दहेज का शाब्दिक अर्थ है जो सम्पत्ति, विवाह
के समय वधू के परिवार की तरफ़ से वर को दी जाती है । भारत देश के प्रायः सभी राज्यो में दहेज प्रथा का लंबा इतिहास है । वधू के
परिवार द्वारा नक़द या वस्तुओं के रूप में यह वर के परिवार को वधू के साथ दिया
जाता है । प्राचीन समय से ही भारतीय समाज में कई प्रकार की प्रथाएं विद्यमान रही
हैं जिनमें से अधिकांश परंपराओं का सूत्रपात किसी अच्छे उद्देश्य से किया गया था ।
इसे शुरू करने के पीछे बहुत अछा मकसद था ! यह परम्परा सिर्फ हिंदू या जैन परम्परा ही नहीं थी वरन यह परम्परा बहुत सारे संस्कृतियों मे विध्यमान थी । पहले हमारे समाज में बेटियों को हर
जरूरत की चीजें और कुछ पैसे देते थे जिससे वह आर्थिक रूप से कमजोर न रहे व अपने
ससुराल में कुछ तकलीफ न हो । लेकिन समय बीतने के साथ-साथ इन प्रथाओं की उपयोगिता ने एक कुरुति का
रूप ले लिया है ! जिसके
परिणामस्वरूप पारिवारिक और सामाजिक तौर पर एक बहुत बड़ी सामाजिक समस्या बनकर उभर गयी
है। वहीं दूसरी ओर कुछ परंपराएं
ऐसी भी हैं जो बदलते समय के साथ-साथ अधिक विकराल रूप ग्रहण करती जा रही हैं । दहेज
प्रथा ऐसी ही एक कुरीति बनकर उभरी है जिसने ना जाने कितने ही परिवारों को अपनी
चपेट में ले लिया है । दहेज प्रथा आज भी
विवाह संबंधी रीति-रिवाजों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है । समय बदलने के साथ-साथ इस
प्रथा के स्वरूप में थोड़ी भिन्नता अवश्य आई है लेकिन इसे समाप्त किया जाना
दिनों-दिन मुश्किल होता जा रहा है । हमारा समाज पुरुष प्रधान है । हर कदम
पर केवल पुरुषों को बढ़ावा दिया जाता है । बचपन से ही लड़कियों के मन में ये बातें
डाली जाती हैं कि बेटे ही सबकुछ होते हैं और बेटियां तो पराया धन होती हैं ।
उन्हें दूसरे घर पर
जाना होता है, इसलिए
माता-पिता के बुढ़ापे का सहारा बेटा होता है ना कि बेटियां समाज में सबकी नहीं पर ज्यादा लोगों के सोच यही होती है! अब लड़कियों की पढ़ाई में खर्चा करना बेकार है यह मान्यता तो अब कुछ हद तक बदल चुकी है । लड़कों पर खर्च किए हुए पैसे उनकी शादी के बाद
दहेज में वापस मिल जाता है । यही कारण है माता-पिता बेटों को कुछ बनाने के लिए
कर्ज तक लेने को तैयार हो जाते हैं । पर लड़कियों की हालात हमेशा दयनीय रहती है, उनकी शिक्षा से ज्यादा घर के कामों को महत्व दिया जाता है । इस
मानसिकता को हमे परिवर्तित करना होगा । ज्यादातर कम पढे लिखे माता-पिता लड़कियों की शिक्षा के
विरोध में रहते हैं । वे यही मानते हैं कि लड़कियां पढ़कर क्या करेगी । उन्हें तो
घर ही संभालना है परंतु माता-पिता को समझना चाहिए कि पढऩा-लिखना कितना जरूरी
है वो परिवार का केंद्र विंदु होती है । उसके आधार पर पूरे परिवार की नींव होती है
। उसकी हर भूमिका चाहे वो बेटी का हो, बहन का हो, पत्नी का हो बहू का हो या फिर सास
पुरुषों की जीवन को वही सही मायने में अर्थ देती है । दहेज प्रथा के अंतर्गत युवती का पिता
उसे ससुराल विदा करते समय तोहफे और कुछ धन देता है । इस धन और तोहफों को स्त्रीधन
के नाम से भी जाना जाता है । अब यही धन वैवाहिक संबंध तय करने का माध्यम बन गया है
। प्राचीन समय में पुरुष अपनी पसंद की स्त्री का हाथ मांगते समय उसके पिता को कुछ
तोहफे उपहार में देता था, ससुराल
पक्ष इसमें ना तो कोई मांग रखता था और ना ही दहेज को अपनी संपत्ति कह सकता था ।
लेकिन अब समय पूरी तरह बदल चुका हैं, और वर पक्ष के लोग मुंहमांगे धन की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
रूप से आशा
करने लगे हैं जिसके ना मिलने पर स्त्री का शोषण होना, उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित
किया जाना कोई बड़ी बात नहीं है प्राचीन
काल में शुरू हुई यह परंपरा आज अपने पूरे विकसित और घृणित रूप में हमारे सामने खड़ी
है । यही कारण है कि हर विवाह योग्य युवती के पिता को यही डर सताता रहता है कि अगर
उसने दहेज देने योग्य धन संचय नहीं किया तो उसके बेटी के विवाह में परेशानियां तो
आएंगी ही, साथ ही
ससुराल में भी उसे आदर नहीं मिल पाएगा । दहेज प्रथा के वीभत्स प्रमाण हैं, प्रताड़ना की घटनाएँ, जो अंतत: नवविवाहित वधुओं की 'दहेज हत्या' के रूप में परिणित होती हैं । लड़कियों के साथ बुरे
बर्ताव, भेदभाव
तथा कन्या भ्रूण और कन्या शिशुओं की हत्या जैसे जघन्य कृत्यों के रूप में सामने
आने वाले इसके दुष्परिणाम दहेज प्रथा की उस क्रूरता को प्रदर्शित करते हैं, जिसका सामना हमारा समाज आज भी कर रहा
है । माता-पिता रिश्ता करते समय रूपयों के लालच में करते है वह यह नहीं देखते कि
लड़का-लड़की में क्या अवगुण है ! समाज में दहेज प्रथा एक ऐसा सामाजिक
अभिशाप बन गया है जो महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों, चाहे वे शारीरिक हों या फिर मानसिक को बढावा देता है । वर्तमान समय में
दहेज व्यवस्था एक ऐसी प्रथा का रूप ग्रहण कर चुकी है जिसके अंतर्गत युवती के
माता-पिता और परिवारवालों का सम्मान दहेज में दिए गए धन-दौलत पर ही निर्भर करता है
। वर-पक्ष भी सरेआम या अंदर ही अंदर अपने बेटे का सौदा करता है । प्राचीन परंपराओं के नाम पर युवती के
परिवार वालों पर दबाव डाल उन्हें प्रताड़ित किया जाता है । इस व्यवस्था ने समाज के
सभी वर्गों को अपनी चपेट में ले लिया है । संपन्न परिवारों को शायद दहेज देने या
लेने में कोई बुराई नजर नहीं आती । क्योंकि उन्हें यह मात्र एक निवेश लगता है ।
उनका मानना है कि धन और उपहारों के साथ बेटी को विदा करेंगे तो यह उनके मान-सम्मान
को बढ़ाने के साथ-साथ बेटी को भी खुशहाल जीवन देगा । लेकिन निर्धन अभिभावकों के लिए
बेटी का विवाह करना बहुत भारी पड़ जाता है । वह जानते हैं कि अगर दहेज का प्रबंध
नहीं किया गया तो विवाह के पश्चात बेटी का ससुराल में जीना तक दूभर हो जाएगा । परन्तु अक्सर ऐसा देखने
में आया है कि दहेज लेने के पश्चात ससुराल पक्ष की मांग ओर बढती जाती है और बेटी
का बाप उसकी मांगों को पुरी नहीं कर पाता है तो वे उसे यातना देने लगते है हमारा सामाजिक परिवेश कुछ इस प्रकार
बन चुका है कि यहां व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसके आर्थिक हालातों पर ही निर्भर करती
है । जिसके पास जितना धन होता है उसे समाज में उतना ही महत्व और सम्मान दिया जाता
है। ऐसे परिदृश्य में लोगों का लालची होना और दहेज की आशा रखना एक स्वाभाविक
परिणाम है । आए दिन हमें दहेज हत्याओं या फिर घरेलू हिंसा से जुड़े समाचारों से
दो-चार होना पड़ता है । यह मनुष्य के लालच और उसकी आर्थिक आकांक्षाओं से ही जुड़ी है
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिसे जितना
ज्यादा दहेज मिलता है उसे समाज में उतने ही सम्माननीय नजरों से देखा जाता है दहेज के खिलाफ हमारे सरकार ने कई कानून बनाये ! लेकिन इसका कोई विशेष फायदा होता नजर
नहीं आता है । जगह-जगह अक्सर यह पढ़ने को तो मिल जाता है ''दहेज लेना या देना अपराध है'' परंतु यह पंक्ति केवल विज्ञापनों तक
ही सीमित है, आज भी
हमारे चरित्र में नहीं उतरी है । दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए अब तक कितने ही
नियमों और कानूनों को लागू किया गया हैं, जिनमें से कोई भी कारगर सिद्ध नहीं हो
पाया । इन नियमों के अनुसार शादी के समय
दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखा जाना चाहिए । इस सूची में
प्रत्येक उपहार, उसका
अनुमानित मूल्य, जिसने
भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते का एक संक्षिप्त
विवरण मौजूद होना चाहिए । नियम बना तो दिए जाते हैं लेकिन ऐसे नियमों को शायद ही
कभी लागू किया जाता है । इन सब कानूनों के होने के बावजूद भी व्यावहारिक रूप से
बेटीयों को इसका कोई लाभ नहीं मिल पाया । इसके विपरीत इसकी लोकप्रियता और चलन
दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है । अभिभावक बेटी के पैदा होने पर खुशी जाहिर नहीं कर
पाते, क्योंकि
कहीं ना कहीं उन्हें यही डर सताता रहता है कि बेटी के विवाह में खर्च होने वाले धन
का प्रबंध कहां से होगा । इसके विपरीत परिवार में जब बेटा जन्म लेता है तो वंश
बढ़ने के साथ धन आगमन के विषय में भी माता-पिता आश्वस्त हो जाते हैं । यही वजह है
कि पिता के घर में भी लड़कियों को महत्व नहीं दिया जाता । बोझ मानकर उनके साथ हमेशा
हीन व्यवहार ही किया जाता है । विवाह के
पश्चात दहेज लोभी ससुराल वाले विवाह में मिले दहेज से संतुष्ट नहीं होते बल्कि
विवाह के बाद वधू को साधन बनाकर उसके पिता से धन और उपहारों की मांग रखते रहते हैं, जिनके पूरे ना होने पर युवती के साथ
दुर्व्यवहार, मारपीट
होना एक आम बात बन गया है । आज भी बिना किसी हिचक के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
रूप से वर-पक्ष दहेज की मांग करता है और ना मिल पाने पर
नववधू को उनके कोप का शिकार होना पड़ता है ।आज हमारे समाज में जितने शिक्षित और
सम्पन्न परिवार है, वह
उतना अधिक दहेज पाने की लालसा रखता है । इसके पीछे उनका यह मनोरथ होता है कि जितना
ज्यादा
उनके लड़के को दहेज मिलेगा समाज में उनके
मान-सम्मान, इज्जत, प्रतिष्ठा में उतनी ही चारचांद लग जाएगी । बेटी के सुखी जीवन और
उसके सुनहरे भविष्य की खातिर वे अपनी उम्र भर की मेहनत की कमाई एक ऐसे इंसान के
हाथ में सौंपने के लिए मजबूर हो जाते हैं जो शायद उनके बेटी से ज्यादा उनकी पैसों से शादी कर रहे होते है ।
इच्छा तो हर इंसान
के मन में पनपती है, चाहे
वह अमीर हो या गरीब ज्यादातर शिक्षित और
संपन्न परिवार ही दहेज लेना अपनी परंपरा का एक हिस्सा मानते हैं तो ऐसे में
अल्पशिक्षित या अशिक्षित लोगों की बात करना बेमानी है । युवा पीढ़ी, जिसे समाज का भविष्य समझा जाता है, उन्हें इस प्रथा को समाप्त करने के लिए
आगे आना होगा ताकि भविष्य में प्रत्येक स्त्री को सम्मान के साथ जीने का अवसर मिले
और कोई भी वधू दहेज हत्या की शिकार ना होने पाए । दहेज प्रथा भारतीय समाज पर एक
बहुत बड़ा कलंक है जिसके परिणामस्वरूप ना जाने कितने ही परिवार बर्बाद हो चुके हैं, कितनी महिलाओं ने अपने प्राण गंवा दिए
और कितनी ही अपने पति और ससुराल वालों की ज्यादती का शिकार हुई हैं । सरकार ने
दहेज प्रथा को रोकने और घरेलू हिंसा को समाप्त करने के लिए कई योजनाएं और कानून
लागू किए हैं। बहुत बार इस कानून का दुरुपयोग भी होता है ! लेकिन फिर भी दहेज प्रथा को समाप्त कर
पाना एक बेहद मुश्किल कार्य है । इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि भले ही ऊपरी
तौर पर इस कुप्रथा का कोई भी पक्षधर ना हो लेकिन अवसर मिलने पर लोग दहेज लेने से
नहीं चूकते । अभिभावक भी अपनी बेटी को दहेज देना बड़े गौरव की बात समझते हैं, उनकी यह मानसिकता मिटा पाना लगभग
असंभव है । एक समय था जब बेटे और बेटी में कोई अंतर नहीं माना जाता था । परिवार
में कन्या के आवगमन को देवी लक्ष्मी के शुभ पदार्पण का प्रतीक माना जाता था पर अब धीरे-धीरे समाज में नारी के अस्तित्व के संबंध
में हमारे समाज की मानसिकता बदलने लगी । फलस्वरूप घर की लक्ष्मी तिरस्कार की वस्तु समझी जाने लगी । आज नोबत यह आ गई कि हम गर्भ में ही उसकी हत्या करने लगे ।
अगर हम गौर करें तो पायेंगे कि भ्रूण हत्या भी कहीं न कहीं दहेज का ही कुपरिणाम है
। दहेज प्रथा की यह विकृति समाज के सभी वर्गों में समान रूप से घर कर चुकी है ।
उच्चवर्ग तथा कुछ हद तक निम्नवर्ग इसके परिणामों का वैसा भोगी नहीं है जैसा कि
मध्यमवर्ग हो रहा है इसके कारण पारिवारिक
और सामाजिक जीवन में महिलाओं की स्थिती अत्यंत शोचनीय बनती जा रही है । आए दिन
ससुराल वालों की ओर से दहेज के कारण जुल्म सहना और अंत में जलाकर उसका मार दिया
जाना किसी भी सभ्य समाज के लिए बड़ी शर्मनाक बात है । नारी शक्ति का रूप मानी जाती है लड़की और लड़कों में इतना फर्क क्यों किया जाता
है । इतनी असमानता क्यों मानी जाती है । इसका जवाब केवल यह है कि लड़के कुल का
दीपक होते हैं और लड़कियां पराया धन । लड़के की शादी में ढेर सारे पैसे मिलते हैं, लड़कियों की शादी में ढेर सारे रुपये
खर्च करना पड़ता है । ये जानते हुए कि दहेज लेना और देना दोनों अपराध है । फिर लोग
ये गुनाह करना अपना कर्तव्य समझते है या उनकी मजबूरी । जबकि लड़कियों ने हमेशा हर कदम पर
खुद को साबित किया है । यदि उन्हें अच्छी शिक्षा दी जाए तो वे
लड़कों से भी ज्यादा बेहतर काम करेंगी ।
दहेज
प्रथा केसे रोकी जा सकती है ?
दहेज एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है
जिसका परित्याग करना बेहद जरूरी है । दहेज प्रथा को जड़ से समाप्त करने के लिए समाज
सुधारकों द्वारा किए गए महत्वपूर्ण और प्रभावपूर्ण प्रयत्नों के बावजूद इसने
अत्यंत भयावह रूप धारण कर लिया है । इसका विकृत रूप मानव समाज को भीतर से खोखला कर
रहा है । वर्तमान हालातों के मद्देनजर यह केवल माता पिता व आज के नवयुवक
और जन सामान्य पर निर्भर करता है कि वे दहेज
प्रथा के दुष्प्रभावों को समझें ! क्योंकि
अगर एक के लिए यह अपनी प्रतिष्ठा की बात है तो दूसरे के लिए अपनी इज्जत बचाने की ।
इसे समाप्त करना पारिवारिक मसला नहीं बल्कि सामाजिक दायित्व बन चुका है । इसके लिए जरूरी
है कि आवश्यक और प्रभावी बदलावों के साथ कदम उठाए जाएं और दहेज लेना और देना
पूर्णत: प्रतिबंधित कर दिया जाए । अभिभावकों को चाहिए कि वे अपनी बेटियों को इस
काबिल बनाएं कि वे शिक्षित बन स्वयं अपने हक के लिए आवाज बुलंद करना सीखें । अपने
अधिकारों के विषय में जानें उनकी उपयोगिता समझें । क्योंकि जब तक आप ही अपनी बेटी
का महत्व नहीं समझेंगे तब तक किसी और को उनकी अहमियत समझाना नामुमकिन है ।
आवश्यकता है एक ऐसे स्वस्थ सामाजिक वातावरण के निर्माण की जहां नारी अपने आप को
बेबस और लाचार नहीं बल्कि गौरव महसूस करे । वास्तव में दहेज जैसी कुरुति को जड़ से खत्म करने के लिए युवाओं को
एक सशक्त भूमिका निभाने की जरूरत है । उन्हें समाज को यह संदेश देने की आवश्यकता है कि वह दहेज की लालसा नहीं रखते
हैं अपितु वह ऐसा जीवनसाथी चाहते हैं जो पत्नी, प्रेयसी और एक मित्र के रूप में हर
कदम पर उसका साथ दे । कुछ नवयुवक आज जागृत भी हुए है कुछ वर्षो पूर्व एक मेरे पारिवारिक जीवन मे नेक व उलेखनीय
उदाहरण देखने को मिला ! मेरे मोसी के पुत्र श्री महावीर जैन ने स्वयं यह निर्णय लिया था
की मे अपनी शादी मे किसी तरह का दहेज नही लूँगा ! सिर्फ एक साड़ी मे बहू लेकर आऊँगा
!आज
इस तरह के नवयुवको की समाज को जरूरत है ! दहेज प्रथा के पीछे भी ज्यादातर महिलाएं ही होते हैं उन्हें एक महिला की भावना को समझना चाहिए और इस
प्रकार की प्रथा का तिरस्कार करना चाहिए । मेरा यह मानना है कि अगर दहेज प्रथा
समाज से पूरी तरह समाप्त हो जाए तो कन्याभ्रूण हत्या स्वत: ही समाज से समाप्त हो जायेगी । समाज मे विभिन्न कार्यक्रम के माध्यम से समाज में
जागरूकता पैदा की सकती है ओर सभी संप्रदाय के साधू संत
आचार्य व विशेष कर मीडिया को इस तरह
के कार्यक्रमों को अपने समाचार पत्रो मे प्रमुखता देनी चाहिए क्योंकि आज के युवा वर्ग को जेसा हम
दिखाएंगे सिखाएंगे और पढ़ाएंगे वो ही जाकर हमारा भविष्य बनेंगे ।
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