
थोड़ी न पहनेंगे। अपनी छोटी सोच से ऊपर उठें । अपनी बीमार सोच को स्वस्थ्य
करें। आहार शुद्धि करे ! कहते है जेसा खाये अन्न वेसा होए मन !सोच का दायरा बड़ा कीजिये। ये काम हमारे आध्यात्म
गुरु लोग , बच्चों के
माँ-बाप बखूबी कर सकते
हैं ; ताकि हमारी नई
फसलें यानि हमारे बच्चे इसको जीवन में उतार सकें ; मगर शिक्षा देने से पहले ये उन्हें अपने जीवन में
उतारना होगा। तभी शायद हमारे हालात बेहतर हो सकेंगे।
उत्तम जैन
विद्रोही
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